आत्मनिर्भर भारत में न्यूज भी आत्मनिर्भर हो
आस्ट्रेलिया ने इसके लिए कानून बनाया है जो दोनों सदनों में पारित भी हो चुका है. ब्राजील और फ्रांस ने नियामक संस्था गठित की है. अमेरिका में डेमोक्रेट और रिप्बलिकन यानि दोनों ही दलों के नेता ऐसे कानून के पक्ष में हैं.
अखबार हों, न्यूज चैनल हो या डिजिटल न्यूज माध्यम हो सब पर खबर लानें में, खबर छापने में, खबर कैमरे से शूट करने पर, वीडियो एडिटिंग करने में बहुत पैसा खर्च होता है. उधर गूगल फेसबुक जैसी बड़ी टेक कंपनियां इस बने बनाए न्यूज कंटेंट का इस्तेमाल तो जमकर करती हैं लेकिन इससे विज्ञापनों के जरिए हो रही कमाई का छटांक भर ही कंटेंट बनाने वालों में बांटती हैं. टेक कंपनियों को अपनी कमाई का सम्मानजनक और बड़ा हिस्सा न्यूज मीडिया के साथ क्यों बांटना चाहिए. इस पर बहस हो रही है. आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्काट मोरिसन ने पिछले दिनों भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से टेलिफोन पर बात की. अन्य बातों के अलावा मोरीसन ने भारत से आस्ट्रेलिया की खास मुहिम में शामिल होने और सहयोग देने का अनुरोध किया. गूगल फैसबुक टिवटर जैसी टेक कंपनियों को अपनी कमाई का उचित और सम्मानित हिस्सा न्यूज मीडिया के साथ साझा करने की मुहिम मोरिसन चला रहे हैं.
आस्ट्रेलिया ने इसके लिए कानून बनाया है जो दोनों सदनों में पारित भी हो चुका है. ब्राजील और फ्रांस ने नियामक संस्था गठित की है. अमेरिका में डेमोक्रेट और रिप्बलिकन यानि दोनों ही दलों के नेता ऐसे कानून के पक्ष में हैं. दक्षिण अफ्रीका और स्पेन ने सारी कमाई अकेले ही हड़प जानेवाली टेक कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की चेतावनी दी है. यूरोपियन यूनियन कापीराइट एक्ट के माध्यम से टेक कंपनियों पर शिकंजा कसने के विकल्प पर विचार कर रही है. सवाल उठता है कि इतने सारे देशों में न्यूज मीडिया की आर्थिक सेहत सुधारने की बात क्यों हो रही है. जवाब बहुत आसान है. ये सारे देश लोकतांत्रिक देश हैं और मानते हैं कि न्यूज मीडिया की वित्तीय हालत सुधरेगी तो लोकतंत्र और ज्यादा मजबूत होगा. इन देशों को ये भी लगता है कि टेक कंपनियों की मोनोपोली तो तोड़ना भी बहुत जरुरी है.
बात आस्ट्रेलिया से शुरु करते हैं. आस्ट्रेलिया इंटरनेट यूजर की संख्या के हिसाब से दुनिया का चौथे नंबर का देश है. फेसबुक के एक करोड़ 70 लाख यूजर हैं. पिछले साल फेसबुक और गूगल की आस्ट्रेलिया में विज्ञापनों से कमाई रही 319 मिलियन डालर. आस्ट्रेलिया मे डिजीटल प्लेटफार्म पर हर सौ डालर की विज्ञापन कमाई में से 53 फीसद गूगल को मिलता है और 28 फीसद फेसबुक को. लेकिन जब इन कंपनियों से कहा गया कि वो इस कमाई में से सम्मानजनक राशि न्यूज मीडिया को भी दे तो वो साफ मुकर गये. उल्टे दादागीरी करने लगे. फेसबुक ने आस्ट्रेलिया का पेज ही हटा दिया. यहां तक कि मौसम, स्वास्थय, आपातकालीन सेवा, आपदा की सूचना देने वाली सेवाएं भी बंद कर दी. तब प्रधानमंत्री मोरिसन के कहा था कि वो हो सकता है कि दुनिया बदल रहें होंगे लेकिन दुनिया को अपने हिसाब से चला नहीं सकते. आस्ट्रलिया दबाव में नहीं आया. फेसबुक को झुकना पडा. उसने अगले तीन सालों में न्यूज मीडिया की आर्थिक मदद के लिए एक बिलियन डालर का कोष बनाने की घोषणा की है. गूगल ने राबर्ट मर्डोक जैसे बड़े मीडिया घरानों के साथ राजस्व बांटने को लेकर समझौता किया है. गूगल ने भी फेसबुक की तरह एक बिलियन डालर का विशेष कोष बनाने की घोषणा की है.
