ऐप कैपिटलिज्म के दौर में दिल्ली के ब्लिंकिट मजदूरों का आंदोलन बना 'गिग वर्कर्स' के लिए नई नजीर, परंपरागत ट्रेड यूनियनों को सीखने की जरूरत
1 मई. विश्व मजदूर दिवस. यह कभी मजदूरी के घंटे 8 करने को लेकर शुरू हुए वैश्विक आंदोलन को सलाम करने का एक तरीका था. आज वैश्वीकरण के दौर में भारत की भी हालत बदली है. समाजवाद के रंग में गहरे रंगा देश अब पूंजीवादी धुनों पर भी झूम रहा है. उसी तरह मजदूर, मालिक, एम्प्लॉयर और एम्प्लॉयी के भी रिश्ते बदल रहे हैं. बदलते दौर में भी 1 मई की कोई प्रासंगिकता बची है या इसने अपने होने के मायने खो दिए हैं.
बदल रहा है ग्लोबलाइजेशन के दौर में मजदूरी का रंग
पिछले महीने दिल्ली के रंजीत नगर में एक फूड डिलिवरी कर्मचारी की हत्या हो गई. दो लोगों ने खाना डिलीवर करने गए एक 39 वर्षीय डिलीवरी कर्मचारी की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी. बाद में आरोपितों को गिरफ्तार कर लिया गया. इस तरह की घटनाएं अब महानगरों में आम होती जा रही हैं, जो ऐप के माध्यम से खाना या सामान डिलिवर करने वाले कर्मचारियों की खतरनाक कार्यस्थितियों को उजागर करती हैं. कुछ साल पहले जिसे अर्थव्यवस्था का ‘उबराइजेशन’ कहा जा रहा था, अब नई श्रम संहिताओं के माध्यम से सरकार ने उसे औपचारिक बना दिया है. विडम्बना यह है कि ओला, उबर, जोमैटो, स्विगी और इसी किस्म के ऐप और डिजिटल प्लैटफॉर्मों के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को कोई सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है, इसके बावजूद इस किस्म के कामों में निजी आजादी का आभास इतना गहरा है कि संगठित क्षेत्र के रोजगारों से लोग खुद ऐसे अनौपचारिक रोजगारों की ओर मुड़ते जा रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों में अनेक नई प्रकृति के रोजगार पैदा हुए हैं. नियोक्ता और कामगार का रिश्ता भी अब पहले जैसा नहीं रहा. इन बदलावों के परिप्रेक्ष्य में सरकार को ‘वर्कर’ की परिभाषा में कायदे से बदलाव लाना चाहिए था, लेकिन इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड 2020 में सरकार ने ‘वर्कर’ की संकुचित परिभाषा को बरकरार रखा है. इस कारण हुआ यह है कि इन नए किस्म के रोजगारों की असंख्य श्रेणियों से जुड़े लाखों कामगार इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड के दायरे से ही बाहर कर दिए गए हैं. काम के दौरान इनकी हत्या भी हो जाए तो सरकार तो दूर की बात, उनके नियोक्ता की भी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती.
ऐप कंपनियाँ अक्सर बहुत खतरनाक परिस्थितियों में और बेहद शोषणकारी दरों पर ऐप कर्मचारियों को काम करने को मजबूर करती हैं. उन्हें कामगारों की सुरक्षा व सामाजिक सुरक्षा की कोई चिंता नहीं होती है. नतीजतन, जब कोई दुर्घटना होती है, तो कंपनियां ऐप कामगारों या उनके परिवारों को मुआवजा न देकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं. पिछले महीने दिल्ली और राष्अ्रीय राजधानी क्षेत्र के गुड़गांव, गाजियाबाद और नोएडा में जोमैटो के एप्लिकेशन ब्लिंकिट के डिलिवरी कर्मियों की जगरदस्त हड़ताल भारत की ताजातरीन गिग अर्थव्यवस्था में नए किस्म के शोषण और प्रतिरोध का सुबूत है.
