समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का मुद्दा न सिर्फ़ नागरिक होने के हक़ से जुड़ा है, बल्कि इंसान होने के नाते नैसर्गिक अधिकारों के दायरे में भी आता है. अनुमान के मुताबिक भारत में इस वक्त करीब 140 करोड़ नागरिक हैं. बतौर नागरिक हर किसी को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार उसका न सिर्फ संवैधानिक ह़क है, बल्कि ये उसके अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है. संविधान के अनुच्छेद 21 में जो प्रावधान हैं, उसके जरिए ही ये अधिकार हर नागरिक के लिए सुनिश्चित होता है. इसके साथ ही समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता का मसला समानता के मौलिक अधिकार से भी जुड़ा हुआ है.


जब हमारे देश में समलैंगिक संबंध वैधानिक है, तो फिर समलैंगिक विवाह को मान्यता उसका अगला पड़ाव ही होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर 2018 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायधीशों की संविधान पीठ ने एकमत से ये फैसला सुनाया था. उस पीठ में मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चन्द्रचूड़ भी शामिल थे.  फिलहाल उनकी अगुवाई वाली बेंच ही समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है.


2018 में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा था कि परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध अपराध नहीं हैं और ऐसे यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने की धारा 377 के प्रावधान से संविधान से मिले समता और गरिमा के अधिकार का हनन होता है. सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करते हुये कहा था कि ये तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव नहीं किये जाने वाला है. हालांकि शीर्ष अदालत ने ये भी साफ किया था कि अगर दो वयस्कों में से किसी एक की सहमति के बगैर समलैंगिक यौन संबंध बनाए जाते हैं तो ये आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा और दंडनीय होगा. इसके जरिए सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के संबंधों में भी वयस्कता और सहमति को सर्वोपरि माना था.


सुप्रीम कोर्ट ने उस वक्त अपने आदेश में कहा कि एलजीबीटीक्यू समुदाय को भी देश के दूसरे नागरिकों के समान ही संवैधानिक अधिकार हासिल है. कोर्ट ने लैंगिक रूझान यानी सेक्सुअल ओरिएंटेशन को 'जैविक घटना' और 'स्वाभाविक' बताते हुये कहा था कि इस आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव से मौलिक अधिकारों का हनन होता है. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को पुराने ढर्रे पर चल रहे समाज की व्यवस्था पर आधारित माना था. ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एलजीबीटीक्यू के सदस्यों को परेशान करने के लिये धारा 377 का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है जिसकी परिणति भेदभाव में होती है.


उस वक्त पीठ में शामिल जस्टिस इन्दु मल्होत्रा ने अपने निर्णय में कहा था कि सदियों तक बदनामी और बहिष्कार झेलने वाले इस समुदाय के सदस्यों और उनके परिवारों को राहत प्रदान करने में हुए विलंब की बात को इतिहास में खेद के साथ दर्ज किया जाना चाहिए. जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ ने कहा था कि धारा 377 की वजह से एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को छुपकर और दोयम दर्जे के नागरिकों के रूप में जीने के लिये मजबूर होना पड़ा.


दरअसल जब हम 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण करेंगे तो ये साफ है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को भी बाकी नागरिकों की तरह वो सारे ह़क मिलने चाहिए, जो हमें बतौर नागरिक संविधान और देश के बाकी कानूनों से मिलता है. समलैंगिक विवाह को अगर कानूनी मान्यता नहीं दी जाती है, तो इस समुदाय के लोगों के साथ तो दोयम व्यवहार माना ही जाएगा, साथ ही ये सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले में कही गई बातों का भी एक तरह से उल्लंघन है.


अब हम सब ये जानते हैं कि समलैंगिक संबंध बनाने वाले लोगों में ये प्रवृत्ति जन्मजात होती है और मेडिकल साइंस में भी इस बात को बखूबी स्वीकार किया गया है. जहां तक बात रही सामाजिक मान्यताओं की तो सदियों से चली आ रही कई सामाजिक मान्यताएं वक्त के हिसाब से कानूनी प्रवाधान कर बदल दी गई हैं. ये कोई नई बात नहीं है.


