भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 से 24 जून के बीच अमेरिका की यात्रा पर रहेंगे. इस यात्रा की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है. इसके पीछे एक ख़ास वजह है. ऐसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार अमेरिका जा चुके हैं, लेकिन मई 2014 में देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद ये पहला मौका है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की राजकीय यात्रा पर होंगे. यानी पूरे 9 साल बाद ये अवसर आया है.


पीएम मोदी के इस राजकीय दौरे से ये तो पता चलता ही है कि अमेरिका और भारत के संबंध अपने सबसे शीर्ष स्तर पर है. इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिका का राजकीय दौरा 2009 में हुआ था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 23 से 25 नवंबर के बीच अमेरिकी की यात्रा की थी. करीब 14 साल बाद अमेरिका ने किसी भारतीय प्रधानमंत्री को राजकीय यात्रा के लिए बुलाया है. ये दिखाता है कि अमेरिका भारत के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिए कितना उत्सुक है. 


पीएम मोदी की अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014, 2015, 2016 (दो बार), 2017, 2019 और 2021 में अमेरिका गए थे. वे सितंबर 2014 और सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक में शामिल होने के लिए अमेरिका गए थे. इसे वर्किंग विजिट कहा गया था.   पीएम मोदी 2016 में 31 मार्च से एक अप्रैल के बीच परमाणु सुरक्षा समिट में हिस्सा लेने के लिए गए थे. फिर जून 2016 में भी पीएम मोदी अमेरिका गए. पीएम मोदी जून 2017 में भी अमेरिका गए थे, इसे भी ऑफिसियल वर्किंग विजिट कहा गया था. पीएम मोदी ने सितंबर 2019 में भी न्यूयॉर्क में यूएन महासभा की बैठक में हिस्सा लिया था और इसके साथ ही टेक्सास के ह्यूस्टन में Howdy Modi रैली में भी शिरकत की थी. इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सितंबर 2021 में भी अमेरिका का दौरा किया था, जिसमें यूएन महासभा की बैठक के अलावा क्वाड नेताओं के समिट में भी शामिल हुए थे.


भारत-अमेरिका संबंधों में जुड़ रहे हैं नए आयाम


इन पांचों में से किसी को अमेरिका की ओर से राजकीय यात्रा का दर्जा नहीं दिया गया था. राजकीय यात्रा पर व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनकी पत्नी जिल बाइडेन पीएम मोदी का स्वागत करेंगे. भारतीय प्रधानमंत्री के सम्मान में व्हाइट हाउस में राजकीय भोज भी होगा. इस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी संसद 'कांग्रेस' की संयुक्त बैठक को भी संबोधित करेंगे.


पीएम मोदी के इस पहले राजकीय यात्रा का संबंध पिछले कुछ सालों में बदलती भू-राजनीतिक व्यवस्था से भी है. ख़ासकर फरवरी 2022 में रूस-यूक्रेन के बीच शुरू हुए युद्ध से वैश्विक समीकरण तेजी से बदले हैं, चाहे आर्थिक संदर्भ हो या फिर कूटनीतिक संदर्भ हो.


अमेरिका की ओर से इस युद्ध की शुरुआत के बाद से ही भारत से संबंधों को और मजबूत करने पर लगातार ज़ोर दिया जा रहा है. पिछले कुछ महीनों से तो व्हाइट हाउस या कहें बाइडेन प्रशासन, अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय पेंटागन और दूसरे तमाम विभागों से हर दिन कोई न कोई ऐसा बयान जरूर आता है, जिसके जरिए ये बताने की कोशिश की जाती है कि अमेरिका के लिए भारत फिलहाल और भविष्य में सबसे महत्वपूर्ण साझेदार है.


ये इससे भी समझा जा सकता है कि जब से बाइडेन अमेरिकी राष्ट्रपति बने हैं, तब से उनके कार्यकाल में सिर्फ़ दो देशों से ही राष्ट्र प्रमुख या सरकारी प्रमुख राजकीय यात्रा पर वहां गए हैं. बाइडेन 20 जनवरी 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे. उनको राष्ट्रपति बने अगले महीने ढाई साल हो जाएगा. इस दौरान सिर्फ़ फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक योल ही अमेरिका की राजकीय यात्रा पर गए हैं और अब पीएम मोदी को ये मौका मिला है. 


रूस-चीन की बढ़ती दोस्ती पर नज़र


ऐसा नहीं है कि सिर्फ अमेरिका ही भारत से संबंधों को मजबूत करने पर ज़ोर दे रहा है. बदलते हालात को देखते हुए भारत भी यही चाहता है. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद चीन और रूस का एक-दूसरे के प्रति बढ़ता प्रेम भारत की विदेश नीति को ने सिरे से भी सोचने पर मजबूर करता है. यहीं वजह है कि भारत न सिर्फ अमेरिका से बल्कि पश्चिम के बाकी देशों और अरब मुल्कों के साथ अपने संबंधों को बढ़ा रहा है. ये राष्ट्रीय और कूटनीतिक हित के नजरिए से भी वक्त की जरूरत है.


