अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद भारत ने पहली बार आधिकारिक रुप से तालिबान के साथ आज जो बातचीत की है, उसका मुख्य मकसद तो वहां फंसे भारतीय नागरिकों की जल्द व सुरक्षित रिहाई ही था. लिहाज़ा बड़ा सवाल ये है कि आने वाले दिनों में तालिबान के प्रति भारत अपने रुख में कोई बदलाव लायेगा या फिर पुरानी नीति पर ही अडिग रहते हुए संभावित बड़े खतरों की चुनौती से निपटने के लिए तैयार रहेगा?
फिलहाल हमारे विदेश मंत्रालय ने इस बारे में कोई खुलासा नहीं किया है लेकिन तालिबान ने जिस तरह से एक अमेरीकी मददगार शख्स को हेलीकॉप्टर से लटकाकर पूरे शहर में घुमाते हुए फांसी दी है, उससे साफ है कि न तो तालिबान बदला है और न ही सजा देने के उसके तरीकों में कोई बदलाव आया है. इसलिये ये भरोसा कैसे कर लिया जाये कि तालिबान अपनी धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा?
हालांकि अब महत्वपूर्ण मसला ये भी है कि रूस,चीन और पाकिस्तान की तालिबान के प्रति हमदर्दी को ध्यान में रखकर ही भारत को अपना रुख़ तय करना होगा. ऐसी खबरें हैं कि तालिबान के आने से काफ़ी पहले ही रूस ने भारत को आगाह किया था कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर रुख़ बदलने की ज़रूरत आ गई है. तालिबान के बारे में चीन ने 28 जुलाई को ही अपना स्टैंड सार्वजनिक कर दिया था. उसके विदेश मंत्री वांग ली ने तियानजिन में तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर से मुलाकात के बाद कहा था, "अफ़ग़ान तालिबान एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और मिलिट्री ताक़त है और देश में शांति और पुनर्निमाण की प्रक्रिया में इससे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद है."
गौरतलब है कि काबुल पर तालिबान का नियंत्रण स्थापित होने के चार दिन पहले 11 अगस्त को ही अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर रूस, चीन, पाकिस्तान और अमेरिका के प्रतिनिधि क़तर की राजधानी दोहा में मिले थे.लेकिन भारत को इस वार्ता में जगह नहीं मिली और ये बात रुसी राष्ट्रपति पुतिन के विशेष दूत ज़ामिर काबुलोव के बयान से स्पष्ट भी हो गई थी. रूसी समाचार एजेंसी तास ने 20 जुलाई को जामिर काबुलोव के हवाले से बताया था कि भारत इस वार्ता में इसलिए शामिल नहीं हो पाया क्योंकि तालिबान पर उसका कोई प्रभाव नहीं है.
अब विदेश मंत्रालय के सूत्र मानते हैं कि भारत के लिए ये बदले हुए हालात एक नई व बड़ी चुनौती हैं. ये फ़ैसले की घड़ी है और अमेरिका से रिश्तों का ख़्याल किए बग़ैर ये देखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत का नफा-नुक़सान क्या है. जैसा कि तालिबान की वापसी को लेकर जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल ने कहा था कि ये एक कड़वा सच है, लेकिन हमें इससे निपटना होगा.
लेकिन भारत को अपनी सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही भविष्य के लिए बन रही अंतराष्ट्रीय कूटनीति का ख्याल रखते हुए ही अपने रुख में कोई बदलाव करना होगा. क्योंकि तालिबान के आने के बाद अफगानिस्तान अब एक इस्लामी गणराज्य नहीं रह जाएगा. साल 2004 में जब अफ़ग़ानिस्तान पर पश्चिमी मुल्कों का असर था, तो उस वक़्त बने संविधान ने देश को 'इस्लामी गणराज्य' का दर्जा दिया था, जो अब खत्म हो जायेगा.
सच तो ये है कि तालिबान ख़ुद को 'इस्लामिक अमीरात ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान' के तौर पर ही परिभाषित करता है. साल 2020 के 'दोहा समझौते' पर उन्होंने इसी नाम से दस्तख़त किए थे. यही दस्तावेज़ अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने का पहला एलान था. वैसे भी तालिबान के प्रवक्ता हाल के दिनों में इस 'दोहा समझौते' का जिक्र बार-बार करते रहे हैं और ज़बीहुल्ला मुजाहिद ने अपने संवाददाता सम्मेलनों में अफ़ग़ानिस्तान को इसी नाम से बुलाया है.
दरअसल, अमीरात का मतलब होता है कि मुल्क की सारी धार्मिक व राजनीतिक ताकत एक ही शख्स के हाथ में होगी. फ़ारस की खाड़ी के इलाक़े में इस तरह के मुल्क हैं.मसलन, क़तर और कुवैत भी अमीरात ही हैं. संयुक्त अरब अमीरात के नाम से ही ये ज़ाहिर होता है कि वो ऎसे अमीरातों का महासंघ है.
मध्य पूर्व मामलों के जानकार कहते हैं, "गणतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति धार्मिक नेता नहीं होते हैं लेकिन अमीरात व्यवस्था वाले मुल्कों में राष्ट्राध्यक्ष धार्मिक नेतृत्व ही होता है. राजनीतिक और धार्मिक शक्तियां एक व्यक्ति में केंद्रित होती हैं, और वो शख़्स मुल्क का आमिर होता है." ज़्यादातर मुस्लिम देशों में ये आम बात है कि राजनीतिक और धार्मिक शक्ति एक ही के पास होती है.
इस संबंध में बोस्टन यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी (मानवविज्ञान) के विशेषज्ञ थॉमस बारफील्ड बताते हैं कि "आमिर के खिताब का इतिहास आमिर अलमुमिनिन के वक़्त का है. इसका मतलब है 'वफ़ादार और भरोसेमंद लोगों का कमांडर'. पैग़ंबर मोहम्मद के वक़्त फौज के कुछ सरदार इस खिताब का इस्तेमाल किया करते थे." बारफील्ड का कहना है कि तालिबान जिस अमीरात की बात कर रहे हैं, वो इस्लामिक स्टेट ISIS की खिलाफत से अलग है.
इस्लामिक स्टेट का कहना है कि उसकी योजना दुनिया पर फतह हासिल करके ये सुनिश्चित करना है कि उसके खलीफा की हुकूमत सभी मुसलमानों पर स्थापित हो, चाहे वे कहीं भी रह रहे हों. वहीं तालिबान ख़ुद को एक ऐसी स्वतंत्र राजनीतिक इकाई के तौर पर देखता है, जिसका दायरा अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन पर रहने वाले लोगों तक ही सीमित है.
इसलिये, अभी तो ये देखना है कि तालिबान के अमीरात और इस्लामिक स्टेट की खिलाफत में आखिर जीत किसकी होती है क्योंकि दोनों ही गुट एक दूसरे को दुश्मन की नज़र से देखते हैं. काबुल एयरपोर्ट पर बम धमाके करके इस्लामिक स्टेट ने अपनी दुश्मनी की नुमाइश का सिलसिला शुरू कर दिया है.
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