यूपी में गठबंधन की बहुतेरी बातें अंदरखाने हैं तय, इंडिया अलायंस को बस अब फाइन ट्यून करनी है कुछ चीजें
अगले लोकसभा में बमुश्किल कुछ महीने बचे हैं, लेकिन इडिया गठबंधन का अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं है. लोकसभा की सबसे अधिक सीटें जहां से आती हैं, उसी यूपी में सबसे अधिक झमेला है. यहां यूपी जोड़ो यात्रा कांग्रेस निकाल रही है, तो अखिलेश यादव महाब्राह्मण सम्मलेन कर रहे हैं. बहन मायावती के इंडिया गठबंधन में शामिल होने पर भी अभी तक बादल लगे हुए हैं, लेकिन सबसे अधिक फंसान तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच है. जहां एक तरफ अखिलेश यादव को अपना वोटबैंक बचाए रखने की पड़ी है, वहीं कांग्रेस उनके ही मुस्लिम वोटों को वापस अपने पाले में लाने पर मेहनत कर रही है.
इंडिया गठबंधन में बहुतेरी बातें तय
जितनी चर्चाएं हो रही हैं, इंडिया अलायंस के भीतर के भ्रम को लेकर, दरअसल वो चर्चा बाहर की ही हैं. गठबंधन के भीतर तो बहुत सारी बातें तय हो चुकी हैं. अगर चीजों को जोड़कर पूरी समग्रता में देखें तो बहुतेरी बातें साफ हो सकती हैं. मसलन, कांग्रेस की जो यात्रा है, वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही क्यों महदूद है, पूर्वी उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं हो रही है, जो अजय राय का अपना क्षेत्र भी है और जहां से पीएम मोदी को चुनौती देने की बात हो रही है. सेंट्रल यूपी में क्यों नहीं, जहां राहुल और प्रियंका की कांग्रेस की परंपरागत सीटें हैं. तो, इसका जवाब यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अखिलेश के लिए भी सफर बहुत आसान नहीं रहा, उनकी बेहतरीन चुनौती भी वहां नहीं रही, वहां उन्हें या तो रालोद पर निर्भर रहना पड़ता है, या फिर बहन मायावती और बसपा का साथ लेना पड़ता है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अगर कांग्रेस यात्रा निकाल भी रही है, तो अखिलेश यादव को बहुत दिक्कत नहीं होती है. फायदे के लिहाज से देखें तो अगर कांग्रेस वहाँ मजबूत होती है, तो गठबंधन को फायदा होगा. अगर हम सीटों के बंटवारे को देखें या नतीजों को देखेंगे तो यह पता चलेगा कि सीटें भले कांग्रेस की छिटपुट हों, लेकिन फायदा गठबंधन को ही होगा. रणनीति काफी स्पष्ट है अलायंस के अंदरखाने में, लेकिन बाहर भ्रम का वातावरण है.
अभी जैसे अखिलेश यादव को देखें तो वह ब्राह्मण महासम्मेलन कर रहे हैं, यह कोई नयी बात नहीं है. उनकी पार्टी में एक धड़ा है, जो ऐसी बातें करता है. याद करें तो अखिलेश यादव ने झटके में एक प्रेस-कांफ्रेंस में पीडीए का ऐलान किया था और पत्रकारों ने उनसे पूछा था कि क्या उनके यहां सवर्णों का स्थान नहीं है, तो अखिलेश ने उसकी समझ पर ही सवाल उठा दिए थे. उन्होंने कहा था कि उनके साथ हमेशा ब्राह्मणों और क्षत्रियों का एक बड़ा वर्ग रहा है, उन्होंने कभी किसी को काटने की बात नहीं कही है. अब पार्टी दफ्तर में इस तरह का सम्मेलन कराकर थोड़ा सा समीकरणों को साधने की कोशिश है.
