कहते हैx, बिहार ने हमेशा से देश को राजनैतिक रास्ता दिखाया है. कुछ समय पहले तक राहुल गांधी इस चिंता से निकल नहीं पा रहे थे कि आखिर भाजपा की राजनीति की काट क्या हो सकती है. कर्नाटक की जीत के स्थानीय कारण थे और उसमें कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की कोई ख़ास भूमिका नहीं थी. जैसे ही बिहार सरकार ने जाति जनगणना करा कर, रिपोर्ट पेश कर दी, अचानक कांग्रेस समेत देश का समूचा विपक्ष कास्ट सेंसस की मांग जोर-शोर से करने लगा. हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम् के स्टालिन ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इसकी मांग की है और राहुल गांधी तो लगातार संसद से सड़क तक इस मांग को दोहरे जा रहे है. मानो, अब उन्हें ये बात समझ आ गयी है कि भाजपा के “धर्म” वाले फैक्टर से अगर लड़ना है तो “जाति” वाला फैक्टर ही अकेला विकल्प है. लेकिन, वे भूल रहे हैं कि इतिहास मंडल-2 के प्रणेता के तौर पर अगर किसी को पहचान देगा तो वह नीतीश कुमार और लालू यादव की जोड़ी ही होगी.
मंडल-2 का नेता कौन?
अभी एमपी चुनाव के लिए जारी लिस्ट को ले कर समाजवादी पार्टी-कांग्रेस के बीच जो जंग जारी हैं, उसे सिर्फ राजनीतिक स्टंट समझना भूल होगी. कांग्रेस ने अपने यूपीसीसी अध्यक्ष अजय राय को जिस तरह से अखिलेश यादव पर हमला करने की खुली छूट दे रखी है, यह “इंडिया” गठबंधन के लिए कहीं से भी ठीक नहीं कहा जा सकता. सीट शेयरिंग को ले कर आनाकानी होना सामान्य बात है, लेकिन इसे ले कर नेताओं के प्रति शब्दों की मर्यादा तक को ताक पर रख देने की गलती कांग्रेस के लिए भारी पड़ सकती है. राहुल गांधी को यह स्वीकार करना चाहिए कि इस वक्त उत्तर भारत से, ख़ास कर बिहार से, जिस नई मंडलवादी राजनीति की बयार बही है, उसका असर देशव्यापी होने वाला है और इसका क्रेडिट सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार और लालू यादव को जाता है. बिहार कास्ट सर्वे से जिस नए जातीय गौरव का बोध नीतीश कुमार ने आम आदमी को कराया है, भारतीय राजनीति में इसके दूरगामी असर होने वाले हैं.
राहुल गांधी को वीपी सिंह की राजनीति से यह सीखने की भी जरूरत है कि भले वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया लेकिन उत्तर भारत में उसके बाद जो नई लीडरशिप पैदा हुई वह ओबीसी जमात से आती थी. वीपी सिंह को भले सम्मान के साथ याद किया जाएगा लेकिन जनता ने अपना नेता मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, राम विलास पासवान, मायावती को ही बनाया. आगे भी ऐसा ही होगा. तो तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए राहुल गांधी जो मांग कर रहे हैं, वह ठीक हैं लेकिन अगर वह ये सोचते है कि इस मांग से वे ओबीसी ने सर्वमान्य नेता बन जाएंगे तो उनका सपना चकनाचूर होते देर न लगेगी. नेता तो नीतीश कुमार ही होंगे, नेता तो लालू यादव ही होंगे, नेता तो अखिलेश यादव या एम् के स्टालिन ही होंगे. हाँ, इस वाहिद मांग के जरिये राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ सकती है. इसके लिए भी उन्हें इन नेताओं पर निर्भर होना पड़ेगा, उन्हें यथोचित सम्मान देना होगा.
