दिल्ली में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के रक्षा मंत्रियों की बैठक से इतर 27 अप्रैल को हुई वार्ता में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने चीन के अपने समकक्ष जनरल ली शांगफू को साफ संदेश दिया था कि बीजिंग द्वारा सीमा समझौतों के उल्लंघन ने 'द्विपक्षीय संबंधों के पूरे आधार को खत्म कर दिया है'. दोनों देशों में काम कर रहे पत्रकारों पर वहां की सरकारों द्वारा बंदिश लगाए जाने की पृष्ठभूमि में आया यह बयान आने वाले दिनों की भविष्यवाणी सरीखा था. आज, केवल महीने भर के भीतर, यह स्थिति आ चुकी है कि भारत से चीन में रिपोर्ट करने वाला और चीन के लिए भारत से रिपोर्ट करने वाला एक भी संवाददाता नहीं बच रहा है. दो पड़ोसी देशों के बीच भू-राजनीतिक तनाव में जाने-अनजाने बचे-खुचे पत्रकार घसीट लिए गए हैं.
तिब्बत की यात्रा है परेशानी की जड़
दोनों देशों के रिपोर्टर 2016 तक एक साल के वीजा पर अपना काम बड़े आराम से कर रहे थे. परेशानी तब शुरू हुई जब चीनी एजेंसी शिन्हुआ के तीन संवाददाता तिब्बती रिहाइश का दौरा करने गए. भारत सरकार ने कहा कि उन्होंने गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना यह दौरा किया है. इसकी सजा उन्हें देश से निष्कासित कर के दी गई. इसी के बाद से सभी चीनी संवाददाताओं को तीन महीने का वीजा दिया जाने लगा था.
इसकी प्रतिक्रिया में चीन ने 2017 में शिकायत की थी कि भारत ने अपने यहां स्थित चीनी पत्रकारों के लिए वीजा को तीन महीने कर दिया था, जो दोनों देशों में एक साल का होता है. इस साल 31 मार्च को आई रिपोर्ट के मुताबिक शिन्हुआ के एक रिपोर्टर को जब भारत छोड़ने को कहा गया, तब मामला बिगड़ गया. प्रतिक्रिया में चीन ने कार्रवाई की. उसने द हिंदू के बीजिंग संवाददाता सहित दो भारतीय पत्रकारों के वीजा को "फ्रीज" कर दिया. चीन की सरकार ने 6 अप्रैल, 2023 को बयान दिया कि उसका यह निर्णय भारत द्वारा चीनी पत्रकारों को निशाना बनाए जाने की प्रतिक्रिया में है. अप्रैल में चीन में केवल दो भारतीय संवाददाता बचे थे, जिन्हें चेतावनी दी गई थी कि अगर चीनी पत्रकारों के वीजा की एक साल की वैधता बहाल नहीं की गई तो जवाबी कदम उठाए जाएंगे. उसके बाद से एक और संवाददाता का वीजा फ्रीज हो चुका है.
दोनों देशों का हो रहा है नुकसान
जो इकलौता भारतीय पत्रकार चीन में बचा है, उसके संदर्भ में बीते बुधवार को चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने कहा है कि अब वह संख्या भी शून्य हो जाएगी. भारत ने पिछले ही महीने यहां तैनात दो चीनी पत्रकारों का वीजा आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया है. इस तरह वस्तुस्थिति यह है कि दोनों देशों में अब एक-दूसरे की मीडिया कवरेज का अकाल पड़ गया है. इसका अहसास होने में हालांकि भारत सरकार को काफी देर हो चुकी है, लेकिन चीन को अब तक इसका नुकसान समझ नहीं आया है. बीते शुक्रवार को विदेश मंत्रालय की नियमित ब्रीफिंग में प्रवक्ता अरिंदम बागची का बयान आया कि दोनों देश इस मसले को हल करने के लिए बातचीत कर रहे हैं. ये राजनीतिक मोर्चे पर बयानबाजी की हड़बड़ी में हुई चूक को दिखाता है. एक बार जब आप आधिकारिक रूप से ‘द्विपक्षीय संबंधों के पूरे आधार को खत्म कर देने’ की मुनादी कर देते हैं, फिर उसे दुरुस्त करने के लिए दूसरे पक्ष से अनुरोध करने, मांग करने या वार्ता करने का आपके पास कोई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता.