रक्षा जरूरतों के लिए रूस पर निर्भरता


रूस, भारत का पारंपरिक दोस्त रहा है. इसके साथ ही भले ही पिछले 3-4 साल से चीन के साथ हमारा संबंध बेहद खराब दौर में हैं, लेकिन आर्थिक नजरिए से भारत के लिए बीजिंग काफी महत्व रखता है.


भारत 2018 से 2022 के बीच दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बना हुआ है. हम अपने आधे से भी ज्यादा सैन्य उपकरण के लिए रूस पर निर्भर रहते हैं. हालांकि भारत के लिए हथियारों के आयात में रूस की हिस्सेदारी में कमी आई है. 2013 से 2017 के दौरान रूस की हिस्सेदारी 64 फीसदी थी, जो 2018 से 2022 के बीच घटकर 45% तक आ गई है.


रक्षा हथियारों और सैन्य उपकरणों को लेकर रूस पर इस कदर की निर्भरता को कम करना इसलिए भी जरूरी है कि यूक्रेन के साथ युद्ध के बाद रूस से भारत को टैंक और अपने जंगी जहाज के बेड़े को मेंटेन करने के लिए जरूरी कल-पुर्जे मिलने में देरी हो रही है. रूस से एयर डिफेंस सिस्टम की डिलीवरी में भी देरी हो रही है. 


सैन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए हालांकि भारत रक्षा क्षेत्र में तेजी से आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम उठा रहा है, लेकिन अभी इस लक्ष्य को पाने में काफी लंबा सफर बाकी है. ऐसे में चीन के साथ रूस की गहरी दोस्ती से भविष्य में भारत के लिए मनचाहे हथियारों को रूस से हासिल करना उतना आसान नहीं रहने वाला है, इसकी भी गुंजाइश बन सकती है. इस नजरिए से भारत के लिए अमेरिका और फ्रांस जैसे पश्चिमी देश बेहतर विकल्प साबित हो सकते हैं. ऐसे भी रूस के बाद फिलहाल फ्रांस ही भारत की रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से पिछले 5 साल से सबसे ख़ास देश है.


रूस-चीन की मिल रही है मानसिकता


रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर जिस तरह से भारत का रवैया रहा है और जिस तरह से चीन का रवैया रहा है, दोनों में काफी अंतर है. चीन ने खुलकर रूस का साथ दिया है, जबकि भले ही भारत इस मसले पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ खड़ा नहीं रहा है, लेकिन हमेशा से ये कहते रहा है कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. मई में जब पीएम मोदी G7 की बैठक में हिस्सा लेने जापान के हिरोशिमा गए थे, तो उस वक्त उनकी यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की से मुलाकात और वार्ता हुई थी. उस वक्त भी पीएम मोदी ने कहा था कि रूस-यूक्रेन के युद्ध का हल सिर्फ और सिर्फ बातचीत और कूटनीति के जरिए ही निकाला जा सकता है.


दूसरी तरफ इस दौरान चीन लगातार रूस के साथ अपने सैन्य और आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने में जुटा रहा. यूक्रेन के साथ युद्ध के बाद दोनों देश और भी करीब आए हैं. इस साल मार्च में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मॉस्को का दौरा किया था और घोषणा की थी कि दोनों देश दोस्ती के नए युग में प्रवेश कर रहे हैं. चीन की ओर से यूक्रेन युद्ध को लेकर कभी भी रूस के रवैये की निंदा नहीं की गई. यहां तक कि चीन ने उसके साथ सैन्य अभ्यास बढ़ाने पर ही ज़ोर दिया है. रूस और चीन की ओर से लगातार जिस तरह के बयान आ रहे हैं, उससे साफ जाहिर है कि भविष्य में रूस-चीन की दोस्ती और वैश्विक मामलों पर उनके बीच आपसी तालमेल और ज्यादा बढ़ेगा.


चीन से लगातार बिगड़ रहे हैं संबंध


चीन हमारा पड़ोसी देश है. उसके साथ दशकों से सीमा विवाद है. लेकिन जून 2020 में गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हाथापाई और हिंसक झड़प के बाद रिश्ते लगातार खराब ही हुए हैं. भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तो इतना तक कह दिया है कि चीन के साथ भारत का संबंध अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गया है. इन सबके बावजूद चीन की अहमियत भारत के लिए व्यापारिक नजरिए से काफी ज्यादा है. 