एक बात समझना होगा कि जो लोग समलैंगिक संबंध में होते हैं, उनका जुड़ाव भी उसी तरह की भावनाओं पर आधारित होता है, जैसा एक आम लड़का-लड़की या एक महिला-पुरुष के बीच होता है. विवाह को कानूनी मान्यता से मतलब ही है कि उस संबंध को एक तरह से सामाजिक के साथ ही कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए. समलैंगिक संबंध वाले कपल एक साथ रह सकते हैं, बालिग कपल अपनी सहमति से यौन संबंध भी बना सकते हैं. कानूनी तौर से इसमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन लीगल सिक्योरिटी नहीं होने की वजह से उन्हें कई सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.


ये भी सच है कि 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसे कपल के बीच विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है और ऐसे कपल अपने अपने रीति-रिवाजों से शादी कर एक साथ रह भी रहे हैं. लेकिन बतौर कपल न तो वे बच्चा गोद ले सकते हैं, न ही घर खरीद सकते हैं. उन्हें भी बैंक डिपॉजिट या बीमा के जरिए एक-दूसरे के भविष्य को सुरक्षित करने का पूरा हक़ होना चाहिए. लेकिन विवाह को कानूनी मान्यता नहीं होने की वजह से इन कपल के लिए ये फिलहाल दूर की कौड़ी हो जाती है. नॉर्मल कपल की तरह उनके बीच झगड़ा होने पर तलाक से जुड़े कानूनी प्रावधान भी उपलब्ध नहीं है, जिससे उस रिश्ते में कमजोर पक्ष की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो पाए.


भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय ने एक लंबी लड़ाई लड़ी तब जाकर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया. ये लड़ाई तो लंबी थी लेकिन सबसे पहले 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने नाज फाउंडेशन केस में फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए आईपीसी की धारा 377 को अवैध बताया था. हालांकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल केस में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया था. उसके बाद सितंबर 2018 में नवतेज सिंह जौहर केस में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने अपने पुराने आदेश को बदलते हुए समलैंगिकता को अपराध की कैटेगरी से बाहर कर दिया.


इस फैसले से तो एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों के साथ ही उनके परिवार को भी बहुत राहत मिली थी. लेकिन अब जब ऐसे संबंधों को रखने वाले लोग और उनके परिवार भी इस तरह के संबंधों को विवाह में बदल रहे हैं, तो ये लाजिमी है कि उनको सामाजिक के साथ ही कानूनी सुरक्षा भी मिले.


भारत में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर हुए साढ़े चार साल से ज्यादा का वक्त हो गया है. दरअसल उस फैसले के बाद खुद ही केंद्र सरकार को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने को लेकर पहल करनी चाहिए थी. उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि LGBTQ समुदाय को कलंक नहीं माना जाए, इसके लिए सरकार को प्रचार करना चाहिए और इसके लिए अफ़सरों को संवेदनशील बनाना होगा. इसके साथ ही समाज में इस समुदाय के लोग खुद को सुरक्षित मानें और इसका हिस्सा होने की फीलिंग आए, इस नजरिए से भी समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से फायदा होगा.


हालांकि केंद्र सरकार की दलील है कि इससे परिवार, सामाजिक व्यवस्था और वर्तमान में मौजूद तरह-तरह के कानूनों में विसंगतियां पैदा होंगी. उसके मुताबिक परिवार और विवाह के लिए विपरीत लिंग वाले लोगों के बीच संबंध होना अनिवार्य पहलू है. केंद्र सरकार का कहना है कि  भारत में मौजूद विवाह और तलाक जैसे कानूनों में पति-पत्नी की इसी तरह की व्याख्या की गई है. मेरा मानना है कि समलैंगिक संबंध के लीगल होने के बाद इन तर्कों का कोई महत्व नहीं रह जाता है. ये तर्क तब तक सही माने जा सकते थे, जब तक देश में समलैंगिकता अपराध माना जाता था. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं और उस नजरिए से भी विवाह से जुड़े तमाम कानूनों जैसे हिन्दू मैरिज एक्ट, स्पेशल मैरिज एक्ट में बदलाव होना ही चाहिए. ऐसे भी ये सारे कानून उस वक्त बने थे, जब समलैंगिकता अपने यहां अपराध के दायरे में आता था. इन कानूनों में बदलाव कर ही  LGBTQ समुदाय के लोगों को हम समाज की मुख्यधारा में वास्तविक तौर से ला पाने में सक्षम होंगे.


