भूटान और चीन में अगर सहमति बनी तो डोकलाम विवाद पर जानिए क्या हो सकती है भारत की रणनीति
भारत और चीन के बीच गलवान हिंसा यानी साल 2020 के बाद से ही एलएसी पर तनाव जारी है. इस बीच, कई सैटेलाइट तस्वीरों से ये साफ हुआ कि बीजिंग एलएसी से सटे क्षेत्रों में तेजी के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर रहा है. दोनों तरफ से कूटनीतिक पहल हुई, लेकिन उसमें कोई आशातीत सफलता नहीं मिल पाई है. जहां तक ट्राई जंक्शन का बात है तो यह हिस्सा इंडिया चाइना और भूटान के बीच का हिस्सा है. पहले यह तय हुआ था कि इसे लेकर जब भी कोई भी निर्णय होगा तो इसमें तीनों की सहमति होगी यानी इंडिया चाइना और भूटान. जहां तक इस जगह को लेकर बात है तो चाइना का जब तिब्बत पर डायरेक्ट कंट्रोल हो गया तो उसका इस जगह पर कंट्रोल बढ़ गया. इससे पहले डोकलाम विवाद हुआ और वहां पर भारत के साथ जब टकराव हुआ तो चीन को इंटरनेशनल प्रेशर भी झेलना पड़ा. उस पर यह दबाव पड़ा कि वह अपने बॉर्डर डिस्प्यूट के लिए किए गए संधियों का सम्मान नहीं करता है. वह अपने सिर्फ विस्तार वादी नीति के तहत काम कर रहा है और कहीं ना कहीं जो चीन के साथ भारत का जो विवाद है, वह दिखता भी है.
भूटान ने चीन के साथ इस तरह के सीमा विवाद को हल करने के लिए अभी से नहीं बल्कि 1989 से ही काम कर रहा है. अभी कुछ दिन पहले ही जब भूटान के किंग भारत की यात्रा पर आए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की तो दोनों ने इन सारे मुद्दों पर वार्ता भी की. जिसमें यह बात भी सामने आई कि चूंकि भारत का सामरिक हित जुड़ा हुआ है तो भूटान किंग ने कहा कि बिना सहमति के ऐसा कुछ हम आगे नहीं करेंगे. लेकिन चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भूटान के प्रधानमंत्री का जो बयान रहा है वह शॉकिंग है और इस तरह के विवाद में इस तरह का बयान नहीं दिया जाना चाहिए.
हमें लगता है कि चीन भूटान को सीमा विवाद सुलझाने के लिए दबाव बना रहा है. चीन भूटान के साथ अपने सीमा विवाद को सुलझाने के लिए जो एमओयू पहले किया था वह उसका भी रेफरेंस देता है. जब हम चीन-भूटान बीच रिश्तों के बैकग्राउंड में जा कर के देखेंगे तो पाएंगे की इन दोनों के बीच सीमा विवाद को सुलझाने का मसला 1984 से ही चल रहा है. उसी को अब आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. चाइना जो क्लेम है उसमें एक इंटरेस्टिंग चीज यह भी है कि जाकर लैंड नामक एक वैली है और यह भूटान के उत्तरी भाग में है और इसका बॉर्डर तिब्बत से 495 स्क्वायर किलोमीटर लगता है. वह उस पर भी क्लेम करता है. वहीं, पश्चिमी भूटान में जो 269 स्क्वायर किलोमीटर का एरिया है. यह भारत के सामरिक हितों से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है. और यह सारा विवाद इसी इलाके में है. 2017 में इसी जगह पर डोकलाम विवाद हुआ था. अब मसला यह है कि यहां पर चीन का एक्सेस हो जाने से उसे भूटान, नेपाल तक एक्सेस मिल जाता है. इसके अलावा अप्रत्यक्ष तौर पर पाकिस्तान के साथ से उसे पीओके के एरिया तक पहुंच हो जाती है.
