रविवार 28 मई को भारत के नए संसद-भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने किया. इस समारोह से लगभग दो दर्जन राजनीतिक दल जो विपक्ष में हैं, गायब रहे. उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार किया और इसके पीछे उनका तर्क था कि यह उद्घाटन राष्ट्रपति महोदया को करना चाहिए था और उन्हें नहीं बुलाकर लोकतंत्र का अपमान किया गया है. सत्तापक्ष ने भी मामले को सुलझाने की कोशिश नहीं की और पूरी भव्यता के साथ इस समारोह का आयोजन किया गया और पीएम मोदी ने संसद-भवन को लोकार्पित किया. 


कौना जीता पता नहीं, पर लोकतंत्र हारा


दुनिया के मंच पर शक्ति और वैभव के साथ ठसक से उभर रहे भारतीय लोकतंत्र का यह ऐसा मंदिर है, जिसमें गुलामी की परछाईं ढूंढने से भी नहीं मिलेगी. देश के करदाताओं के पैसे से निर्मित इस भव्य इमारत की हर ईंट उस उदीयमान राष्ट्र की कहानी बयां कर रही है, जो आज दुनिया की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा रहा है और जिसकी ओर दुनिया उम्मीद भरी दृष्टि से देख रही है. विडंबना देखिये, ये उम्मीद देश के विपक्ष को नहीं दिख रही, तभी तो डेढ दर्जन से अधिक सियासी दलों ने भारत के संसदीय इतिहास के इस निर्णायक मोड़ का साक्षी बनने से इंकार कर दिया. नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार के पीछे विपक्ष की दलील थी कि भारतीय गणतंत्र का मुखिया होने के नाते यह शुभ कार्य राष्ट्रपति के हाथों होना चाहिए ना कि प्रधानमंत्री के हाथों. यह एक ऐसा ज्वलंत प्रश्न है, जिसका ठोस उत्तर किसी के पास नहीं है, भले ही सरकार के इस निर्णय को उचित ठहराने में बीजेपी एड़ी चोटी का जोर क्यों ना लगा ले।


राष्ट्रपति की गरिमा को नहीं रखा बरकरार 


हालांकि, हम इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ सकते कि भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति का चाहे जितना महिमामंडन हो, सत्तर के दशक के बाद से ही सियासी दलों ने अपने संकीर्ण स्वार्थ के चलते इस पद की गरिमा को जो ठेस पहुंचाना शुरु किया, वह कुछ अपवाद को छोड़कर आज तक बदस्तूर जारी है. ऐसे में मौजूदा सत्ता तंत्र से यह अपेक्षा रखना ही बेमानी है कि वह इस महत्वपूर्ण उद्घाटन समारोह को राष्ट्रपति के द्वारा संपन्न करवाने का निर्णय लेता. संसद के नए भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति करें या प्रधानमंत्री, मंदिर तो यह हमारे लोकतंत्र का ही है, इस बात को विपक्ष नजरंदाज कैसे कर गया? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करते करते उसने भारतीय लोकतंत्र के मंदिर का बहिष्कार करने का फैसला कैसे कर लिया? एक विपक्षी पार्टी के महत्वाकांक्षी युवा नेता ने तो इसकी तुलना ताबूत से कर दी. आनेवाले दिनों में जब संसद का अगला सत्र इस भवन में बुलाया जाएगा, तो क्या विपक्षी सांसद उसमें शिरकत नहीं करेगे? क्या लोकतंत्र के प्रति इसी प्रतिबद्धता के साथ वे संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेंगे? जिन्हें यह मंदिर ताबूत दिखता है, क्या उन्हें मर्यादित आचरण का पाठ नहीं पढ़ाया जाना चाहिए? क्या अभिव्यक्ति की यह स्वच्छंदता भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है? ऐसे कई गंभीर सवाल हैं, जिनसे हमें जूझना होगा.



भारत के संसदीय इतिहास का यह निर्णायक मोड़ ना तो मनोरंजन कोई सार्वजनिक समारोह था ना ही किसी की व्यक्तिगत उपलब्धि के महिमामंडन का अवसर. दुनिया के विशालतम लोकतांत्रिक देश होने का दावा करनेवाले हम भारतीयों ने इस सुअवसर को कैसे मनाया...संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ ने कैसे यहां की सियासी पार्टियों को अंधा बना दिया...जिस देश ने दुनिया को गणतंत्र का उपहार दिया,आज उसकी राजनीति कैसे राष्ट्रनीति पर भारी पड़ गई... यह सब इतिहास में दर्ज होगा और भावी पीढ़ियां उसी आधार पर हमारे लोकतंत्र का मूल्यांकन करेंगी.


[ये आर्टिकल निजी विचारों परा आधारित है.]