प्रियंका को हटाकर कांग्रेस चलेगी नया दांव
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले प्रियंका प्रभारी बन कर आयी थीं और उन्होंने काफी बज़ भी क्रिएट किया था, लेकिन चुनाव खत्म होने के बाद वह यूपी आयी ही नहीं. उन्होंने पार्टी की राजनीति में यूपी के जरिए एंट्री ली, फिर राष्ट्रीय राजनीति में व्यस्त हो गयीं. यह बात भी तय है कि यूपी जैसे स्टेट में जहां कांग्रेस लीड नहीं कर रही है, उस गठबंधन में प्रियंका गांधी की कोई खास भूमिका भी नहीं बनती है. दूसरी बात ये है कि वह कांग्रेस का बड़ा कार्ड हैं, हमेशा से रही हैं और इस बार और रहेंगी. हो सकता है इस बार पार्टी उनको चुनाव यूपी से लड़वा दे- वह रायबरेली, अमेठी में से किसी एक जगह से लड़ सकती हैं. ऐसे में प्रियंका जैसी बड़ी नेता का प्रभारी बनने का कोई मतलब नहीं है.
इसके अलावा एक मामला यह भी था कि टीम प्रियंका पूरे यूपी को चला रही थी और उससे अखिलेश यादव को कुछ दिक्कतें भी थीं. बीच में तो यह भी हल्ला हुआ कि यूपी में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व अखिलेश के साथ तो गठजोड़ ही नहीं चाहता है. कांग्रेस को उस धड़े को भी नियंत्रित करना है और सपा के साथ गठबंधन की दिक्कतों को भी सुलझाना है. अब प्रियंका का एक राष्ट्रीय प्रजेंस दिखेगा और कांग्रेस में अविनाश पांडेय का आना भी इसलिए है कि वह अनुभवी व्यक्ति हैं और पांच साल पहले वह काम करके गए हैं, तो वह तालमेल बनाने में व्यस्त रहेंगे और प्रियंका राष्ट्रीय फलक पर दिखेंगी.
अखिलेश यादव पूरी तरह सतर्क
अखिलेश यादव दरअसल सतर्कता के कारण स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान पर बहुत वोकल नहीं होते, ताकि उनके बयान को सपा से न जोड़ा जा सके. दूसरा, उनका जो जातिगत वोटबैंक है, वह भी बना रहे इसलिए भी अखिलेश नहीं बोलते. ब्राह्मण सम्मेलन से वह स्थापित कर रहे हैं कि उनका ब्राह्मणों से वैर नहीं है, वह दरअसल कुरीतियों के खिलाफ बात करते हैं, जहां दलितों-पिछड़ों को दबाया जाता है. अब ये मैसेज कितना गहरे जाएगा, यह देखने की बात है, लेकिन अखिलेश यही कोशिश कर रहे हैं. एक तरफ तो एक नेता को बोलने की पूरी छूट है, दूसरी तरफ ऐसे सम्मेलनों के जरिए सवर्णों को रिझाने की चाल है. वहां भी अखिलेश यही संदेश दे रहे हैं कि उनको भाजपा से दिक्कत है, सवर्णों से नहीं.
जहां तक मायावती के इंडिया गठबंधन में आने और अखिलेश के विरोध की बात है, तो उस पर बिल्कुल यह नहीं कहा जा सकता है कि मायावती आएंगी ही या नहीं ही आएंगी. हालांकि, ये जितने बयान आ रहे हैं उसमें एक तत्व तो यह भी है कि जो इंडिया गठबंधन के दल हैं, वह एक सरप्राइज का एलिमेंट रखना चाहते हैं, इसलिए कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. मायावती का एक बयान हमें याद रखना चाहिए, जब उन्होंने अपने दल के लोगों के साथ दूसरे दलों को भी नसीहत दी थी कि उन्हें अतिरिक्त बोलने से बचना चाहिए, क्योंकि किसकी कब जरूरत पड़ जाए, यह कहा नहीं जा सकता है.
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