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भारत में खेल संघों के विफल होने की वजह केवल नेता नहीं, नीरज चोपड़ा का स्वर्ण और कुश्ती महासंघ का कीचड़ एक ही सिस्टम की देन

पिछला हफ्ता एक देश के तौर पर हमें गर्वित होने के कई पल दे गया. चंद्रयान की सफलता के साथ ही नीरज चोपड़ा बने विश्व विजेता और दे गए हमें खुशियों के पल. हालांकि, 'कुछ मीठा हो जाए' वाले पलों पर थोड़ी कड़वाहट कुश्ती संघ की मान्यता रद्द होने के समाचार ने फेर दी. हालांकि, मान्यता तो कुछ तकनीकी काम करते ही बहाल हो जाएगी, लेकिन इस बीच जो नुकसान कुश्ती का हो रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी? खिलाड़ियों के समय की भरपाई कैसे होगी? 

कुश्ती संघ पर कब्जे की लड़ाई

ये जो पूरा घटनाक्रम है, कुश्ती वाला और ये जहां से शुरू हुआ तो इसका मूल उद्देश्य ही कुश्ती संघ पर कब्जा और राजनीति ही रहा है. निवर्तमान अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर लगाए गए आरोप भी उसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं, उनको बृजभूषण को हटाकर खुद कुश्ती संघ पर कब्जा करना था. इसके लिए आसान उपाय अपनाया गया. किसी पर यौन-शोषण के आरोप लग जाएं, तो वह कमजोर हो ही जाता है, उसके लिए खुद का बचाव भी मुश्किल हो जाता है. इसके लिए चरित्र-हनन तक की तैयारी होती है. इस सबका परिणाम यह हुआ कि कुश्ती-संघ के चुनाव जो हैं, वे टलते रहे. यूडब्लयूडब्ल्यू यानी यूनाइटेड वर्ल्ड रेस्लिंग का ये सीधा नियम है कि समय पर चुनाव नहीं हुए तो आपकी सदस्यता चली जाएगी. पिछली बार अंतरराष्ट्रीय संस्था ने 45 दिनों की समय-सीमा निर्धारित की थी. हालांकि, इस बीच जो खिलाड़ियों का समूह था, वह बार-बार स्टे ले आता था. इस बार भी 12 अग्स्त को चुनाव था, 11 को पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने स्टे दे दिया तो फिर भारतीय कुश्ती संघ का चुनाव नहीं हुआ तो उसकी मान्यता भी रद्द कर दी गयी. नुकसान तो आखिरकार खिलाड़ियों का ही होता है. जब भी दो ताकतें लड़ेंगी तो आम खिलाड़ी ही तो फंसेंगे. जो गरीब बच्चे कुश्ती खेलने आते थे, वे तो गरीब या मध्यम वर्ग के होते हैं वे तो परिवार का पेट काटकर बच्चो को खिला रहे हैं, उनका तो नुकसान हुआ है.

नेता नहीं होते केवल न्यूसेंस

नेताओं के बिना तो स्पोर्ट्स बॉडी चल नहीं सकती. इन्हें चलाना हंसी-खेल नहीं है. इसके लिए रिसोर्सफुल और प्रभावशाली होना जरूरी है. अगर आप किसी खिलाड़ी या आम-आदमी को अध्यक्ष बना देंगे तो फिर वह शायद उतना प्रभावशाली नहीं हो. कुश्ती में भी खिलाड़ी रहे हैं काबिज. वह उपाध्यक्ष, अध्यक्ष भी रहे हैं, लेकिन आप उनके समय का रिकॉर्ड देख लें, जमीन और आसमान का फर्क मिलेगा. यह इसलिए हुआ कि कुश्ती संघ की कमान एक प्रभावशाली नेता ने संभाल रखी थी. तो, नेतागीरी और खेल संघ एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं, साथ चलने चाहिए. इसमें दरअसल थोड़ा सा दोष हमारे खेल मंत्रालय या मंत्री का भी था. वह सभी खेल-संघों को अपने अंगूठे के अंदर लाना चाहते थे. इसमें कुश्ती संघ भी शामिल था. तो, अभी तक वह सफल तो नहीं हुए हैं. राजनेताओं की दखल भी जरूरी है, खिलाड़ी भी रहें लेकिन हरेक चीज का संतुलन होना चाहिए. खेल संघों पर प्रभावशाली लोग जब रहे हैं, तो उन्होंने बेहतर काम किया है. खिलाड़ी ही बेहतर काम करेगा, यह कोई जरूरी नहीं है. पिछले 12 वर्षों से मैं बृजभूषण शरण सिंह का कार्यकाल भी देख रहा हूं. जो अचीवमेंट है, वह बहुत ही बेहतर है. इसमें उनका भी तो योगदान होगा ही न.

खिलाड़ियों की परवाह सबसे पहले

वैसे, मान्यता रद्द हो जाना बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है. वह तो एक चुनाव की बात है. 11 तारीख तक तो सब कुछ तय ही था. अगर हरियाणा कुश्ती संघ ने स्टे नहीं लिया होता, हालांकि वह बहुत ही छोटा मुद्दा है, तो फिर हो जाता. हालांकि, अभी भी कानूनी तौर पर इससे बचने के उपाय तो किए ही जा रहे होंगे. जहां तक आगे एशियन गेम्स या एथलेटिक्स वर्ल्ड कप या ओलंपिक्स का सवाल है, तो हमारे खिलाड़ी तो फिलहाल एशियन गेम्स में ही उलझे हैं. हालांकि, एशियन गेम्स की ब़ड़ी प्राइज मनी और कम प्रतियोगियों का होना भी एक बड़ा कारण है. नीरज चोपड़ा को विश्व चैंपियन बनना था तो उसने खुद को तैयार किया, बना. बजरंग पूनिया का पूरा ध्यान बिना ट्रायल के सेलेक्शन पर था, तो पिछले एक साल से वह कुश्ती से पूरी तरह दूर हैं. उनका किसी टूर्नामेंट में कोई पार्टिसिपेशन नहीं है. आगे की राह बड़ी आसान है. हाईकोर्ट में इन्होंने पेटिशन रखी है, तो आजकल में उस पर फैसला आ जाएगा और उम्मीद है कि फैसला पक्ष में ही आएगा. वह चुनाव होते ही भारत की सदस्यता बहाल हो जाएगी. तो, सारा मसला चुनाव पर लटका हुआ है. चुनाव होते ही जैसे ही कुश्ती महासंघ की कार्यप्रक्रिया शुरू होगी, तो ये सारी समस्याएं भी निबट जाएंगी.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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