रविवार को भारत ने बेल्जियम को 2-1 से हराकर जूनियर वर्ल्ड कप जीत लिया. पूरे टूर्नामेंट में भारतीय टीम चैंपियन की तरह खेली. फाइनल में भी मुकाबला बिल्कुल एकतरफा ही रहा. पहले दस मिनट तो ऐसा लगा जैसे बेल्जियम की टीम को अंदाजा ही नहीं लग पा रहा था कि मैदान में क्या हो रहा है. 2 गोल की बढ़त बनाने के बाद भारतीय टीम ने सूझबूझ भरा खेल भी दिखाया. डिफेंस लाइन में कमाल का प्रदर्शन किया. हालत ऐसी हो गई कि जिस बेल्जियम की टीम को काउंटर अटैक और पेनल्टी कॉर्नर में माहिर माना जाता है उसे भारतीय टीम ने हर तरह से मैदान में उन्नीस ही साबित किया.
इस जीत ने इस सवाल को खंगालने का मौका दिया कि क्या भारतीय हॉकी अब सही रास्ते पर आ गई है. सच्चाई ये है कि पिछले करीब दो दशक में भारतीय हॉकी विडंबना का शिकार रही है. पिछले 2-3 सालों को छोड़ दिया जाए तो हमारी टीम मैदान में कुछ ज्यादा बड़ा नहीं कर पाई. इसके अलावा वक्त बेवक्त कई विवाद हॉकी के खेल से चिपके रहे. अफसोसनाक है कि लंबे समय तक तो यही विवाद चलता रहा कि देश में इस खेल का नियंत्रण किसके पास रहेगा, भारतीय हॉकी फेडरेशन के पास या हॉकी इंडिया के पास. बड़ी मुश्किल से इस विवाद का निपटारा हुआ और तय हुआ कि देश में हॉकी का खेल हॉकी इंडिया चलाएगी. इसके बाद कभी पैसों की किचकिच कभी सुविधाओं का अभाव. इसी दौरान विदेशी कोचों का टीम के साथ आना जाना लगा रहा. कुल मिलाकर वो सारी अनियमितताएं इस खेल के साथ होती रहीं कि ये खेल ज्यादातर गलत वजहों से सुर्खियों में रहा.
मैदान के बाहर होने वाले गलत फैसलों का बुरा नतीजा सीधे सीधे खेल पर दिखने लगा. याद कीजिए 2008 का वो साल जब भारतीय टीम इतिहास में पहली बार बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालीफाई नहीं कर पाई. 2012 में भी हालात कुछ ऐसे ही रहे. भारतीय टीम ने लंदन ओलंपिक्स का टिकट तो हासिल किया लेकिन उसे आखिरी पायदान पर रहना पड़ा.
काफी उतार चढ़ाव के बाद आखिरकार अंधेरा छंटना शुरू हुआ. हॉकी इंडिया की भी तारीफ करनी होगी. जिसने खेल को बेहतर तरीके से संभाला. इसका नतीजा भी दिखने लगा. पिछले करीब 3 साल में भारतीय हॉकी से समय-समय पर अच्छी खबरें आने लगीं. एशियाई स्तर पर हमारे खिलाड़ियों ने खुद को ‘बेस्ट’ साबित किया. इसके अलावा विश्व स्तर पर भी लीग और चैपियंस ट्रॉफी जैसे टूर्नामेंट्स में हमारी टीम का प्रदर्शन काबिले तारीफ रहा. ऐसे में जूनियर खिलाड़ियों की जीत पर इसलिए भी बात होनी चाहिए क्योंकि यही खिलाड़ी आने वाले समय में भारत के लिए खेलेंगे. ऐसे में जिस स्तर का खेल इन खिलाड़ियों ने पूरे वर्ल्ड कप के दौरान दिखाया है वो इस तरफ इशारा कर रहा है कि खेल के अलग अलग ‘डिपार्टमेंट’ में हम कितना तैयार हैं. फिर बात चाहें आक्रमण की हो या डिफेंस की.
हरमनप्रीत सिंह, परविंदर सिंह, अजित पांडे, विकास दहिया, संता सिंह जैसे जूनियर खिलाडियों ने अपने खेल से इस बात को साबित किया कि वे यूरोपियन टीमों के खिलाड़ियों के मुकाबले हर तरह से बराबरी पर आ चुके हैं बल्कि नतीजे कहते हैं कि ये बेहतर हैं. आपको याद दिला दें कि पिछली बार 2001 में जब भारतीय टीम ने जूनियर वर्ल्ड कप जीता था तब उसी टीम में गगन अजित सिंह, जुगराज सिंह, दीपक ठाकुर, अर्जुन हलप्पा और देवेश चौहान जैसे खिलाड़ी थे. बाद में ये सभी खिलाड़ी सीनियर टीम के लिए खेले. बेवक्त हुई दुर्घटना को छोड़ दिया जाए तो उस वक्त जुगराज सिंह की गिनती दुनिया के सबसे बेहतरीन ड्रैग फ्लिकर के तौर पर होती थी. गगन अजित और दीपक ठाकुर की जोड़ी की तुलना लोग चैंपियन फुटबॉलर रोनाल्डो और रिवाल्डो जैसे खिलाड़ियों से करते थे. ये बताना भी जरूरी है कि एक बार से ज्यादा खिताब जीतने के मामले में भारत अब जर्मनी के बाद दूसरी टीम हो गई है.
अब जूनियर खिलाड़ियों ने फिर से वही आस बंधाई है. भारतीय हॉकी में ये नए दौर की शुरुआत है. ये खिलाड़ी इस खेल में देश का भविष्य बदलेंगे ऐसी उम्मीद है. देखा जाए तो ये भविष्य की सीनियर टीम के लिए एक तरह का ‘कोर ग्रुप’ तैयार हो गया है. जो आने वाले समय में भारतीय हॉकी को उसकी ऊंचाईंयों तक ले जाएगा. इस पूरे टूर्नामेंट में एक और बात साबित हुई. लखनऊ के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में जिस तरह से दर्शकों की भीड़ जमा थी उससे ये कहा जा सकता है कि हॉकी को लेकर लोगों का प्यार खत्म नहीं हुआ है. जरूरत है तो बस लगातार कुछ अच्छे नतीजों की.
ये लम्हा जूनियर टीम के कोच हरेंद्र सिंह के लिए भी बेहद खास है. जो एक खिलाड़ी के तौर पर अपने सपने पूरे नहीं कर पाए थे. लेकिन बतौर कोच उन्होंने लगातार अच्छे नतीजे दिए हैं. हरेंद्र सीनियर टीम के साथ भी काफी समय तक रह चुके हैं. ऐसे में उन्हें भी इस बात का अंदाजा अच्छी तरह है कि जूनियर टीम के स्टार को सीनियर टीम का स्टार कैसे बनाना है. बस, अब हॉकी को किसी की नजर ना लगे.