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बांधने से नदियों की जान सांसत में अधिकाश नदी है खतरे की जद में

नदी जो कभी सभ्यता के विकास की साक्षी रही है, अब धीरे-धीरे मानव सभ्यता के दबाव  में मर रही है. बढ़ती जनसंख्या का दबाव, बदलती बड़े स्तर की मौसमी परिस्थितियां, जहरीला औद्योगिक  प्रदूषण, शहरी कूड़ा और मल के साथ-साथ बड़े  पैमाने पर नदियों के साथ अभियान्त्रिक छेड़छाड़ नदी को मृतप्राय बना रहे हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, भारत में नदियों के 45 से अधिक गंभीर रूप से प्रदूषित और 300 से अधिक प्रदूषित नदी क्षेत्र बन चुके हैं जिसका दायरा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. पिछले चार दशकों में भारत की एक-तिहाई आर्द्रभूमि यानी  वेटलैंड सूख चुके हैं और नतीजा अधिकांश बड़े नदियों की छोटी-छोटी सहायक नदियों  में साल के कुछ महीनो में ही पानी रहता  है. अब धीरे-धीरे नदी पर आश्रित समूचा मानव तंत्र मौजूदा नदी दोहन का शिकार भी हो रहा  है. नदी दोहन का आलम यह है कि समुद्र में नदी की मिलने वाली हर धारा अब मलिन हो चुकी है. कई नदियों की आखिरी बूंद तक सिंचाई और अन्य उपादानों के लिए निचोड़ ली गयी हैं और नदी में जो बहता दीखता है वो और कुछ नहीं शहर का विसर्जन होता है.  दिल्ली में काली पड़ चुकी श्यामवर्णी यमुना नदी इसकी एक बानगी है.

पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव

 उन्मुक्त रूप से बहती नदी ना सिर्फ मानव सभ्यता के लिए बल्कि समूची पारिस्थितिकी के संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है, पर मौजूदा आर्थिक विकास का प्रारूप धीरे-धीरे नदी के बहाव को गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से  संकीर्ण कर रहा है. नदी के ना सिर्फ भौतिक स्वरुप में खतरनाक स्तर की छेड़छाड़ की गयी है अपितु नदी की समूची पारिस्थितिकी भी विलुप्त हो रही है. डब्लूडब्लूएफ के एक अध्ययन के मुताबिक पिछले पचास सालों में पृथ्वी से लगभग 60 प्रतिशत बड़े जन्तु विलुप्त हो चुके हैं. साफ पानी के लिए यह आँकड़ा  83 प्रतिशत तक का है, जिसका अधिकांश हिस्सा नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र की  समाप्ति से हुआ है. यह  एक भयावह स्थिति है अगर हमें कल्पना भी करना पड़े कि पूरे अमेरिका, भारत, यूरोप और अफ्रीका की मानव जनसंख्या ख़त्म हो जाये. नदियों पर आयी इस संकट की  मुख्य वजहों में बड़े-बड़े बांध द्वारा  सिंचाई और शहरों की प्यास बुझाने के लिए के लिए नदी की  क्षमता से ज्यादा पानी का दोहन और प्रदूषण है. इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए समूचे  नदी तंत्र की बलि चढ़ाई जा रही है. यह  सब तब हो रहा है जब अभी भी कम से कम दो अरब से अधिक जनसंख्या पीने के पानी के लिए सीधे नदी जल पर निर्भर है.

दुनिया की एक चौथाई नदियां ही मुक्त

एक अध्ययन के मुताबिक वर्तमान में विश्व की सभी प्रमुख नदियों में सिर्फ एक-चौथाई ही मुक्त रूप से बहती हैं, बाकी तीन-चौथाई नदियों का उन्मुक्त बहाव बांध की भेट चढ़ चुका  है. एक हज़ार किलोमीटर से ज्यादा लम्बाई वाली 246 बड़ी नदियों के अध्ययन में केवल 90 नदियाँ  बिना किसी रुकावट के बहती पाई गयी, यानी  बिना किसी बांध या अभियांत्रिक छेड़छाड़ के. दक्षिण अमेरिका को छोड़ बाकी सभी जगहों पर नदियाँ  जरुरत से ज्यादा दोहन की शिकार हैं. विकसित देशों  में जल संसाधन के दोहन का स्तर अधिकतम है, कई देशों में तो लगभग नदियों पर जन संरचना विकसित की जा चुकी है, जैसे ग्रेट ब्रिटेन. कुछ नदियों में से सारा का सारा पानी निचोड़ लेने से वह बहाव विहीन हो चुकी है और उसमें  शहर का निस्तारित पानी ही बहता है. भारत की पवित्रतम नदियों में से एक मां के दर्जे वाली दैव नदी यमुना, यमुनोत्री से दिल्ली तक आते-आते, सारा का सारा पानी सिंचाई, औद्योगिक उपयोग और किनारे बसे शहरों  की प्यास बुझाने के लिए निचोड़ लिया जाता है और यहाँ से केवल दिल्ली शहर का निस्तारित पानी ही बहता है. जरुरी प्राकृतिक बहाव और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का भी ख्याल रखे बिना अमेरिका से लेकर एशिया तक की सारी बड़ी नदियों का अधिकांश पानी  बांध बनाकर सिंचाई के लिए निकाल लिया जाता है. 