अब जो काम आस्ट्रेलिया कर रहा है वो काम भारत क्यों नहीं कर सकता या भारत को क्यों नहीं करना चाहिए. आखिर भारत में न्यूज मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है. यहां न्यूज मीडिया की हालत पतली है. कोरोना काल में ही कुछ अखबार कुछ टीवी चैनल कुछ डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म बंद हुए हैं. पत्रकारों की नौकरियां गयी हैं, तनख्वाहें कम हुई हैं, नयी भर्ती प्रभावित हुई है. उधर गूगल फेसबुक जैसी टेक कंपनियां मालामाल हो रही हैं. एर्नेस्ट एंड यंग का एक सर्वै फिक्की ने साझा किया है. सर्वै बताता है कि भारत में डिजिटल प्लेटफार्म को 2019 में 27 हजार 900 करोड़ का विज्ञापन मिला जो 2022 में बढ़ कर 51 हजार 340 करोड़ पहुंच जाएगा. भारत में तीस करोड़ ऐसे यूजर हैं जो न्यूज संबंधित डिजीटल प्लेटफार्म से जुड़े हैं. वैसे कुल मिलाकर इंटरनेट से जुड़ने वालों की तादाद इससे कहीं ज्यादा है. सर्वे बताता है कि सभी तरह के इंटरनेट यूजर में से 46 फीसद न्यूज सिर्फ डिजीटल प्लेटफार्म पर ही देखते हैं. इसी तरह स्मार्ट फोन रखने वालों में से 76 फीसद न्यूज अपने फोन पर ही देखते हैं.
हाल ही में भारत ने सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म के लिए कड़ी शर्ते लागू की हैं. भारत ने टिवटर को तीन सौ के आसपास एकाउंट बंद करने के लिए मजबूर किया है. भारत ने व्हाटसअप पर प्राईवेसी को लेकर शिकंजा कसा है. भारत ने बहुत से एप्प तक बंद किए हैं. भारत ने आनलाइन मार्केट के मामले में अमेजन और फ्लिपकार्ट को बिजनेस माडल बदलने के लिए बाध्य किया है. जानकारों का कहना है कि भारत जब ये सब कर सकता है तो वो टेक कंपनियों पर ये दबाव भी डाल सकता है कि वो अपनी कमाई न्यूज मीडिया से साझा करे. आखिर भारत बहुत बड़ा बाजार है और कोई भी टेक कंपनी इस बाजार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकती. उधर टेक कंपनियों का कहना है कि वो तो अपने प्लेटफार्म पर न्यूज कंटेंट दिखाते हैं जिससे कंटेंट बनाने वाले न्यूज मीडिया को ही प्रचार प्रसार होता है. उसके पाठक या दर्शक बढ़ते हैं और सारी तारीफ उन्ही के हिस्से जाती है. इससे न्यूज मीडिया को ज्यादा विज्ञापन मिलता है. टेक कंपनियों का दावा है कि वो तो फ्री प्लेटफार्म हैं और कंटेंट बेचते नहीं है. उनका विज्ञापन तो टारगेटिड होता है. टेक कंपनियों के कारण न्यूज मीडिया का कंटेंट चर्चा में आता है ये बात सही है लेकिन सिर्फ चर्चा से पेट नहीं भरा जा सकता. न्यूज कंटेंट बनाने में बहुत पैसा खर्च होता है. हमारे यहां कहा जाता है कि कंटेंट इज किंग. अब ये कहां का इंसाफ है कि कंटेंट बेचने वाला तो किंग यानि राजा हो जाए और कंटेंट बनाने वाले की हालत रंक जैसी रहे.