गिग इकोनॉमी को समझिए
गिग अर्थव्यवस्था के अंतर्गत गिग/प्लैटफॉर्म वर्कर्स, आइटी कामगार, स्टार्टअप तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमों के कामगार, सेल्फ एम्प्लॉयड तथा होम बेस्ड वर्कर्स, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के कामगार, प्लांटेशन वर्कर्स, मनरेगा कामगार, ट्रेनी तथा अप्रेंटिस वर्कर्स आदि शामिल हैं. श्रम संगठनों का यह मानना है नियोक्ता, कर्मचारी और कामगार की परिभाषाएं भ्रमपूर्ण और अस्वीकार्य हैं. एम्प्लायर की परिभाषा में कांट्रैक्टर को सम्मिलित किया गया है लेकिन इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड में इसे परिभाषित नहीं किया गया है. श्रम संगठनों के अनुसार यदि सोशल सिक्योरिटी कोड में दी हुई कांट्रैक्टर की परिभाषा को आधार बनाया जाए तो चिंता और बढ़ जाती है क्योंकि इसमें ऐसे परिवर्तन कर दिए गए हैं कि कानून की भाषा में जिसे ‘शैम एंड बोगस’ कांट्रैक्टर कहा जाता है वह भी स्वीकार्य बन गया है.
नई श्रम संहिता में एम्प्लायर की परिभाषा इतनी अस्पष्ट है कि कामगार यह तय ही नहीं कर पाएगा कि उसका नियोक्ता कौन है- वह, जिसने प्रत्यक्षतः उसे काम पर रखा है या वह, जिसका सारी प्रक्रिया पर नियंत्रण है. मसलन, एक बड़े मीडिया हाउस की डिजिटल शाखा में काम करने वालों को मिलने वाला नियुक्ति पत्र किसी ट्रांसफॉर्मर कंपनी का हो सकता है. ऐसा कोरोनाकाल में सामने आया था, जब कोरोना के नाम पर हुई छंटनी के दौरान एक कर्मचारी ने मुकदमा करने का प्रयास किया तो उसे समझ ही नहीं आया कि उसका असली नियोक्ता कौन है. इसके अलावा, फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट को अब टेन्योर ऑफ एम्प्लायमेंट के समान माना जा रहा है यानी फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट पर कार्यरत कामगारों को बिना किसी उचित कारण के सेवा से हटाया जा सकेगा. इस ऐक्ट में हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों को असंभव होने की सीमा तक कठिन बना दिया गया है.
बदल रहे हैं प्रतिरोध के तरीके
जाहिर है, ऐसे में प्रतिरोध के तरीकों में भी बदलाव होगा. यह तो संभव नहीं है कि प्रतिरोध या हड़ताल खत्म हो जाए क्योंकि जब तक कामगार का शोषण है, विरोध के तरीके भी ईजाद होते रहेंगे. इस सिलसिले में ऐप कर्मचारियों के यूनियन और गिग कर्मियों के यूनियनों का पिछले तीन साल में बनना एक महत्वपूर्ण परिघटना है. दिलचस्प है कि परंपरागत ट्रेड यूनियनों से ऐसी यूनियनों का कोई लेना-देना नहीं है. ये स्वतंत्र यूनियनें हैं जो नए ढंग से काम कर रही हैं. ऑल इंडिया गिग वर्कर्स यूनियन और दिल्ली की ऐप वर्कर्स यूनियन को इनमें गिनाया जा सकता है. इन यूनियनों के प्रभाव में पिछले महीने ब्लिंकिट अपने अप्रैल-जून तिमाही के राजस्व का एक प्रतिशत गंवाने के कगार पर आ गया. श्रम विरोधी नीतियों के दौर में यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है.
