उत्तर प्रदेश का एक जिला. मुजफ्फरनगर. दो दिनों पहले सुर्खियों में आया. यहां की एक टीचर ने एक छात्र को उसकी धार्मिक पहचान से पुकारते हुए, कुछ टिप्पणी करते हुए अन्य छात्रों से पिटवाया. उसकी खबर अभी बासी भी नहीं हुई थी कि कठुआ, जम्मू से एक और शिक्षक व स्कूल सुर्खियों में आ गए. यहां के एक टीचर और प्रिंसपिल ने भी, छात्र के 'जय श्रीराम' बोर्ड पर लिखने पर पिटाई की थी. पहली घटना में शिक्षिका हिंदू और छात्र मुसलमान, दूसरी में छात्र हिंदू और शिक्षक मुसलमान. दो दिनों के अंदर आयी दोनें घटनाएं बताती हैं कि हम अपने पास की किसी भी खबर को "सांप्रदायिक चश्मे" से देखने लगे हैं, या फिर यह इतनी बार परोसा जाने लगा है कि बिल्कुल "सामान्य" सी बात हो गयी है. कहीं ऐसा तो नहीं कि खबर "मार्शल पनिशमेंट" (यानी मारपीट) की हो और उसे सांप्रदायिक नजरिए से हम देख रहे हैं. या फिर, पूरे देश में ही नफरत एक समान फैल गयी है, समाज बिल्कुल ध्रुवीकृत हो गया है.


व्यक्ति की नहीं, समाज की बात है


कहीं ऐसा तो नहीं है कि समाज पहले भी ऐसा ही था, बस खबरें तुरंत चारों ओर नहीं फैलती थी, तो शायद मुगालता था कि समाज बहुत ठीक हालत में है. वरना, छुआछूत और अलग बर्तन रखना तो हाल-हाल तक समाज के अंदर था. अभी भी कई जगहों पर मौजूद है. पहले की तुलना में यात्रा अधिक बदलाव की ओर ही हुई है. दूसरी बात ऐसी है कि आज के ताबड़तोड़ फैसलों वाले समय में, सभी को "फैसला ऑन द स्पॉट" ही ठीक लगता है. इसीलिए, चाहे मुजफ्फरनगर की घटना हो या कठुआ की, दोनों ही में जो पहला समाचार आया, वह ये ही कि शिक्षक दोषी करार दे दिया गया है, मतलब पहली खबर ही फैसलाकुन अंदाज में लिखी गयी थी. हालांकि, मुजफ्फरनगर की घटना में लड़के के पिता ने पहले रिपोर्ट भी नहीं लिखाई थी, बाद में कहने पर तहरीर दी और बाद में भी इसमें कोई मजहबी एंगल होने से इनकार कर दिया.  समाचार वेबसाइट बीबीसी के मुताबिक लड़के के पिता ने बच्चे का नाम कटाने की बात स्वीकारी है और कहा है कि बच्चों का वह आपसी विवाद था. उसी तरह कठुआ में भी पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू किया है, लेकिन उसकी जांच अभी पूरी नहीं हुई है. क्या यह किसी भी सभ्य समाज की निशानी नहीं होगी कि दोनों ही मामलों में आरोपितों को अपनी बात कहने दें, न्याय की प्रक्रिया पूरी होने दें, जांच करवाएं, उसके नतीज आने दें. पहले से ही मुजरिम ठहरा देना तो "कंगारू कोर्ट" लगाने जैसा होगा. 



नए जमाने का आगाज और मिलना युगों का


अब इसे तकनीक का प्रहार कहें या बदलाव का ताबड़तोड़ शिकार कहें, पहले के मुकाबले हमारे शहर, हमारे गांव रीयल से दूर, वर्चुअल के माध्यम से दिख रहे हैं और हम उसी की छवियां गढ़ रहे हैं. बाकी, मनुष्यों की प्रवृत्ति तो वही है. गांव में भी सारी नकारात्मकता और सकारात्मकता मौजूद है, लोग वैसे ही हैं. हमारे सारे माध्यम हमें बता रहे हैं कि गांव तो स्वर्ग से सुंदर हैं औऱ हम उसी को मान ले रहे हैं. इसीलिए, हमें रटवाया गया कि हम सेकुलर हैं और हम उसे रटते रहे. उस पेंट के हटते ही, समाज जब उसके पूरे नंगेपन के साथ मौजूद है- सोशल मीडिया के अनेक टूल्स पर, तो वह भ्रम टूटने लगा है. हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई का पेंट उतरते ही हमें पता चल जाता है कि सामाजिक तौर पर हम "कम्युनल" ही हैं. हम अगर सर्वे करें तो समाज का यह संघटन (यानी , कंपोजिशन) पहले भी था. किसी सत्ता-विशेष के आने-जाने से इसका अधिक लेना-देना नहीं है. हां, हर हाथ मोबाइल और सस्ते इंटरनेट ने यह जरूर कर दिया है कि हमारे चारों ओर डिजिटल कूड़ा बहुत इकट्ठा कर दिया है. इससे हमारे चारों तरफ एक काल्पनिक दुनिया का निर्माण हो रहा है, जिसमें मौजूद हमारे जैसे लोग हरेक घटना को "वेरिफाई" करने के लिए किसी न किसी मीडिया से जुड़े हुए हैं. बहुत जल्दी कहीं ऐसा भी न हो जाए कि किसी की मौत भी "सोशल मीडिया वेरिफाई" न होने लगे. इस पहुंच ने एक भला भी किया है. इसने ख्वाहिशों को जगा दिया है. लाइक्स और कमेंट्स की फिराक में लोग अलग सी कहानियां लिख रहे हैं, अपने आसपास की कहानी लिख रहे हैं. किसी अच्छे रियलिटी शो की तरह ही उनकी रीच भी बहुत तक जाती है. यहीं से समाज का विभाजन बहुत तीखा है. सरकार भी दंगों के समय सीधा इंटरनेट क्यों बंद करती है? ताकि, व्यूज के चक्कर में खबरों के नाम पर एजेंडाबाजी और प्रॉपैगैंडा न हो सके. 



सच का दामन पकड़, उस से सामना कर


अब आगे की राह यही है कि दोनों ही समुदायों को सच से सामना करना चाहिए. कुछ बड़े हसीन और दिलफरेब झूठ जो बोले गए, उनसे किनारा करना होगा. स्वीकारना होगा कि समाज में सांप्रदायिकता है और किसी भी घटना पर तुरंत प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिए. जब न्यूज की शक्ल में एजेंडा चारों ओर फेंका जा रहा हो, यूट्यूब पर सैकड़ों लोग "असली समाचार चैनल" होने का दावा कर रहे हों, तो आपके पास जो पहुंच रहा है, उसे किसी भी रिलाएबल सोर्स से वेरिफाई करना चाहिए.  दोनों ही टीचर, चाहे जो भी हो, बच्चों के प्रति क्रूरता के अपराधी तो हैं ही, तो इन पर कार्रवाई सख्त होनी चाहिए, ताकि दूसरों को भी इससे सबक मिले. इसमें अपराध चाहे जिस वजह से हो और जिसने भी किया हो, विक्टिम तो बचपन ही है. 




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