भारत में ये तो सच्चाई है कि कई ऐसे कपल हैं जो समलैंगिक हैं और वर्षों से एक-दूसरे के साथ रह रहे हैं. अब कानून की नज़र में भी उनका संबंध ग़लत नहीं है. तो अगर हम महिला और पुरुष के बीच के संबंधों को शादी के पड़ाव पर ले जाने के बारे में सोचते हैं, उसी तर्ज पर समलैंगिकों के संबंध भी विवाह तक पहुंचेंगे ही, ये अपोजिट जेंडर के बीच संबंधों की तरह ही बिल्कुल ही स्वाभाविक प्रक्रिया है.


अगर भारत जल्द ही समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दे देता है, तो ये दुनिया के कई देशों के लिए मिसाल का काम करेगा. फिलहाल दुनिया में बहुत कम देश हैं, जहां ऐसे विवाह को मान्यता मिली हुई है. ज्यादातर पश्चिमी देशों में ही ये ह़क हासिल है. एशिया में तो सिर्फ ताइवान ही है, जो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देता है. लंबे वक्त से जापान, दक्षिण कोरिया, ग्रीस, थाइलैंड, सिंगापुर और हांगकांग जैसे देशों में इस तरह की मांग को लेकर बहस और आंदोलन जारी है. अगर भारत में ऐसा हो जाता है, तो उन देशों में भी LGBTQ समुदाय के लोगों की मांगों को बल मिलेगा. ह्यूमन राइट्स वॉच में LGBTQ मुद्दों पर रिसर्च करने वाले वाले काइल नाइट का भी मानना है कि अगर भारत में ऐसा हो जाता है तो वैश्विक स्तर पर समलैंगिक संबंधों की मान्यता को भारी बढ़ावा मिलेगा.


आपको ये जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में समलैंगिकता को अपराध की कैटेगरी से निकालने के बाद समलैंगिक विवाह को मान्यता देने में एक दशक का वक्त लग गया था. इस दिशा में भारत अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है और उससे आधे समय में ही ऐसा करने वाला देश बन सकता है, अगर सुप्रीम कोर्ट से इन विवाहों को कानूनी मान्यता मिलने के पक्ष में फैसला आ जाता है. फिलहाल दुनिया के 133 देशों में समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर है, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 32 देशों में ही समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता हासिल है. ज्यादातर अमेरिकन देशों और यूरोपियन देशों में तो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता है, लेकिन अफ्रीका और एशियाई देशों में इस दिशा में अभी भी लंबी राह तय होनी है और भारत के फैसले से अफ्रीका और एशियाई देशों पर प्रभाव पड़ेगा, ये भी तय है. 


2018 की तरह ही अब एक बार फिर से समलैंगिक संबंध में बंधे लोगों की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिक गई है. अब देश का सर्वोच्च न्यायालय ही यहां के हर नागरिकों के लिए विवाह के अधिकार को सुनिश्चित कर सकता है. जिस तरह से 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ब्रिटिश काल में बनी आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिकता को अपराध के दायरे में रखने से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 से मिले मौलिक अधिकारों का हनन होता है, वहीं आधार समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं देने पर भी लागू होता है. इसी वजह से LGBTQ समुदाय के लोगों को एक बार फिर से अपने पक्ष में फैसला आने की आस बनी है. 


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)