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आखिर चीन बाज क्यों नहीं आ रहा अपनी करतूतों से?

पिछले 60 साल से अरुणाचल प्रदेश पर कब्ज़ा करने की हसरत पाले हुए चीन को इस बार अपनी चालबाजी का भारतीय सेना की तरफ से माकूल जवाब मिला है. 9 दिसंबर को अरुणाचल के तवांग में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हुई झड़प के बाद हालांकि अब वहां हालात स्थिर हैं. लेकिन देसी भाषा में कहा जाये तो चीन एक ऐसा ढीठ मुल्क है जो मार खाकर भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला है.

कहते हैं कि सत्ता ताकत देती है लेकिन लगातार तीसरी बार मिलने वाली सत्ता से कुर्सी पर बैठा हुआ राष्ट्र प्रमुख इतना बौरा जाता है कि वह उस ताकत के बल पर पड़ोसी मुल्कों की जमीन पर कब्ज़ा करने को बच्चों का खेल समझने लगता है. ये अलग बात है कि इस बार तवांग में मुंह की खाने के बाद वो कुछ दिनों तक खामोश रहेगा लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि वो इसे कभी दोहरायेगा नहीं. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तीसरी बार देश की कमान संभालने के बाद अपनी नीति में सबसे बड़ा बदलाव ये किया है कि चीन अब विस्तारवाद की नीति पर आगे बढ़ रहा है. यानी, नेपाल, भूटान व भारत के हिस्सों पर कब्जा करने की रणनीति को अंजाम देगा.

रिपोर्ट्स के मुताबिक जिनपिंग ने 63 पन्नों की जो वर्क रिपोर्ट तैयार की है उसमें उन्होंने चीनी सेनाओं के लिए कुछ खास लक्ष्य तय कर दिए हैं. इसमें पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के केंद्रीय लक्ष्य को हासिल करने के साथ ही राष्ट्रीय रक्षा और सेना का और आधुनिकीकरण करना शामिल है. दरअसल, चीन को लेकर हमारे अतीत के शासकों ने जो गलतियां की हैं उसका अंजाम भारत को आज भी भुगतना पड़ रहा है और उसकी हरकतों से निपटने के लिए हर वक़्त मुस्तैद रहना एक बड़ी चुनौती बन गई है. देश को आजादी मिलने के करीब तीन साल बाद भारत ने चीन को मान्यता देकर राजनयिक संबंध तो स्थापित कर लिए लेकिन उस पर आंख मूंदकर भरोसा करना देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की एक बड़ी गलती के रूप में ही आज भी देखा जाता है.

गौरतलब है कि साल 1949 में माओत्से तुंग ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का गठन किया था और उसके बाद 1 अप्रैल 1950 को भारत ने इसे मान्यता दी और राजनयिक संबंध स्थापित किए. चीन को इस तरह प्राथमिकता देने वाला भारत पहला ग़ैर-कम्युनिस्ट देश बना था. लेकिन साल 1954 में भारत की तत्कालीन सरकार ने एक और बड़ी गलती ये की थी कि उसने तिब्बत को लेकर भी चीन की संप्रभुता को स्वीकार कर लिया. मतलब भारत ने मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है. उसी समय  'हिन्दी-चीनी, भाई-भाई' का नारा भी लगा. बात दें कि साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया था लेकिन 1954 में नेहरू ने तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान लिया. भारत की इस कमजोर कूटनीति का चीन ने न सिर्फ भरपूर फायदा उठाया बल्कि ये भी जताया कि दोनों देशों के बीच गहरी दोस्ती है. इसकी मिसाल ये है कि जून 1954 से जनवरी 1957 के बीच चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन लाई चार बार भारत के दौरे पर आए और अक्तूबर 1954 में नेहरू भी चीन गए.