जैव प्रोटीन के स्रोत ही हो जाएंगे खत्म 

 नदी, समुद्र के बाद जैव प्रोटीन का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, सालाना लगभग 12 मिलियन टन मछली नदियों से प्राप्त होती है साथ ही आधी अरब जनसंख्या जीवन यापन के लिए नदी मुहाने यानी  डेल्टा पर निर्भर हैं . बड़े पैमाने पर नदी पर बांध बनाने से, बहाव में कमी और सेडीमेंट की उपलब्धता कम होने से मछली उत्पादन और डेल्टा की उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित हो रही है. चीन ने जलीय संसाधन के संरक्षण के ख्याल से यांग्ज़ी नदी में दस साल तक मछली उत्पादन पर रोक लगा दिया है जो नदी तंत्र के लिए एक अच्छी पहल है. नदी पर बांध का निर्माण बड़े स्तर पर और नदी की पूरी लम्बाई तक असर डालती है. गंगा नदी पर बने फरक्का बराज के कारण शुरुआती दिनों में बांग्लादेश के हिस्से वाली पानी की लवणता बढ़ गयी थी, साथ ही साथ वहाँ  का एक बड़ा भू-भाग बंजर हो चला था. बाद में नदी के बहाव की सम्यक हिस्सेदारी से इन  समस्यायों से निजात पाई गयी. वो अलग बात है कि फरक्का से पटना तक गाद जमा होने से गंगा का एक बड़ा हिस्सा छिछला हो चला है, जिससे नदी की ना सिर्फ बहने की क्षमता घाटी है बल्कि बाढ़ की विभीषिका भी बढ़ी है.

सिंचाई के आलावा नदी को बाँधने का दूसरा सबसे बड़ा प्रयोजन  विद्युत  उत्पादन है, हालांकि जलवायु संकट के  दौर में तथा उर्जा के अन्य हरित साधनों जैसे वायु और सौर उर्जा के मुकाबले अब ये एक जोखिम भरा प्रयोजन साबित हो रहा है. साथ ही साथ विद्युत उत्पादन की प्रक्रिया में पानी के उतार-चढाव से नदी का पारिस्थितिकी तंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है और तारतम्यता टूट जाती है, जो नदी के निचले भाग की पारिस्थितिकी पर गहरा दबाव डालती  है. इस सब खतरों के बावजूद बढती पानी और उर्जा की मांग को पूरा करने के लिए बाँध अब तक एक परम्परागत और पसंदीदा विकल्प बना हुआ है. एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक स्तर पर लाखों छोटे-छोटे बाँध के आलावा नदियों पर कम से कम 60 हज़ार बड़े बाँध हैं और लगभग 3700 प्रस्तावित हैं, जो जलवायु चरम के मौजदा दौर में जलीय आपदा को खुले निमंत्रण जैसा है. भारत में बाँध और जलसंरचना के प्रति अनुराग कुछ ज्यादा ही है. सनडीआरपी के एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के हिमालयी क्षेत्र में कम से कम 292 बांध प्रस्तावित है. पूरे भारतीय हिमालय क्षेत्र का 90 प्रतिशत घाटी बांध से प्रभावित है, जहा बांध का घनत्व वैश्विक औसत का 62 गुणा ज्यादा है, इतना ही नहीं गंगा नदी पर विश्व में सबसे ज्यादा बांध है, हर 18 किलोमीटर पर एक बांध. इसी साल आयी हिमाचल प्रदेश में मानसून की तबाही और समूचे जोशीमठ का धसान नदी घाटी में अभियांत्रिकी छेड़छाड़ के लिए एक चेतावनी जैसी है.

सौंदर्यीकरण के नाम पर नदियों पर कब्जा

विगत कुछ दशकों  में शहरी क्षेत्र के विकास के नाम पर नदी के बहाव को कब्ज़ा लेने और सौन्दर्यीकरण के नाम कृत्रिम रूप से उसके किनारों को पाट देने की परिपाटी चल उठी है. किनारों को पाटने से नदी और मिटटी के बीच के प्रवाह रुकने से नदी की उत्पादकता के साथ-साथ दीर्घकालिक रूप में नदी का बहाव प्रभावित होता है, वहीं नदी के जलग्रहण क्षेत्र में कब्जे से बाढ़ की तीव्रता भी बढ़ जाती है. भारत में हाल के वर्षो में अनेक रिवर फ्रंट बनाये गए हैं ,  नदी के बहाव क्षेत्र में शहर बसाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी है. राष्ट्रीय राजधानी में यमुना के जलभराव क्षेत्र में खेल गाँव, अक्षरधाम मंदिर सहित पूरी बस्ती बस चुकी है. चेन्नई में तो अडियार नदी को पाट कर हवाई पट्टी बनाने में कोई गुरेज नहीं किया गया. हालांकि चेन्नई समेत कई शहरों ने नदी पाट देने का खामियाजा बाढ़ में डूब कर और अस्त-व्यस्त होकर चुकाया है. नदी से अधिकांश पानी निकल लेने से नदी का अपना जीवन तंत्र तो तबाह होता ही है, साथ ही साथ सिंचित क्षेत्र भी लबे समय के बाद लवणीकरण का शिकार होते है और नतीजा समय के साथ कृषि उत्पादकता में आने वाली कमी. भारत में हरित क्रांति के दौरान लाभान्वित होने वाले अधिकांश क्षेत्र आज भूमि उत्पादकता में कमी और मिटटी के लवणीकरण का शिकार हो रहे है, जिसमें अत्यधिक सिंचाई का स्पष्ट  योगदान है.

भविष्य के खतरे को देखते हुए बांध और जलदोहन के अन्य विकल्पों के तलाश की जरूरत है क्योंकि नदियों से ही हमारा जंगल, हमारा आज, हमारा कल और प्रकृति है और जिनके बिना मानव सभ्यता की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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