बिहार में निजाम बदलने के नहीं आसार, नीतीश ही रहेंगे खेवनहार

बिहार में राजनैतिक हलचलें इतनी तेज हो गयी हैं कि आये दिन समाचारों की सुर्खियां बनती रहती हैं. ये कवायद राजद और दूसरे विपक्षी दलों द्वारा नीतीश कुमार की तबीयत पर सवाल उठाने से ही शुरू हो गई थी. पिछले कुछ दिनों में नीतीश कुमार अति विनम्र बनते हुए कभी प्रधानमंत्री मोदी के पैर छूते दिखे हैं तो कभी नौकरशाही को हाथ जोड़ते दिखाई दिए हैं. इन सबको लेकर अटकलें लगाईं जा रही थी कि क्या नीतीश कुमार की तबीयत ठीक नहीं या वे कुछ नया करने की सोच रहे हैं?
खराब तबीयत की अटकलों पर विराम
इन सभी अटकलों पर नीतीश कुमार की लगातार बिहार भर की यात्राओं ने विराम लगा दिया. केवल उत्तर बिहार में ही अपनी प्रगति यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री ने लगभग 170 योजनाओं की घोषणा कर डाली. इसी दौर में नवनियुक्त अभियंताओं को नियुक्ति पत्र भी बांटे गए जिससे राजद की “नौकरियां दी” वाले प्रचार पर पूर्णविराम लग गया. बिहार में विपक्ष के पास जो दूसरा जुमला था, वो जातिगत जनगणना का था. विपक्षी दल राजद की सहयोगी पार्टी माने जाने वाली कांग्रेस ने उसपर भी सवालिया निशान लगा दिया. अपनी बिहार यात्रा के दौरान जब राहुल गाँधी बिहार आये तो उन्होंने जातिगत जनगणना को ही फर्जी बता दिया. इससे जातिगत जनगणना की साख को बट्टा लग गया. इसके अलावा जिस जातिगत जनगणना से फायदा होने का अनुमान राजद को था, उसका उल्टा ही परिणाम होता दिखाई दे रहा है. जाति की गणना होते ही कई राजनैतिक रूप से पिछड़े समुदायों को नजर आने लगा कि उन्हें प्रतिनिधित्व मिला ही नहीं है. उदाहरण के तौर पर मुसहर समुदाय की संख्या अच्छी खासी होने के बाद भी अनुसूचित जातियों में उन्हें वैसा प्रतिनिधित्व नहीं मिलता जैसा पासवान और चर्मकार समुदायों को मिल रहा है.
जातिगत जनगणना का दांव पड़ा उल्टा
करीब-करीब यही ईबीसी समुदायों में भी हुआ. बिहार में केवल एक ओबीसी यानी पिछड़ा वर्ग नहीं होता, इसमें ओबीसी और ईबीसी यानी अन्य पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग नाम के दो हिस्से हैं. इनमें से ओबीसी में आने वाले यादवों को लालू काल में समाजिक न्याय मिला क्योंकि लालू के एमवाय समीकरण में मुहम्मडेन और यादव आते थे. नीतीश ने अपनी अलग राजनीति की शुरुआत जिस लव-कुश वोट बैंक के आधार पर की थी, उसमें कुर्मी-कोइरी आते थे. इसकी तुलना में ईबीसी वर्ग में नाई, तेली, कहार, निषाद जातियां, नोनिया इत्यादि आते हैं, और उन्हें वैसा प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. यही कारण रहा कि केवल निषादों की राजनीति के नाम पर वीआईपी जैसी पार्टियों का उदय पिछले चुनावों में बिहार देख चुका है. मुसहर समुदाय के नाम पर जीतन राम मांझी आगे आ गए हैं. कुल मिलाकर जिस वोट बैंक का सपना राजद ने संजोया था, उसपर भी सेंध पड़ गयी है.