अखबार हो या टीवी चैनल दोनों विज्ञापन पर ही जिंदा है लेकिन विज्ञापन डिजीटल की तरफ शिफ्ट हुआ है . यहां दिलचस्प तथ्य है कि जितना भी आनलाइन विज्ञापन है उसका 68 से लेकर 75 फीसद हिस्सा गूगल और फेकबुक के पास ही जाता है. इसके बाद अमेजन के हिस्से कुछ आता है. करीब नौ फीसद . यानि न्यूज मीडिया के लिए यहां भी गूजायंश नहीं के बराबर रह गयी है . जानकारों का कहना है कि टेक कंपनियों में विज्ञापन को लेकर पारदर्शिता भी नहीं है . वो कभी नहीं बताती कि न्यूज मीडिया के किस कंटेंट से उसे कितना विज्ञापन मिला . इन दिनों आत्मनिर्भर भारत पर बहुत जोर दिया जा रहा है . जानकारों का कहना है कि आत्मनिर्भर न्यूज भी आत्मनिर्भर भारत का जरुरी हिस्सा होना चाहिए . आत्मनिर्भर न्यूज शब्द तभी सार्थक होगा जब टेक कंपनिओं की कमाई का हिस्सा मिलेगा . इसके लिए कानून बनाकर ही टेक कंपनियों पर नकेल कसी जा सकती है लेकिन कानून बनाना भी इतना आसान नहीं है .
जानकारों का कहना है कि कानून ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी मीडिया कंपनियां एक साथ मिलकर सामूहिक रुप से टेक कंपनियों के साथ कमाई में हिस्सेदारी तय करें. इंटरनेट कंपनिओं को अपनी पसंद के न्यूज मीडिया के साथ समझौते करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए. छोटे मीडिया घऱानों, क्षेत्रीय भाषा के मीडिया और भविष्य में आने वाली मीडिया कंपनियों के हितों की रक्षा कानून का हिस्सा होनी चाहिए. विवाद होने की सूरत में निपटारा कैसे होगा इसका स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए. ट्रेंड टेक्नोलाजी और टेस्ट बदलते रहते हैं लिहाजा कानून लचीला होना चाहिए. सबसे बड़ी बात है कि इंटरनेट देश की सीमाएं नहीं पहचानता इसलिए जरुरी है कि कानून बनाने से पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक जैसे नियम तय किए जाएं और खामियों को दूर करने के उपाय किये जाएं.
भारत में अखबारों की प्रतिनिधि संस्था द इंडियन न्यूज पेपर सोसाइटी ने गूगल से कहा है कि वो विज्ञापन राजस्व का 85 फीसद अखबार वालों को दे . सोसाइट ने विज्ञापन से हो रही कमाई में पारदर्शिता का भी सवाल उठाया है . उधर जानकारों का कहना है कि भारत सरकार , भारतीय संसद और कंपीटीशन कमीशन आफ इंडिया पर न्यूज मीडिया को दबाव डालना चाहिए . तभी बड़ी टेक कंपनियां दबाव में आएंगी . जानकारों का कहना है कि भारत अगर कानून बनाने में आस्ट्रेलिया अमेरिका जैसे देशों के साथ आता है तो इंडो पैसिफिक ग्रुपिंग में भारत के रिश्ते और ज्यादा बेहतर होंगे . रक्षा और कूटनीति के क्षेत्र में रिश्ते सुधरेंगे तो चीन की घेरेबंदी करने में भी मदद मिलेगी . लेकिन भारत सरकार फिलहाल चुपी साधे बैठी है . हाल ही में ओटीटी और सोशल मीडिया पर शर्ते लगाने वाली सरकार से टेक कंपनियों पर कानून बनाने के बारे में पूछा गया तो साफ साफ कोई जवाब नहीं मिला . सरकार ने कहा कि वक्त आने पर फैसला किया जाएगा . जाहिर है कि न्यूज मीडिया को लंबी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए .
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