हालांकि, 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला शुरू कर दिया और उसे अपने कब्जे में ले लिया. तिब्बत पर चीनी हमले ने पूरे इलाक़े की भौगोलिक राजनीति को को बदल कर रख  दिया. वैसे तो चीनी हमले से पहले तिब्बत की नज़दीकी चीन भारत से ज़्यादा थी लेकिन उस हमले के बाद आख़िरकार तिब्बत एक संप्रभु मुल्क नहीं रहा. ऐसा नहीं है कि चीन ने भारत की जमीन को कब्जाने की कोशिश कोई पहली बार की है. अपनी इस करतूत को अंजाम देने की शुरुआत तो चीन ने 1950 के दशक के मध्य में शुरू कर दी थी. साल 1957 में चीन ने अक्साई चीन के रास्ते पश्चिम इलाके में 179 किलोमीटर लंबी सड़क बना डाली थी. वहीं, सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों की पहली भिड़ंत 25 अगस्त 1959 को हुई थी. चीनी गश्ती दल ने नेफ़ा फ़्रंटियर पर लोंगजु में भारतीय सैनिकों पर हमला किया था. उसी साल 21 अक्टूबर को लद्दाख के कोंगका में भी दोनों सेनाओं के बीच भीषण गोलीबारी हुई थी.

चीन के इतिहास पर गौर करें तो उसकी सोच हमेशा कब्जाधारी की रही है. वो अपने पड़ोसियों की जमीनों को हथियाना चाहता है. नेपाल, भूटान, बांग्लादेश जैसे छोटे देशों को जहां वह अपने कर्ज के जाल में फंसा रहा है तो भारत पर जोर आजमाइश के लिए चीन ने अपनी सेना को मोर्चे पर लगाया हुआ है लेकिन हिंदुस्तान के सामने उसकी पीएलए हर मोर्चे पर फेल साबित हो रही है. विदेश नीति के जानकारों के मुताबिक तिब्बत पर अवैध कब्जे के बाद से ही चीन ने अपने 'फाइव फिंगर्स' प्लान को एक्टिव किया हुआ है. इसके तहत चीन सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, भूटान, नेपाल और लद्दाख को किसी भी कीमत पर कब्जाना चाहता है. ऐसे में गलवान के बाद तवांग में पीएलए की इस गुस्ताखी ने ये साबित भी कर दिया है. दरअसल माओ ने इन पांचों जगहों को अपने हाथ की पांच अंगुलियां और तिब्बत को हथेली बताया था. चीन माओ के बताये उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है.

दरअसल, चीन अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत के दावे पर हमेशा से सवाल उठाता रहता है. यही नहीं वो किसी भी भारतीय नेता के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर भी आपत्ति जताता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर गृह मंत्री अमित शाह के अरुणाचल दौरे को लेकर भी वह सख्त ऐतराज जता चुका है. वैसे चीन अरुणाचल प्रदेश में 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर अपना दावा करता है जबकि भारत कहता है कि चीन ने पश्चिम में अक्साई चिन के 38 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर रखा है. भारतीय नेताओं के दौरे पर चीन की आपत्ति को लेकर भारत के जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने कुछ महीने पहले ट्वीट कर कहा था, ''चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग तिब्बत गए तो भारत ने कुछ नहीं कहा था. यहां तक कि भारतीय सीमा से महज़ 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के बेस पर शी जिनपिंग एक रात रुके भी थे. इसे चीन की युद्ध तैयारी के रूप में देखा गया. भारतीय नेताओं के दौरे पर चीन की आपत्ति कोई हैरान करने वाली नहीं है.''

लेकिन तवांग में हुई हिंसक झड़प के बाद ये कहना कि हालात सामान्य हैं,एक बड़ी भूल होगी.इसलिये की चीन की तैयारियों और उसकी चालबाजी को देखते हुए अरुणाचल में भारत ने अपने लड़ाकू विमानों की तैनाती बढ़ा दी है. भारतीय वायुसेना के अधिकारियों के मुताबिक वायुसेना ने चीन की ओर से की गई अतिक्रमण की कोशिश के मद्देनजर इलाके में अपनी समग्र निगरानी बढ़ा दी है. अधिकारियों ने बताया कि मानक संचालन प्रक्रियाओं का पालन किया जा रहा है, जिसमें सुरक्षा संबंधी विशेष चिंताओं के मामले में लड़ाकू विमानों को तैनात करना शामिल है. चीन के इतिहास पर किताब लिख चुके माइकल शुमैन ने पिछले दिनों अपने एक ट्वीट में कहा था, ''चीन भारत के साथ रिश्ते बहुत ही ख़राब तरीक़े से हैंडल कर रहा है. यह चीन की विदेश नीति की बड़ी नाकामी हो सकती है.'' तवांग की घटना ने इसे सच साबित कर दिखाया है.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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