भारत-कनाडा के बीच तनाव, दिलचस्पी अमेरिका की ज़्यादा, रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख़ का असर तो नहीं
खालिस्तान समर्थक अलगाववादियों को प्रश्रय और शह देने के मसले पर भारत-कनाडा के बीच टकराव लंबे वक़्त से रहा है. हालांकि पहले यह टकराव उस हद तक कभी नहीं गया, जिससे द्विपक्षीय संबंधों पर कोई ख़ास प्रभाव पड़े. लेकिन इस बार कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या को लेकर जिस तरह से मुखर हैं, उससे भारत-कनाडा का आपसी संबंध सबसे बुरे दौर में पहुंच चुका है.
भारत-कनाडा के बीच बढ़ता तनाव
यह मसला भारत-कनाडा के द्विपक्षीय संबंधों के लिए नुक़सानदायक है, इसमें कोई दो राय नहीं है. इस मामले में अमेरिका की मुखरता ने पूरे घटनाक्रम को एक नया ही मोड़ दे दिया है. जस्टिन ट्रूडो ने 18 सिंतबर को कनाडा की संसद में खुल्लम-खुल्ला हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत से कनेक्शन को लेकर आरोप लगाए थे. उसके बाद से अमेरिका के कई वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से इस मामले में एक के बाद एक जिस तरह से बयान आ रहे हैं, वो भारत-अमेरिकी द्विपक्षीय संबंधों के लिए तो सही नहीं ही कहा जाएगा.
पूरे मामले पर अमेरिका की दिलचस्पी ज़्यादा
अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के रणनीतिक संचार समन्वयक जॉन किर्बी, उसके बाद भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने जिस तरह से प्रतिक्रिया देकर कनाडा के प्रति समर्थन ज़ाहिर किया है, भारतीय कूटनीति के लिए वो कतई सही नहीं है. इतना ही नहीं अब अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलीवन ने जिस अंदाज़ में कनाडाई प्रयासों का समर्थन किया है, उससे स्पष्ट है कि अमेरिका इस मामले में भारत को कोई रियायत देने वाला नहीं है.
कनाडा के साथ खड़ा दिख रहा है अमेरिका
जैक सुलीवन ने एक तरह से स्पष्ट कर दिया कि इस प्रकरण में अमेरिका अपने वैश्विक व्यापक रणनीतिक साझेदार भारत को कोई ख़ास छूट देने वाला नहीं है. उन्होंने कनाडा के प्रयासों का समर्थन करते हुए कहा है कि अमेरिका अपने सिद्धांतों के लिए अडिग रहेगा, चाहे इससे कोई भी देश प्रभावित क्यों नहीं होता हो.
कनाडा अमेरिका का पड़ोसी देश है और साथ ही कनाडा का तीन चौथाई से भी अधिक व्यापार अमेरिका के साथ ही होता है. एक तरह से अमीर देश कनाडा की अर्थव्यवस्था घरेलू मांग की पूर्ति के लिए बहुत हद तक अमेरिका पर निर्भर है. इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि पिछले तीन साल में अमेरिका ने भारत के साथ अपने संबंधों को नई ऊंचाई देने के लिए तमाम प्रयास किए. चाहे आर्थिक मोर्चा हो या फिर रक्षा और तकनीकी सहयोग का मसला, इस दौरान भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंधों को नया आयाम मिला है. दोनों देशों ने आगे बढ़कर आपसी रिश्ते की प्रगाढ़ता को नई ऊंचाई देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है.
संबंधों को प्रगाढ़ करते रहा है अमेरिका
मज़बूत होते संबंधों का ही परिणाम था कि इस साल जून के महीने में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा की थी. यह करीब 14 साल बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिका की राजकीय यात्रा थी. इससे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नवंबर 2009 में अमेरिका की राजकीय यात्रा पर गए थे.
