यूट्यूबर मनीष कश्यप को 8 मई को भी सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली. सुप्रीम कोर्ट ने उनको हाईकोर्ट जाने की छूट दी है, लेकिन NSA में उनकी गिरफ्तारी से राहत देने से मना कर दिया. उनको तमिलनाडु में बिहारी आप्रवासियों के ऊपर हमले की झूठी खबर पहुंचाने के आरोप में तमिलनाडु पुलिस बिहार से ले गई है. उधर एक समाचार चैनल की पत्रकार भावना किशोर को पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. उन पर एक दलित महिला के ऊपर गाड़ी चढ़ाने और जातिसूचक वाक्य कहने का आरोप है, हालांकि 7 मई की शाम तक उनको अंतरिम जमानत पर छोड़ भी दिया गया. उनके दो सहयोगियों को हालांकि कोई राहत नहीं मिली. एक और यूट्यूबर साक्षी जोशी ने भी आरोप लगाया है कि दिल्ली पुलिस ने देर रात उनको भी कवरेज से रोका, जब वह जंतर-मंतर पर पहलवानों के धरने को कवर करने पहुंची थीं. पुलिस ने उनको गिरफ्तार नहीं किया, लेकिन अलग जरूर बिठा दिया था. यह पिछले एक सप्ताह की घटनाएं हैं, मात्र. पत्रकारों के साथ सख्ती अब लगता है आम बात हो गई है.
क्या पक्ष, क्या विपक्ष..पत्रकारों के लिए सब एक
जो मनीष कश्यप और साक्षी जोशी जैसे यूट्यूबर्स के साथ की घटनाएं हैं, वे ताजातरीन हैं. हमारे देश के कानून के हिसाब से महिलाओं को सूरज ढलने के बाद डिटेन नहीं कर सकते, लेकिन साक्षी जोशी को जंतर-मंतर से हटाकर दूर सुनसान रास्ते पर छोड़ा गया. ये सेमी-डिटेंशन ही हुआ. दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब देश में यह ट्रेंड बनता जा रहा है. जो मनीष कश्यप और भावना किशोर वाली घटना है, वो गैर-भाजपा शासित प्रदेशों में है, बीजेपी शासित प्रदेशों में भी और राष्ट्रीय स्तर पर भी हालात ठीक नहीं हैं. हम अगर CPJ का ही डेटा देखें, तो 2022 में सात पत्रकार जेल में थे, 2021 में भी जेल में थे. दरअसल, हमने जब से आंकड़े रखने शुरू किए हैं, यानी 1992 से, तब से यह सबसे अधिक संख्या है. सुनने में भले यह कम लगे, लेकिन एक प्रजातंत्र में 7 पत्रकारों की जेल कहीं से कम नहीं है. यह भारत में कभी भी इतना नहीं था. इसका हरेक सरकार इस्तेमाल कर रही है. इसमें पार्टीगत कोई भेदभाव नहीं है. तमिलनाडु की डीएमके, पंजाब में AAP, बिहार में जेडी-यू और बाकी जगहों पर बीजेपी कोई किसी से कम नहीं है.
सरकारों के रवैए के कई ट्रेंड औऱ भी हैं. जैसे, डिजिटल सेक्योरिटी का ट्रेंड है, ट्रोलिंग का ट्रेंड है, यूएपीए जैसे कानून लगाने का ट्रेंड है. हालात दिन पर दिन खराब होते जा रहे हैं. मजे की बात है कि डीएमके और आमआदमी पार्टी वाली सरकार जब ऐसा करती है तो बीजेपी वालों को बहुत दुख होता है. वे चिल्लाते हैं कि मीडिया का गला घोंट दिया. वही काम जब बीजेपी शासित क्षेत्र में होगा तो उसके विपक्षी रोएंगे. हमारे पॉलिटिक्स और मीडिया में डबल स्टैंडर्ड बहुत बड़ी समस्या है. कोविड काल में लॉकडाउन के समय न जाने कितने पत्रकारों को सजा दी गई. गुजरात में एक पत्रकार के ऊपर राजद्रोह का आरोप लगा दिया, क्योंकि उसने रिपोर्ट किया था कि बीजेपी आलाकमान रूपानी को बदलना चाहता है. तमिलनाडु में एंड्रयू सैम पांड्यन ने माइग्रैंट्स पर एक रिपोर्ट की तो उनको भी उठा लिया गया. ये दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है. पहले सप्ताह में या महीने में एक मामला आता था, अब तो ये फुलटाइम जॉब है, इनकी रिपोर्टिंग करना.
