दुनिया भर में शोर मचा है कि भारत में औरतों की हालत खराब है (अच्छी कहां है???). वो हिंसा की शिकार हो रही हैं.  परेशान की जा रही हैं. उनका कोई नामलेवा नहीं है. लेबर फोर्स में उनकी जगह बराबर सिकुड़ रही है. तो, हम बेचैन हो रहे हैं. तुरत-फुरत में जैसे-तैसे फैसले ले रहे हैं. चटपट कई कानून बनाए जा रहे हैं. बीमारी का फौरी इलाज ढूंढा जा रहा है. एक इलाज यह ढूंढा गया है कि औरतों के घर काम को राष्ट्रीय आंकड़ों में शामिल किया जाए. मतलब ‘मुफ्त के किए जाने वाले काम’ को महत्वपूर्ण समझा जाए- इकोनॉमी में औरतों के घर कामों की कीमत को शामिल किया जाए. अच्छा है... जिस घर काम को तमाम लोग अनुत्पादक मानते हैं उनकी सोच का पहिया घूमेगा. फिर औरतों को भी अपने हक को समझने का चस्का लग जाएगा.


यह बड़ा काम नेशनल सैंपल सर्वे वाले करना चाहते हैं. उनकी योजना है कि अगले साल जनवरी से जो सर्वे कराए जाएं, उनमें औरतों से पूछा जाए कि वे अपना समय कैसे बिताती हैं. मतलब खाना पकाने, साफ-सफाई में कुल कितना समय लगता है. देश के लेबर और रोजगार सर्वेक्षणों में अब तक व्यापक रूप से आदमियों के कामों को शामिल किया जाता है. चूंकि बहुत सी औरतें नौकरियां या दूसरे रोजगार नहीं करतीं इसलिए सर्वेक्षणों में उनके डीटेल नहीं मिलते. इससे होगा क्या... औरतों का समय कहां बीतता है, यह जानकर नीतियां तैयार करने में मदद मिल सकती है. सरकारों को भी फायदा हो सकता है. जैसे ग्रामीण भारत में कुकिंग गैस देने की पॉलिसी के पीछे यह दावा किया गया था कि इससे औरतों का वह समय बचेगा जो उन्हें लकड़ियां चुनने में खर्च करना पड़ता है. इस तरह अगर नीति निर्माताओं को यह पता चले कि औरतों का समय किन-किन कामों में खर्च होता है तो वे अपने वेल्फेयर प्रोग्राम्स को टारगेट कर सकते हैं.


हमारे यहां हर सेक्टर में डेटा गैप बहुत बड़ा है. हमें पता ही नहीं कि देश के मुख्य क्षेत्रों में क्या हो रहा है- जैसे रोजगार बाजार के क्या हाल हैं- रीटेल और हाउसिंग सेक्टर कितना अस्थिर है, वगैरह. मजे की बात यह है कि देश की 700 मिलियन आबादी वर्कफोर्स का हिस्सा नहीं है और घरों में उनके योगदान को राष्ट्रीय आय में शामिल ही नहीं किया जाता है. दुनिया भर में ज्यादातर अनपेड वर्क औरतें ही करती हैं- करीब 75%. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि अगर इन्हें राष्ट्रीय आय में जोड़ा जाए तो अनपेड केयर इकोनॉमी जीडीपी के 15 से 50% तक बैठेगी. पर औरतों को न घरों में इज्जत मिलती है न सरकारी आंकड़ों में. ये सारा काम जाया हो जाता है क्योंकि इसे काउंट ही नहीं किया जाता.