यह सारी चीजें घटित हुई हैं और इन सभी को चीन ने बहुत ही रणनीतिक तरीके से आगे बढ़ाया है. जहां तक भारत की रणनीति और भारत के जवाब की बात करें तो भारत ने कड़ा रुख अपना रखा है. भारत ने बहुत ही कड़े लहजे में में अपनी बात रखी है. अभी कुछ दिनों पहले ही डोकलाम विवाद को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय का बयान आया था. उसमें भारत ने कहा है की चूंकि डोकलाम का एरिया उसके सामरिक हित से जुड़ा है. ऐसे में भारत अपने सामरिक हितों की सुरक्षा के हिसाब से अगर वहां कुछ भी हरकत होती है और चीन-भूटान के साथ कुछ समझौता करता है या कोशिश करता है तो भारत बहुत ही गंभीर कदम उठाएगा. मुझे लगता है कि चीन का जो बॉर्डर मैनेजमेंट का मामला है वह इस तरह की चीजों को करके भारत को दबाव में लाना चाहता है. क्योंकि पिछले कुछ दिनों में उसने अरुणाचल के कई जगहों का नामकरण किया था. एक नया मैप भी जारी किया था. यह सब उसकी एक रणनीति का हिस्सा है. ऐसी स्थिति में भारत को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है.
ऐसे विवाद जो है होते हैं वह डायरेक्ट कॉफ्रंटेशन के लिए निमंत्रण देने वाला होते हैं. हमें लगता है कि भारत आसानी से इन सब चीजों को होने नहीं देगा. चूंकि हमारा अपना सामरिक हित जुड़ा हुआ है. तिब्बत पहले ही हमारे हाथ से जा चुका है. और किसी भी इस तरह के एग्रीमेंट को बहुत ही भारत बहुत ही गंभीरता से लेगा. चीन के साथ जो विवाद चल रहा है अभी और अगर हम अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को देखें तो दोनों ही देश जानते हैं कि उनका एक-दूसरे से टकराना उनके हित में नहीं है. क्योंकि दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत है. हाल के दिनों में और आने वाले समय में अभी ऐसा होता नहीं दिख रहा है कि दोनों देशों के बीच कुछ डायरेक्ट कंसंट्रेशन होगा. हमें लगता है कि दोनों देशों के बीच जो भी विवाद है उसका एक ही सलूशन है वह टेबल पर बैठकर के वार्ता. क्योंकि बातचीत ही एक ऐसा माध्यम है जिसके साथ हम आगे बढ़ सकते हैं. इसके पीछे के कई और कारण हैं. जब हमारा एक देश के साथ बहुत बड़ा व्यापारिक हित जुड़ा होता है और जब आप ग्लोबल पावर और ग्लोबल सेंटर के रूप में खड़े हो रहे होते हैं तो इस तरह की चीजों का जो समाधान का रास्ता होता है वह बातचीत ही हो सकता है.
अगर भारत और चीन के बीच कोई टकराव होता है तो यह पश्चिमी सेंटर के लिए win-win सिचुएशन रहेगी. लेकिन एशिया का जो पावर सेंटर बनने का सपना है वह बिखर जाएगा और यह बात चीन भी समझता है और भारत भी. दोनों ही एक दूसरे के महत्व को समझते हैं. इसलिए हमने अब तक देखा है कि जो भी भारत और चीन के बीच विवाद हुए थोड़े-बहुत पिछले तीन से चार वर्षों में, उसमें कुछ झड़प भी हुईं थी दोनों देशों के सेनाओं के बीच डोकलाम और लद्दाख में लेकिन फिर बाद में दोनों देश टेबल पर बैठते हैं. अपने-अपने सेनाओं को पीछे हटाते हैं और फिर वह बातचीत की प्रक्रिया जो है वह सतत चल रही होती है.
हां, लेकिन एक बात यह है पहले की तुलना में इस तरह के टकराव में भारत का जो स्टैंड रहा है वह बहुत ही कड़ा रहा है. भारत और चीन के बीच ब्रिटिश काल से भी जो बॉर्डर बने हुए हैं उनका भी विवाद का समाधान वार्ता ही है और मुझे नहीं लगता है कि दोनों देशों के बीच किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए मिलिट्री का इस्तेमाल करना पड़ेगा. मुझे लगता है कि चीन इसके लिए आगे नहीं बढ़ेगा और ना ही भारत इसके लिए आगे बढ़ेगा. अभी जो तीनों देशों के बीच डोकलाम को लेकर विवाद है मुझे लगता है कि इस मसले पर भी तीनों देश के प्रतिनिधि टेबल पर बैठेंगे बातचीत करेंगे और आपसी सहमति से जो कुछ भी निर्णय होगा उसी के आधार पर सब कुछ तय होगा. इसमें जिसके भी सामरिक हित प्रभावित हो रहे होंगे उसका समाधान निकाला जाएगा और एक win-win सिचुएशन जो है वह बनाए रखने की कोशिश होगी.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]