बिहार की बदहाली और अनथक पलायन है छठ के मौके पर स्टेशनों की भीड़ और अफरातफरी की वजह, समस्या एकरेखीय नहीं बहुआयामी
बिहार इस वक्त दो वजहों से सुर्खियों में है. पहला, बिहार प्रशासनिक सेवा आयोग (बीपीएससी) द्वारा लगातार हो रही बंपर टीचर बहाली की वजह से और दूसरा जो लगभग दो दशकों से बिहार की पहचान के साथ जुड़ गया है. बिहार के बेहद खास पर्व छठ के दौरान ट्रेनों में चढ़ने वाले आप्रवासी बिहारियों की भीड़, भगदड़ और लौटती ट्रेनों में कहीं आग तो कहीं बदइंतजामी. यह एक ऐसी तस्वीर है, जो अभी 40 वर्ष के लपेटे में आए किसी भी बिहारी युवक या युवती के लिए बेहद आम है. वह पिछले बीस वर्षों से इस भगदड़, अराजकता, ट्रेन स्टेशनों पर होने वाली, सफर के दौरान और घर पहुंचने तक होनेवाली बदइंतजामी से वह इतना 'इम्यून' हो चुका है कि ऐसी कोई खबर अब उसके लिए 'खबर' भी नहीं है.
छठ की भीड़ और प्रशासनिक लापरवाही
पंद्रह नवंबर यानी बुधवार को छठ पर रेलवे की तरफ से चलाई जा रही हमसफर क्लोन स्पेशल में उत्तर प्रदेश के इटावा के पास भयंकर आग लग गयी. स्टेशन मास्टर की सतर्कता से जानें तो बच गयीं, लेकिन पांच बोगियां पूरी तरह जलकर खाक हो गयीं. यात्री इससे अभी उबर भी नहीं पाए थे कि इसी रूट पर आ रही वैशाली एक्सप्रेस में भी आग लगने की घटना हो गयी. वैशाली एक्सप्रेस दिल्ली से सहरसा जा रही थी, तो हमसफर एक्सप्रेस को दिल्ली से दरभंगा जाना था. इससे पहले 11 नवंबर को सूरत स्टेशन पर हजारों की संख्या में यात्री छठ में यूपी-बिहार जाने के लिए उमड़े तो वहां दम घुटने से कई लोग बुरी तरह बीमार हो गए और एक व्यक्ति की मौत भी हो गयी. इसके अलावा अभी पूरा सोशल मीडिया दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद, बेंगलुरू...आप कोई भी मेट्रो सिटी देख लीजिए, वहां से बिहार की तरफ आनेवाली ट्रेनों में भयंकर भीड़, अफरातफरी, टॉयलेट के पास (और अंदर भी) बैठे लोगों की तस्वीरें और वीडियो ही नुमायां हो रहे हैं. कोई टॉयलेट के पास या अंदर बैठकर सफर कर रहा है, तो कोई दरवाजे पर लटका है. लक्ष्य सबका एक ही है. घर पहुंचना. वह घर, जहां से उनको शौक में नहीं, मजबूरी में प्रवास करना पड़ा था. यह तस्वीर कोई आज की नहीं है. हरेक साल छठ की बात यही है. पिछले तीन दशकों से. लगातार.
मूल कारण है बिहार से जबरदस्त पलायन
आगे बढ़ने से पहले एक आंकड़े को देख लें. फिलहाल, रेलवे की तरफ से अलग-अलग रूट पर 300 स्पेशल ट्रेनें चलायी गयी हैं. 13 जोन रूट पर ये 300 स्पेशल ट्रेनें लगभग 4500 से अधिक फेरे लगाएंगी. अब अगर 4500 फेरों को औसतन हजार यात्रियों के हिसाब से भी (हालांकि, जमीनी तथ्य यह है कि इससे दोगुने यात्री एक फेरे में कम से कम यात्रा करते हैं) गुणा दें, तो भी 45 लाख यात्रियों का ही ध्यान रखा जा सकता है. बिहार सरकार के हालिया जातिगत-सर्वेक्षण के हिसाब से केवल 53 लाख बिहारी बाहर रहते हैं. अगर इस 'अनोखे' और 'अविश्वसनीय' आंकड़े को मान भी लें, तो भी 18 लाख यात्री अभी भी बचे हैं. वैसे, एक बार इन आंकड़ों पर ही बात कर लें, तो दिल्ली को अब मजाक में बिहार का सबसे बड़ा शहर कहते हैं. 2011 के आंकड़ों के मुताबिक यहां 10 लाख से अधिक लोग रहते थे, यूपी के 28 लाख लोग थे. यह भी जानी हुई बात है कि पूरा पूर्वांचल भी छठ करता है और यूपी के लोग भी वापस आते हैं. आज की हालत बस सोच लीजिए. मुंबई की आबादी करीबन ढाई करोड़ है, उसमें भी अगर आप 50 लाख बिहारी मान लें, तो 1 करोड़ की आबादी तो केवल इन दो शहरों में रहती हैं. एक अनुमान के मुताबिक करीबन 4 करोड़ बिहारी बाहर रहते हैं. यह अपुष्ट आंकड़े हैं, लेकिन दिल्ली, मुंबई, चेन्ने, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरू, कोच्चि, कश्मीर या भारत के किसी भी बड़े शहर में जिस तरह बिहारी जनसंख्या को देखा जा सकता है, वह बताता है कि 53 लाख का आंकड़ा भी विश्वसनीय नहीं है.