घर काम में क्या-क्या शामिल है? घरेलू काम के अलावा वह सारा काम जिसके लिए कोई पैसा नहीं मिलता. गांवों में इन कामों में बाग-बगीचे, खेत-खलिहान का सारा काम शामिल है. छोटी-मोटी दुकानदारी, बिजनेस भी. मतलब जो काम आदमी छोड़ देते हैं उसे औरतें संभाल लेती हैं. गांवों से शहरों में नौकरियां, रोजगार तलाशने चले गए, खेत खलिहान, घर-बार छूट गया तो औरत ने संभाल लिया. चाहे, जमीन-जायदाद उसके नाम हो, न हो. पर इससे राष्ट्रीय आय में योगदान निल बटा सन्नाटा है. अगर औरतों के कामों को आंकड़ों में जगह मिलेगी, तो सालों से अर्थव्यवस्था में अपनी जगह तलाशने की कोशिश करने वाली घरेलू कामगारों की भी उम्मीद जगेगी.


पर यहां राष्ट्रीय आंकड़ों में औरतों के कामों को शामिल करने की बात की जा रही है- अनपेड वर्क को पेड बनाने की तैयारी नहीं हो रही. काम तो तब भी यह मुफ्त का ही होगा. जिसे बेगारी काटना कहते हैं, औरतें वही करती रहेंगी. अनपेड वर्क को पेड वर्क बनाना आसान है भी नहीं. इसका आकलन आप कैसे करेंगे... इस संबंध में किताबी बातें करना आसान है, इसे अमल में लाना बहुत मुश्किल है. फिर इसे चुकाएगा कौन.... इसका रास्ता सीधा सा यूनिवर्सल बेसिक इनकम है. मतलब हर व्यक्ति को सोशल बेनेफिट और बुनियादी आय मिलती रहे. समाज में तो हर इंसान का योगदान है. इस लिहाज से औरतें भी लाभान्वित होंगी.


मशहूर चेक फेमिनिस्ट एलिना हैतलिंगर ने विमेन एंड स्टेट सोशलिज्म नाम की किताब में घरेलू श्रम और श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन की मार्क्सवादी थ्योरी का विश्लेषण किया है. उसमें कहा गया है कि श्रम शक्ति अगर काम करने की क्षमता को कहा जाता है तो उसका पुरुत्पादन भी होता है. मतलब रीप्रोडक्शन. यह रीप्रोडक्शन दो तरह से होता है. पहला तो परिवार के लोगों में श्रम शक्ति बरकरार रहे, इसके लिए सारी तैयारी औरत ही करती है. दूसरा श्रमिकों की नई पीढ़ी को भी जन्म देती है. इस तरह से औरत प्रोडक्शन भी करती है, और रीप्रोडक्शन भी. इसी बात को मान्यता देने की जरूरत है.


सबसे पहले तो घर का काम किसी भी लिहाज से दोयम नहीं है. न ही अनप्रोडक्टिव है. पर हमें यह भी समझना होगा कि पेड-अनपेड के चक्कर में औरतों के घर के काम का ग्लोरिफिकेशन न हो जाए. मान्यता जरूर मिले लेकिन वे सिर्फ इससे संतुष्ट न हो जाएं. अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका सिर्फ घर काम तक सीमित नहीं- उससे बहुत आगे की है. इस भूमिका को रेकोन्गनिशन मिले और साथ ही सुविधाएं भी. काम करने की जगहें इतनी सुविधाजनक क्यों न हो कि मर्द-औरत अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए सहजता से काम करें. पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र ने स्तनपान दिवस मनाया तो यही सवाल उठा था कि क्या सार्वजनिक स्थानों पर स्तनपान करने वाले स्पेसेज़ हैं? जाहिर सी बात है, जब एक्सक्लूसिव ब्रेस्टफीडिंग से छोटे बच्चों की मृत्यु 33 फीसदी तक टाली जा सकती है तो ऐसे में स्पेसेज़ मुहैय्या कराने में देरी क्यों की जाती है?


बहस बहुत लंबी है. औरतों के काम को महत्व देने के साथ-साथ उनके पेड वर्क को भी बढ़ाया जाना चाहिए. साथ ही थोड़ा अनपेड वर्क में मर्दों को भी हिस्सेदारी निभानी चाहिए. बदलाव तभी होगा.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)