फरवरी 2022 में रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हुआ था, उसके बाद से अमेरिका की ओर से लगातार भारत के साथ संबंधों की मज़बूती को लेकर लगातार बयान आ रहे हैं. व्हाइट हाउस, अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय पेंटागन और दूसरे तमाम विभागों से हर दिन ऐसा बयान आता था, जिसके माध्यम से अमेरिका जता रहा था कि अब उसकी विदेश नीति में भारत की कितनी ज़्यादा अहमियत है. उस दौरान अमेरिका की ओर से इतना तक कहा गया था कि अमेरिका के लिए भारत से बेहतर कोई और साझेदार हो ही नहीं सकता है.
भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार
आर्थिक संबंध के मोर्चे पर भारत और अमेरिका ने पिछले दो साल में वो ऊंचाई हासिल कर ली है, जिसके बारे में एक दशक पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता था. अमेरिका के साथ भारत का व्यापारिक संबंध 2020 से 23 तक में काफ़ी मजब़ूत हुए हैं. वित्तीय वर्ष 2021-22 और 2022-23 में अमेरिका हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा है. उससे पहले 2013-14 और 2017-18 के बीच चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था. 2020-21 में भी चीन ही हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था.
वित्तीय वर्ष 2022-23 भारत-अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार 128.55 अरब डॉलर तक पहुंच गया. भारत-अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार में 7.65% प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इससे पिछले वित्त वर्ष यानी 2021-22 में आपसी व्यापार 119.5 अरब डॉलर था. वहीं 2020-21 में ये आंकड़ा महज़ 80.51 अरब डॉलर था. जैसा कि इन आंकड़ों से साथ है पिछले दो साल में भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक रिश्ते जिस तरह से मजबूत हुए हैं, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया है. पिछले दो साल में आपसी व्यापार में 48 अरब डॉलर का इजाफा हुआ है.
सैन्य और तकनीकी सहयोग भी नए स्तर पर
आर्थिक संबंधों की तरह ही पिछले कुछ सालों में भारत-अमेरिका के बीच सैन्य और तकनीकी सहयोग भी नए स्तर को पार कर चुका है. अमेरिका के लिए रक्षा क्षेत्र में भारत बड़ा बाज़ार की तरह है, तो इस मोर्चे पर रूस के विकल्प के तौर पर भारत की नज़र अमेरिका पर है.
रक्षा क्षेत्र में रूस का विकल्प है अमेरिका
हम जानते हैं कि भारत पिछले कई साल से दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बना हुआ है. पिछले कुछ सालों से रूस ही वो देश है, जिससे हम सबसे ज्यादा हथियार खरीदते हैं. हम अपने आधे से भी ज्यादा सैन्य उपकरण के लिए रूस पर निर्भर रहते हैं. हालांकि यूक्रेन के साथ युद्ध शुरू होने के बाद रूस की नजदीकियां चीन के साथ तेज़ी से बढ़ी है. वहीं दूसरी ओर पिछले तीन साल में हमारा चीन के साथ संबंध लगातार बिगड़ते ही गए हैं.
इन हालातों में भारत के लिए ज़रूरी हो जाता है कि वो रक्षा क्षेत्र में विदेशी निर्भरता को कम करने के लिए प्रयास करें. साथ ही एक ही देश पर निर्भरता को कम करने के लिए नए विकल्पों पर फोकस करे. इस नीति के तहत ही भारत की नज़र अमेरिका और फ्रांस पर रही है.
स्थायी वैश्विक भागीदार के तौर पर परिभाषित
अतीत को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका भी अब खुलकर रक्षा क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग बढ़ाने को तैयार दिख रहा था. यहां तक कि भारत को रक्षा तकनीक के हस्तांतरण में भी अमेरिका की हिचक ख़त्म होते नज़र आ रही थी. जून 2016 में दोनों देशों ने आपसी संबंधों को 21वीं सदी में स्थायी वैश्विक भागीदार के तौर पर परिभाषित किया. रक्षा उपकरणों और प्रौद्योगिकी तक भारत की पहुंच आसान करने के लिए अमेरिका ने 2016 में भारत को एक प्रमुख रक्षा भागीदार के रूप में मान्यता दी. जुलाई, 2018 में अमेरिका ने भारत को STA-1 (Strategic Trade Authorisation-1) देश का स्टेटस प्रदान करने की घोषणा की थी. इस साल जनवरी के महीने में दोनों देशों ने iCET (इनीशिएटिव ऑन क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी) के माध्यम से एक नयी पहल की थी. इसका मकसद आधुनिक तकनीक और रक्षा सहयोग के मामले में आपसी सहयोग को नई ऊंचाई पर ले जाना है.