तीन दशकों का घाव, मलहम का पता नहीं
बिहार में 1990 के दशक से जबरदस्त पलायन शुरू हुआ. सामाजिक न्याय के नाम पर बनी लालू प्रसाद की सरकार में कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ गयी थीं. रही-सही कसर राज्य में अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी और बेरोजगारी ने पूरी कर दी. तब वहां जातियों के नाम पर सेनाएं भी बनीं और नरसंहार भी हुआ. उद्योगों का भट्ठा बैठ गया और बिहार के पटना हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में बिहार के प्रशासन की तुलना 'जंगलराज' से कर दी थी. पलायन तब से अब तक रुका नहीं, बढ़ा ही है. 2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तो पांच साल के लिए उम्मीद जगी थी. तब फास्ट ट्रैक कोर्ट बने, अपराधियों को सजा हुई, संपत्ति जब्त हुई और उनमें स्कूल खोले गए. कुल मिलाकर नीतीश कुमार की सुशासन कुमार के तौर पर ख्याति भी हुई. इसी के फलस्वरूप उनको जनता ने 2020 में और भी झूमकर सीटें दीं. उसके बाद उनका भाजपा के साथ गठबंधन टूटा, प्रशासन पर पकड़ भी छूटी और फिर सरकार के बनने-बिगड़ने, भाजपा और राजद में अलटा-पलटी ने राज्य की हालत बेहद खराब कर दी. केंद्र के साथ अच्छे रिश्ते न होने का भी कुछ दुष्परिणाम रहा हो सकता है, लेकिन अभी हाल में 1 लाख शिक्षकों की बहाली को छोड़ दें, तो पिछले लगभग 7-8 वर्षों से बिहार की गाड़ी बिल्कुल ठप्प पड़ी है. इसलिए भी पलायन बहुत अधिक है और अब तो वह देश के कई शहरों में पहुंच गया है. हालांकि, लौटते वक्त सबकी मंजिक एक ही होती है- बिहार का कोई शहर या गांव.
एक बात और गौर करने की है. ट्रेन से आप अगर मान लें बिहार के पटना, मोतिहारी, गोपालगंज पहुंच गए, तो बिहार के अंदर कैसे सफर करेंगे? बिहार में राजकीय परिवहन सेवा के नाम पर शून्य है. बसों पर केवल प्राइवेट पार्टी काबिज है और वे अराजक हैं. कहीं रोक सकते हैं, कहीं चला सकते हैं, कई बार तो मोतिहारी जानेवाले यात्री को मुजफ्फरपुर या सीतामढ़ी की बस में बिठा देते हैं. सड़कें दुरुस्त हुई हैं, पर कानून-व्यवस्था अब डर का विषय है.
बिहार को सुधरना होगा
हर साल की इस तस्वीर को अगर बदलना है, तो बिहार को सुधरना होगा. हमने देखा है कि फरीदाबाद हो या दिल्ली का वजीराबाद, मुंबई का जुहू बीच हो या यमुना का झाग फरा विषैला पानी, हिंडन के किनारे गाजियाबाद के बिहारी हों या फिर न्यूयॉर्क, टोकियो में घरों में छठ मनाते बिहारी. यह उनकी उत्सवधर्मिता और सांस्कृतिक पैकेजिंग का प्रतीक है, लेकिन उस पर लगे बदनुमा दाग को हटाना है, तो बिहार के शहरों को इस लायक करना होगा कि पलायन रुक जाए और बिहारी अपने घर में छठ मना सकें. इसके अलावा इसका कोई उपाय तो फिलहाल दिखता नहीं है. इसलिए, कि विदेशों से लेकर देश के हरेक शहर में, जहां कहीं भी बिहारी ठीकठाक संख्या में हैं, छठ का आयोजन हो रहा है, फिर भी ट्रेनों से लेकर प्लेन और सड़क से लेकर हवा तक की ये भीड़ दिखाती है कि समस्या उससे कहीं अधिक और बहुआयामी है, जितना हम लोग समझ या देख पा रहे हैं.
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