राजद के एमवाय समीकरण में जो एम यानी मुसलमान वाला हिस्सा था, उसे अपनी ओर किये रखने के लिए समय समय पर राजद नेता तेजस्वी बयानबाजी करते रहते हैं. यहाँ एक दिक्कत ये है कि कांग्रेस जो कि विपक्षी दल के रूप में राजद की सहयोगी है, उसकी नजर भी इसी मुसलमान वोट बैंक पर होती है. पूरी तरह कौम की ही पार्टी मानी जाने वाली ओवैसी की एआईएमआईएम भी राज्य के सिमांचल और अन्य मुस्लिम बहुल इलाकों से अपने उम्मीदवार उतारने लगी है. इसके कारण भी राजद का नुकसान हुआ है. राजद के पास सैय्यद शहाबुद्दीन जैसे अपराधिक रिकॉर्ड वाले नेताओं का सहयोग होने के कारण ऊंची जात के मुसलमान, यानी अशराफ तो राजद के समर्थन में आते थे, लेकिन ओबीसी वोट बैंक पर जीतनराम मांझी जैसे नेताओं की भी पकड़ है. बिहार में जारी पासमान्दा आन्दोलन का असर भी ओबीसी मुहम्मडेन वोट बैंक पर हुआ है.
विकास को ही बनाया ट्रम्प कार्ड
इनके बीच नीतीश कुमार की राजनीति को देखें तो वो लगातार अपनी छवि विकासपुरुष वाली बनाते रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनावों के समय ही मोदी जी की रैलियों के माध्यम से कई योजनाएं बिहार में लागू हुई थीं. उसके बाद भाजपा के कद्दावर नेता जब बिहार आये तो दरभंगा और मुजफ्फरपुर के इलाकों में अस्पतालों की व्यवस्था में काफी सुधार हुए. अभी की प्रगति यात्रा में एक दिन अगर 170 के करीब योजनाओं की घोषणा होती दिखी तो दूसरे ही दिन उसमें से लगभग डेढ़ सौ कैबिनेट स्तर पर पास भी हो गए. इतनी तेजी से होते बदलावों और विकास पर हमला करने के लिए विपक्ष को जगह ही नहीं मिल पा रही है. जबतक विपक्ष एक योजना में कमियां निकालना शुरू भी कर पाए, उससे पहले ही दूसरी कई योजनाओं की घोषणा पहले पन्ने की खबर बन जाती है.
जातिगत समीकरण बिठाने में दिक्कतें नए नेताओं के उभरने से भी होने लगी है. चंद्रवंशी (कहार) बिरादरी के लोग जरासंध को अपना पूर्वज मानते हुए आन्दोलन करने लगे हैं. पटना में हाल ही में तेली समुदाय की रैली का आयोजन हुआ. कर्पूरी ठाकुर के दौर से राजनैतिक रूप से सचेत हो चले नाई बिरादरी में अलग हलचल है. ऐसे ही रजक (धोबी) समुदाय भी नए नेता की खोज में है. भाजपा के एक नेता ने कुर्मी रैली का भी आयोजन किया है. जो ओबीसी-ईबीसी समुदाय का एक वोट बैंक बनाकर बिहार का विपक्ष आगे बढ़ रहा था, उसपर कई दिशाओं से चोट हो रही है. विपक्ष की ऐसी कमजोर स्थिति सीधे तौर पर नीतीश कुमार के लिए चुनौतियां कम करती है. ऐसा ही चुनावों तक जारी रहा तो बिहार का विपक्ष इस बार सुशासन बाबू के सामने ढंग की राजनैतिक चुनौती भी नहीं पेश कर पायेगा. बाकी इन सबको छोड़ भी दें तो नीतीश कुमार अभी पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आये भी नहीं हैं. उनके बारे में उनके पुराने परिचित रहे लालू यादव ने संसद में ही कहा था कि इसके पेट में दांत हैं और पेट में दांत वाला बहुत खतरनाक होता है. ऐसे में विपक्ष चुनावों में अपना पक्ष जनता के सामने कैसे रखता है, ये देखने वाली बात होगी.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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