द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने पर रहा है ज़ोर
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का भी मानना रहा है कि दुनिया के किसी भी देश के साथ अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों की तुलना में भारत के साथ संबंध काफी उन्नत है. यही वजह है कि 21वीं सदी में अमेरिका-भारत की साझेदारी वैश्विक व्यवस्था के संतुलन के लिए भी काफ़ी मायने रखता है. अभी हाल ही में जी 20 समिट में शामिल होने के लिए बतौर राष्ट्रपति जो बाइडेन पहली बार नई दिल्ली की यात्रा पर आए थे और उस दौरान उन्होंने भारत की जमकर तारीफ़ की थी. पिछले कुछ सालों से जिस तरह से भारत और अमेरिका के संबंधों में घनिष्ठता देखी जा रही है, विदेश मामलों के जानकार इसे वैश्विक व्यवस्था में नई जुगल-बंदी के तौर भी पर देख रहे थे.
भारत-कनाडा तनाव पर अमेरिकी रुख़ चिंताजनक
भारत-कनाडा के बीच तनाव पर अमेरिका का जो रुख़ है, वो भारत के साथ ही विदेश मामलों के जानकारों के लिए अचरज भरा है. सवाल उठता है कि बतौर अध्यक्ष भारत की मेज़बानी में नई दिल्ली में आख़िर 9 और 10 सितंबर को आयोजित जी 20 समिट के बाद ऐसा क्या हुआ कि अमेरिका, कनाडाई प्रधानमंत्री के भारत के ऊपर लगाए गए आरोपों में इतनी दिलचस्पी ले रहा है. दरअसल अमेरिकी रवैये की जड़ें रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख़ से जुड़ी हो सकती हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध से हो सकता है संबंध
फरवरी 2022 में रूस और यूक्रेन के बीच टकराव और तनाव युद्ध के रूप में सामने आता है. भले सीधे तौर से अमेरिका इस युद्ध से नहीं जुड़ा है, लेकिन वो उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन या'नी NATO के माध्यम से लगातार यूक्रेन की मदद प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर से कर रहा है. उसके साथ ही कनाडा समेत कई पश्चिमी देश भी यूक्रेन का समर्थन करते हुए रूस के रवैये की लगातार निंदा करते रहे हैं. इस संघर्ष के लिए अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी देश रूस को ही ज़िम्मेदार मानते हैं. इन देशों ने रूस पर कई तरह के प्रतिबंध भी थोप रखे हैं.
भारत पर लगातार दबाव बनाने की कोशिश
जब से युद्ध शुरू हुआ था, अमेरिका समेत कई पश्चिमी देशों की मंशा थी कि भारत भी इस मसले पर खुलकर रूस की निंदा करे. बीच में तो अमेरिका के कुछ अधिकारियों ने तो इस तरह की चाहत भी ज़ाहिर कर दी थी कि भारत को NATO में शामिल हो जाना चाहिए. अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी देश चाहते थे कि संयुक्त राष्ट्र, जी 20 जैसे मंचों से अंतरराष्ट्रीय मंचों से रूस की निंदा में भारत भी शामिल हो. एक तरह से इन देशों की मंशा थी कि रूस-यूक्रेन युद्ध का बहाना बनाकर भारत को रूस विरोधी गुट का हिस्सा बनाने के लिए दबाव डाला जाए.