चीन ही नहीं, दूसरे मीडिया संस्थान भी जद में
इस संबंध में यह भी याद रखे जाने की जरूरत है कि केवल चीन नहीं, दूसरे मीडिया संस्थानों पर भी भारत सरकार का शिकंजा इस बीच कसा है. विशेष तौर से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित बीबीसी की डॉक्युमेंट्री आने के बाद उसके दफ्तरों पर पड़ा एजेंसियों का छापा और मानहानि का मुकदमा बताता है कि सरकार विदेश में अपनी छवि को लेकर कितना असुरक्षित महसूस करती है. इधर बीच सरकार ने प्रेस सूचना ब्यूरो में एक फैक्ट चेक की इकाई को खोलकर उसे पूरे अधिकार दे दिए हैं कि वह सरकार के लिहाज से किसी भी प्रतिकूल सामग्री को मीडिया से हटा सकता है. बीबीसी की डॉक्युमेंट्री से संबंधित सोशल मीडिया पर आई पोस्ट हटाई गई थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ छात्रों को भी हिरासत में लिया गया था जो इस फिल्म की स्क्रीनिंग करने जा रहे थे. इसके अलावा, नए आईटी कानून और उसमें किए गए संशोधन घरेलू डिजिटल मीडिया को पूरी तरह से नियंत्रित करने की मंशा से लाए गए हैं. ऐसे में समस्या केवल विदेशी मीडिया से सरकार को है, जिस पर उसका अब तक पूरा अख्तियार नहीं हुआ है.
भारत है लोकतांत्रिक गणराज्य, चीन से काफी अलग
यह भी समझे जाने की जरूरत है कि भारत घोषित तौर पर एक लोकतांत्रिक गणराज्य है जहां चुनी हुई सरकार देश को चलाती है. यहां की प्रशासनिक व्यवस्था चीन की तरह नहीं है, जहां एक पार्टी का राज है. इसलिए, किसी भी द्विपक्षीय मामले में ‘’जैसे को तैसा’’ वाला व्यवहार लोकतांत्रिक पद्धति नहीं हो सकती.
कुछ चीनी संवाददाताओं की गैर-पत्रकारीय गतिविधियों की जांच करने का अधिकार बेशक भारत सरकार को है, लेकिन उन्हें प्रतिबंधित करना ठीक नहीं कहा जाएगा. यह भी सच है कि चीनी मीडिया की भारत पर कवरेज काफी हद तक नकारात्मक रहती है, हालांकि जमीनी रिपोर्टें ज्यादातर विविधतापूर्ण रही हैं जो भारत के उन पक्षों को दिखाती हैं जिससे अधिकतर चीनी आमतौर पर अनजान हैं. इसी तरह चीन में काम कर रहे भारतीय पत्रकारों में भी कुछ पेशेवर कमियां हैं- पिछले साल भारतीय वेबसाइटों पर प्रकाशित चीन में तख्तापलट की फर्जी खबर ने कवरेज में जमीनी हकीकत के अभाव को उजागर किया था. इस किस्म की समस्याएं हालांकि पत्रकारिता की गुणवत्ता से ताल्लुक रखती हैं, इसलिए इसका असर पत्रकारों की द्विपक्षीय उपस्थिति पर कतई नहीं पड़ना चाहिए.
एक तकनीकी मसला जो इस टकराव के केंद्र में है, वो यह है कि चीन की सरकार विदेशी मीडिया प्रतिष्ठानों को सहायकों के अलावा चीनी पत्रकारों की भर्ती करने से रोकती है. इसके ठीक उलट, भारत में चीनी कर्मचारियों की अनुपस्थिति में भी शिन्हुआ और सीजीटीएन को भारत में यह छूट थी कि वे भारतीय पत्रकारों के साथ रिपोर्ट करना यहां से जारी रख सकते थे. पेशेवर सहयोग और स्वतंत्रता के मामले में चीन को भारत के इस माहौल की सराहना करनी चाहिए थी और अपने यहां भी बदलाव करने चाहिए थे, लेकिन जो हुआ है वह उल्टा और दुर्भाग्यपूर्ण है.
आज की दुनिया में सूचना एक अनिवार्य जीवन-तत्व है, जैसे खाना-पानी और दवाई, कपड़ा और रोजगार. इसलिए अपने भू-राजनीतिक तनावों और संघर्ष का शिकार सूचना प्रदाताओं यानी पत्रकारों को बनाना किसी के भी हक में नहीं है. निरंकुशता की होड़ में लगी दोनों देशों की सरकारों में जीत तो किसी की नहीं होनी है, हारना बेशक तय है क्योंकि सूचना का अभाव टकरावों को और बढ़ाएगा. इससे भी ज्यादा बुरा यह होगा कि दोनों देशों के लोगों के पास सूचना पाने का कोई स्वतंत्र माध्यम नहीं रह जाएगा, लिहाजा वे सरकारी सूचनाओं पर ही निर्भर होंगे. उग्र-राष्ट्रवाद के दौर में किसी सरकार का खुद पत्रकार बन जाना सबसे त्रासद होगा.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)