पिछले महीने ब्लिंकिट के कर्मचारी दिल्ली एनसीआर में हड़ताल पर चले गए थे. कंपनी ने उनके फ्लैट 25 रुपये (और पीक आवर्स में 7 रुपये अतिरिक्त) के भुगतान को घटा कर न्यूनतम 15 रुपये (वो भी दूरी पर निर्भर) कर दिया था. कर्मचारियों की कमाई से महज दस रुपये की कटौती का असर यह हुआ कि हड़ताल के दबाव में ब्लिंकिट को दिल्ली एनसीआर में अपने 100 के करीब डार्क स्टोर बंद करने पड़ गए. डार्क स्टोर वे जगहें हैं जहां से डिलिवरी कर्मी सामान उठाते हैं. ऐसे 400 डार्क स्टोर ब्लिंकिट चलाता है जिनमें आधे के करीब अकेले दिल्ली एनसीआर में हैं.
काम करने की आजादी है, पर सुरक्षा नदारद
गिग अर्थव्यवस्था में काम करने की आजादी का एक पक्ष यह बेशक है कि अगर ओला के लिए गाड़ी चलाने वाले को उससे शिकायत है तो वह उबर पर शिफ्ट हो सकता है. पिछले महीने फूड डिलिवरी में भी यही हुआ- ब्लिंकिट के 1000 के करीब ‘डिलिवरी पार्टनर’ यानी कामगार दूसरे ऐप के लिए काम करने चले गए, जिनमें जेप्टो, स्विगी, बिग बास्केट इत्यादि हैं. जाहिर है, बाजार में एक कंपनी के खिलाफ हड़ताल का लाभ दूसरी कंपनियों ने जमकर उठाया. अकेले दो दिन, 13 और 14 अप्रैल को जेप्टो के ऑर्डर में 40 प्रतिशत, बिग बॉस्केट में 46 प्रतिशत और स्विगी के ऑर्डर में 25 प्रतिशत का उछाल देखने को मिला
परंपरागत ट्रेड यूनियन की कार्यशैली से हटकर इस किस्म के नए आंदोलनों और हड़तालों के अलावा गिग कर्मचारी अपने तईं नए रास्ते भी तलाश रहे हैं. मसलन, ओला और उबर के ड्राइवर अब बुकिंग आने के बाद सवारी से डील कर लेते हैं कि वे उतने ही पैसे में बुकिंग रद्द कर के चलें, ताकि कंपनी को कमीशन न मिलने पाए और पूरा पैसा कर्मचारी की जेब में आए. कुछ साल पहले ओला और उबर के एकाधिकार के खिलाफ दिल्ली के ट्रांसपोर्टरों और काली-पीली टैक्सी के संचालकों ने अपना एक सहकारी ऐप बनाया था और उसका भव्य लोकार्पण सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में किया था. वह ऐप नहीं चल पाया. नतीजतन, दिल्ली के कई टैक्सी स्टैंड बंद हो गए. सहकारिता के आधार पर मीडियाकर्मियों के भी ऐसे प्रयास अतीत में देखने में आए हैं, हालांकि संगठित क्षेत्र के कमजोर होते जाने के साथ श्रमिक प्रतिरोध अब निजी स्तर पर अनौपचारिक ढंग से ही आकार ले रहा है.
मई दिवस हो गया अप्रासंगिक!
आठ घंटे काम करने की मांग के साथ शुरू हुआ मजदूर आंदोलन और उसका प्रतीक बना मई दिवस आज इस मायने में अप्रासंगिक हो चुका है कि आज का गिग कामगार अपने परिवार का पेट पालने के लिए बारह से अठारह घंटे काम करने को मजबूर है. किस्तें भरने के लिए ओला/उबर के ड्राइवर रात-दिन गाड़ी चला रहे हैं. मजदूरों के लिए काल का चक्र उलटा घूम चुका है. इसके बावजूद अच्छी बात यह है कि शोषण और लूट का अहसास बराबर सबके दिलों में है. गिग वर्कर्स खुद को मजदूर मानें या नहीं, लेकिन अपने हक का उन्हें पूरा ज्ञान है. उनके प्रतिरोध के महीन तरीकों को समझने और एक मुकम्मल आकार देने वाली ताकतें नदारद हैं क्योंकि देश का मजदूर आंदोलन अब भी पुराने तौर-तरीकों में फंसा हुआ है. ऐसे में नए किस्म की यूनियनों और हड़तालों से परंपरागत ट्रेड यूनियनों को सबक लेना बनता है.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]