रूस के ख़िलाफ़ बोलने से बचता रहा है भारत
अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी देशों के विपरीत भारत हमेशा ही यूक्रेन युद्ध पर खुलकर रूस के ख़िलाफ़ बोलने से बचता रहा. ऐसा नहीं है कि भारत युद्ध के पक्ष में रहता है. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलग-अलग मंचों पर कहा भी है कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि नई समस्या का जनक होता है. भारत का ये भी मानना रहा है कि युद्ध मानवता के लिए सही नहीं है. इन सबके बावजूद भारत ने कभी भी खुलकर रूस का नाम नहीं लिया है. पिछले साल नवंबर में इंडोनेशिया के बाली में हुए जी 20 समिट में भी अमेरिका और पश्चिमी देशों की मंशा थी कि भारत इस मसले पर रूस के ख़िलाफ़ बोले. हालांकि भारत ने ऐसा नहीं किया.
भारत पर किसी दबाव का असर नहीं
संयुक्त राष्ट्र में भी जब-जब रूस के ख़िलाफ़ प्रस्ताव आया, भारत हमेशा इससे दूरी बनाने की अपनी विदेश नीति पर ही क़ायम रहा. रूस से कच्चे तेल के आयात पर पश्चिमी देशों की पाबंदी की भी अनदेखी करते हुए इस दौरान भारत ने रूस से जमकर क्रूड ऑयल की ख़रीद की. यहां तक कि पिछले कई महीनों से रूस ऐसा देश बना हुआ है, जहां से हम सबसे ज़्यादा कच्चा तेल ख़रीद रहे हैं. इसकी वजह से इस मोर्चे पर ओपेक भी रूस से बहुत पीछे हो गया है.
जी 20 समिट में भी भारत का दिखा दमख़म
जी 20 समिट के पहले ही दिन 9 सितंबर को दिल्ली घोषणापत्र स्वीकार किया गया. इसमें युद्ध का तो विरोध किया गया, लेकिन रूस का नाम लिए बग़ैर ऐसा किया गया. इसे भारत की बढ़ती ताक़त और कुशल कूटनीति के बेहतरीन उदाहरण के तौर पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में पहचान और सराहना मिली. कनाडा से जुड़ा पूरा प्रकरण ही जी 20 समिट के भव्य और सफल आयोजन के बाद शुरू होता है. यह भारत और कनाडा के बीच द्विपक्षीय मसला होना चाहिए था, लेकिन अमेरिका के रवैये से ऐसा प्रतीत होता है कि वो इसे अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियों वाला मसला बनाना चाह रहा है. यह एक तरह से जांच पूरी होने से पहले ही भारत की छवि को धूमिल करने के प्रयास जैसा प्रतीत होने लगा है.
कनाडा को लेकर अमेरिका से कोई बात छिपी नहीं
अमेरिका के लिए यह बात छिपी हुई नहीं है कि कैसे पिछले तीन दशक से खालिस्तान समर्थक आंदोलन को हवा देने के लिए कनाडा की सर-ज़मीन का इस्तेमाल किया जाता रहा है. इस अवधि में भारत कई बार इस मसले पर कनाडा से अपनी आपत्ति भी दर्ज कराते रहा है.
जिस खालिस्तान समर्थन अलगाववादी नेता और कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या 18 जून को कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के सरे में एक गुरुद्वारे के बाहर अज्ञात लोगों ने गोली मारकर कर दी थी, उसके ख़िलाफ़ इंटरपोल 2016 में ही खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी कर चुका था. भारत के लिए वो आतंकवादी था. भारत ने निज्जर को जुलाई 2020 में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत 'आतंकवादी' घोषित किया था. ख़ुद कनाडा में सरे की स्थानीय पुलिस ने निज्जर को आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने संदेह में 2018 में अस्थायी रूप से नजरबंद किया था. हालांकि बाद में उसे रिहा कर दिया गया था. हरदीप सिंह निज्जर प्रतिबंधित खालिस्तान टाइगर फोर्स का प्रमुख था और भारत के सर्वाधिक वांछित आतंकवादी में उसका नाम शामिल था.