सीट शेयरिंग सिर्फ लोकसभा में ही क्यों
“इंडिया” गठबंधन अगर एक परिवार है तो फिर यह शर्त नहीं लादी जा सकती कि अमुक चुनाव में सीट शेयरिंग होगी और और अमुक चुनाव में नहीं. हालिया सपा-कांग्रेस विवाद इस वजह से भी है कि शायद कांग्रेस राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़ में खुद को इतना ताकतवर मानती है कि उसे अन्य दलों के सहयोग की दरकार नहीं है, लेकिन राजनीति इतनी सरल नहीं. सपा मध्य प्रदेश में चुनाव लड़ती रही है. 2018 के विधान सभा चुनाव में भी उसने बिजावर सीट जीती थी और 5 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी. ऐसे में इंडिया गठबन्धन के घटक के नाते बेहतर तो ये होता कि कांग्रेस सपा के साथ घोषित तौर पर सांझा चुनाव लड़ती और सीट शेयरिंग की जिम्मेवारी “इण्डिया” गठबंधन के सीनियर लीडर्स मिल कर करते.
जब आप भाजपा जैसी कद्दावर पार्टी से लड़ने चले हैं तो आपको अपनी ताकत को बिखेरने से रोकना ही होगा. दरअसल, यहीं पर राहुल गांधी का ओवरकॉन्फिडेंस आड़े आ रहा हैं. यहीं पर नीतीश कुमार, लालू यादव जैसे नेताओं की चुप्पी खल रही है. ज़रा सोचिये, अगर मौजूदा विधानसभा चुनावों की सीट शेयरिंग में “इंडिया” गठबंधन के इन नेताओं की भूमिका होती. कलेक्टिव एफर्ट्स और डिसीजन लिए जाते तो क्या अखिलेश यादव नीतीश कुमार की बात नकार देते या कि राहुल गांधी लालू यादव की बातों की अनदेखी कर देते. शायद नहीं और सबकुछ बहुत आसानी से निपट जाता. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर ये दोनों कद्दावर नेता खामोश क्यों है?
नीतीश की अनदेखी पड़ेगी महंगी
नीतीश कुमार इस वक्त राजनीति के जिस दौर में है, उसके बाद उनके लिए कोई बड़ी आंकाक्षा बाकी नहीं रह जाती. वे पीएम बनेंगे, बनना चाहते हैं, गठबंधन उन्हें इस पद के लिए स्वीकार करेगा, ये सारे सवाल इस वक्त बेतुके हैं. इस वक्त सबसे बड़ा सवाल और आकांक्षा नीतीश कुमार के लिए यही होगी कि जिस विपक्षी एकता की कवायद के लिए वे पिछले 2 साल से मेहनत कर रहे हैं, उस पर अगर आंच आती है, वो अगर कमजोर होता है तो उन्हें शायद इसका सबसे अधिक दुःख होगा. आज भी भाजपा के “पप्पू-पलटू” प्रोपेगेंडा के बीच, नीतीश कुमार एक ऐसे चेहरे हैं, जिनकी व्यक्तिगत छवि स्वच्छ है. रह गयी बात पीएम पद की, तो नीतीश कुमार खुद कह चुके हैं कि उनका लक्ष्य भाजपा को शिकस्त देना है न कि पीएम बनना. खैर, पीएम बनना किसी भी राजनेता का सपना हो सकता है और ऐसी आकांक्षा रखना कहीं से गलत भी नहीं है.
लेकिन, पद से इतर परिवर्तन की इस लड़ाई में नीतीश कुमार ने एक अगुआ की जो भूमिका निभाई थी, उस पर कांग्रेस की शायद नजर लग चुकी है. लेकिन कांग्रेस का यह लालच उसके लिए कहीं भारी न पड़ जाए. वैसे भी कहा गया है कि भारतीय संयुक्त परिवार में बड़े-बूढों को ही निर्णायक भूमिका में रहने देना चाहिए. राहुल गांधी चाहे जो सोचे, लेकिन इस वक्त भी विपक्षी एकता की धुरी नीतीश कुमार ही है और इस पोजीशन के लिए उनके पास नैतिक और वैचारिक ताकत भी है. इस मजबूत धुरी के कमजोर हो जाने, खामोश हो जाने का सीधा अर्थ “इंडिया” गठबंधन की नैतिक और वैचारिक ताकत का कमजोर हो जाना होगा.
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