जर्नलिज्म का तीखा ध्रुवीकरण है वजह
पत्रकारिता तो पॉलिटिक्स का ही एक्सटेंशन है और अभी तो हमारे देश में पॉलिटिक्स हरेक जगह घुस गया है. चाहे वो फिल्मों में हो, जुडिशियरी में हो, पुलिस हो या जो भी हो. सोसायटी के बाकी पिलर्स जैसे फिल्म, पत्रकारिता औऱ साहित्य तक में पॉलिटिक्स घुस गया है. खासकर, जो पॉलिटिक्स का ध्रुवीकरण हुआ है, वह करने में तो पत्रकारों का ही सबसे अधिक योगदान है. एक जर्मन पेस्टर मार्टिन निम्योलर की प्रसिद्ध उक्ति है, जिसमें वो कहते हैं कि जब वो एक समुदाय के लिए आए, तो मैं नहीं बोला, दूसरे समुदाय के लिए बोला तो नहीं बोला, अंत में जब वो मेरे पास आए तो मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था. सौभाग्य या दुर्भाग्य से जितने भी मीडिया हाउस है, उनका किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़ाव है. हम सभी जानते हैं कि किस तरह का दबाव होता है, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि जब दूसरों के समय हम कुछ नहीं बोल रहे हैं तो जब हमारे साथ होगा, तो कौन बोलेगा? क्या इसकी कोई गारंटी है कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा. पत्रकारों के साथ दिक्कत ये है कि वह समझ नहीं पाते कि पॉलिटिक्स पत्रकारिता और पत्रकारों को इस्तेमाल करती है. हम उनके साथ रहते-रहते खुद को ही पत्रकार समझने लगते हैं. हम भूल जाते हैं कि जैसे ही हमारा काम खत्म होगा, हमें पॉलिटिक्स फेंक देगा. पॉलिटिशियन तो आपसे काम खत्म हो जाने के बाद आपका फोन भी नहीं उठाएगा और ये सबके साथ होगा. चाहे आप बिल्कुल टॉप पर हों या बॉटम में.
पत्रकारों पर हमला चौतरफा
अभी भी झारखंड में रूपेश सिंह है, कश्मीर में इरफान को फिर डाला गया. उनके साथ कश्मीर में चार पत्रकार हैं जो जेल में हैं. यह 1992 के बाद सबसे अधिक संख्या है. भारत में सौभाग्य से काम के दौरान मारे जानेवाले पत्रकारों की संख्या अभी बहुत कम है. हालांकि, स्थानीय पत्रकारों की हालत बहुत खराब है. वो चाहे स्थानीय दबंग हों, पुलिस हों या जो भी हों, वे पिसते हैं. तीसरी चीज है, इम्प्यूनिटी की. मतलब, जिस पत्रकार का मर्डर हुआ, वो चलता ही रहता है. दोषी को सजा ही नहीं होती. इसमें हिंदुस्तान की रैंकिंग 13 वीं है. यह दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र की हालत है. एक नया ट्रेंड है डिजिटल सर्विलांस का. पेगासस के मामले में माने लें तो 40 पत्रकारों की स्टॉकिंग हो रही है. महिला पत्रकारों की ट्रोलिंग और हरैसमेंट काफी बढ़ी है. हाल ही में सुल्ली और बुल्ली बाइ वाला मामला आया, जिसमें 20 महिला पत्रकार थीं. इसमें मुसलमान महिलाओं की ऑनलाइन नीलामी हो रही है. इसके अलावा यूएपीए है. अभी 12 से 13 पत्रकारों के ऊपर यूएपीए के चार्ज लगे हैं. मशरत जेहरा को तो फोटो के ऊपर यूएपीए लगा दिया है.
अभी सबसे बड़ी जरूरत है कि पत्रकार एक-दूजे को सपोर्ट करें. पत्रकार अपना कानूनी हक जानें, क्योंकि औसत पत्रकार को पता ही नहीं है कि उसके हक क्या हैं, कानून क्या है. जैसे, उसको डिफेमेशन यानी मानहानि का कानून नहीं पता है, पत्रकार को सपोर्ट करनेवाले कानून कौन हैं, अधिकार कौन सा है, ये कुछ नहीं पता है. तो, ये दोनों काम पत्रकारों को जल्द से जल्द करना होगा.
(आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)