बयानों से अमेरिका की मंशा पर सवाल
अमेरिका को इन तथ्यों की भलीभांति जानकारी है. इसके बावजूद अमेरिका का कनाडा के समर्थन में इस तरह से आना और बार-बार बयान देकर मामले को बड़ा बनाने की कोशिश करना, अमेरिका की मंशा पर सवाल खड़ा करने के लिए काफ़ी है. ऐसा लगता है कि रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत के रुख़ को देखते हुए पश्चिमी देशों का संयम अब जवाब देने लगा है. नई दिल्ली में हुए जी 20 समिट के बाद जिस तरह का रवैया अमेरिका अपना रहा है, उसे देखकर इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.
अमेरिकी यात्रा पर विदेश मंत्री एस जयशंकर
हालांकि अच्छी बात यह है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर नौ दिन की यात्रा पर अमेरिका में हैं. वे न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक सत्र में हिस्सा लेने के साथ ही ग्लोबल साउथ पर एक विशेष कार्यक्रम की मेज़बानी करेंगे. विदेश मंत्री संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस और संयुक्त राष्ट्र महासभा के 78वें सत्र के अध्यक्ष डेनिस फ्रांसिस से भी मुलाकात करेंगे.
यूएनजीए के 78वें सत्र से जुड़े कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर 27 से 30 सितंबर तक वाशिंगटन में रहेंगे. वहां एस जयशंकर अमेरिकी वार्ताकारों के साथ द्विपक्षीय बैठकें करेंगे. वाशिंगटन में एस जयशंकर अपने अमेरिकी समकक्ष एंटनी ब्लिंकन और अमेरिकी प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ वार्ता करेंगे. उम्मीद है कि इस दौरान कनाडा से तनाव के मसले पर भी उनकी अमेरिकी नेताओं और अधिकारियों से बात होगी. इसके बाद संभवत: अमेरिकी रुख़ में बदलाव देखने को मिले.
कनाडा से तनाव के मसले पर रहना होगा सतर्क
फिलहाल भारत को सतर्कता से क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है. पूरा प्रकरण किसी अंतरराष्ट्रीय साज़िश का भी हिस्सा हो सकता है, इसकी संभावना से कतई इंकार नहीं किया सकता है. कनाडा जिस तरह से पूरे प्रकरण को तूल देकर भारत के ख़िलाफ़ गोलबंदी या लामबंदी में जुटा है, यह एक तरह से विदेश नीति के तहत भारतीय कूटनीति के लिए परीक्षा की घड़ी है.
अमेरिका सुपरकॉप बनने की फ़िराक़ में
हम सब जानते हैं कि अमेरिका, रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद फिर से 80 के दशक की तरह सुपरकॉप वाली अपनी छवि बनाना चाहता है. उसका यह मंसूबा पूरा हो, इसके लिए ज़रूरी था कि भारत, यूक्रेन युद्ध के मामले में पश्चिमी देशों के सुर में सुर मिलाए. हालांकि भारत ने ऐसा नहीं किया. अमेरिका दो ध्रुवीय दुनिया के माध्यम से अपनी श्रेष्ठता बनाए रखना चाहता है, वहीं भारत बहुध्रुवीय दुनिया का हिमायती बन छोटे-से छोटे, अल्प विकसित और ग़रीब से ग़रीब देश को भी वैश्विक व्यवस्था में महत्व देने का पक्षधर है.
उसके अलावा पिछले कुछ सालों में वैश्विक व्यवस्था में भारत के रुतबे में तेज़ी से उछाल आया है. अब वैश्विक मुद्दा चाहे कोई भी हो, वैश्विक समस्या चाहे कोई भी हो, भारत वैश्विक नेतृत्व करने की स्थिति में है. यह वो पहलू है, जिसकी वजह से भारत कई देशों के लिए आँख की किरकिरी भी हो सकता है. कनाडा प्रकरण को इस संदर्भ से भी देखने-समझने की दरकार है और भविष्य में किसी भी देश के साथ भारत को द्विपक्षीय संबंधों की मज़बूती में इस पक्ष को ध्यान में रखने की ख़ास ज़रूरत है.
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