चीन पर कम करनी होगी आयात निर्भरता


अमेरिका के बाद 2022-23 में चीन ही भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. लेकिन इसके बावजूद आयात के मामले में भारत की निर्भरता चीन पर पिछले 15 साल से सबसे ज्यादा है. 2022-23 में भले ही अमेरिका से कारोबार हमने सबसे ज्यादा किया था, लेकिन इस अवधि में हमने अमेरिका से करीब दोगुना आयात चीन से करना पड़ा था.  पिछले 15 साल से भारत के आयात का सबसे बड़ा स्रोत चीन ही है. चीन 2013-14 से लेकर 2017-18 तक और फिर 2020-21 में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था.


भारत-चीन के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि आयात पर निर्भरता की वजह से आपसी व्यापार चीन के पक्ष में है. जबकि फिलहाल सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार अमेरिका के मामले में ये भारत के पक्ष में है. हम अमेरिका से जितना आयात करते हैं, उससे बहुत ज्यादा निर्यात करते हैं. 


आयात को लेकर चीन के विकल्प पर फोकस


चीन पर आयात को लेकर निर्भरता एक ऐसा पहलू है, जिसका समाधान भारत नए विकल्पों को खोज कर ही निकाल सकता है. सीमा विवाद के साथ ही हिंद महासागर में चीन के विस्तारवादी रुख को देखते हुए भारत को जल्द ही आयात के लिए चीन पर निर्भरता को कम करना होगा. यही वजह है कि भारत, अमेरिका के साथ ही यूरोप के देशों और अरब देशों में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ अपने रिश्तों को बेहतर करने में लगा है.


पिछले कुछ साल से रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों ही लगातार अपने आक्रामक रवैये और विस्तारवादी रुख को लेकर दुनिया के सामने खुलकर आए हैं. इंडो पैसिफिक रीजन में चीन जब भी कोई हरकत करता है या कहीं सैन्य अड्डा बनाने की कोशिश करता है, तो  रूस की ओर से कभी भी चीन के खिलाफ कोई बयानबाजी नहीं होती है. यहां तक कि भारत के साथ अच्छी दोस्ती होने के बावजूद रूस ने  पिछले तीन साल में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीन की यथास्थिति को बदलने की एकतरफा कोशिशों को लेकर कभी भी खुलकर विरोध नहीं जताया है. वहीं दूसरी तरफ अमेरिका और कई पश्चिमी देशों ने इस मसले पर खुलकर भारत के पक्ष में बयान दिए हैं.


यूरोपीय देशों से मजबूत होते संबंधों से लाभ


अमेरिका के साथ ही भारत यूरोपीय देशों के साथ भी रिश्ते तेजी से बढ़ा रहा है. पिछले महीने स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में  ईयू इंडो-पैसिफिक मिनिस्ट्रियल फोरम की बैठक हुई थी. इसमें विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट किया था कि भारत और यूरोपीय संघ के बीच के जुड़ाव बहुध्रुवीय दुनिया के लिए बहुत जरूरी है. साथ ही उन्होंने यूरोपीय संघ के साथ नियमित और सार्थक बातचीत को भी बेहद जरूरी करार दिया था.


भारत, फ्रांस के साथ ही यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी के साथ भी  संबंधों को मजबूत कर रहा है. फरवरी में जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज ने भारत का दौरा भी किया था, जिसमें दोनों देशों के बीच सामरिक गठजोड़ को मजबूत करते हुए रक्षा और व्यापार सहयोग को बढ़ाने पर सहमति बनी थी.  


चीन का विकल्प बन सकते हैं यूरोपीय देश


चीन के साथ आयात पर निर्भरता को कम करने के लिहाज से जर्मनी, नीदरलैंड्स जैसे यूरोपीय देश भारत के लिए मददगार साबित हो सकते हैं. यही वजह है कि भारत चाहता है कि उसका यूरोपीय संघ के साथ जल्द मुक्त व्यापार समझौता हो जाए. इस मकसद से करीब 9 साल के बाद दोनों पक्षों के बीच पिछले साल जून में  मुक्त व्यापार समझौता (FTA) पर वार्ता फिर से शुरू हुई थी. ये वो वक्त था, जब रूस का यूक्रेन से युद्ध शुरू हो चुका था और चीन, भारत को सीमा विवाद में उलझाए रखने के लिए तमाम कोशिशों में जुटा था. ऐसे भी यूरोपीय संघ, अमेरिका और चीन के बाद भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है.


भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते को लेकर पांचवें राउंड की वार्ता 12 से 16 जून के बीच में ब्रसेल्स में निर्धारित है. उम्मीद है कि इस साल के आखिर तक भारत और यूरोपीय संघ के बीच ये करार हो जाएगा और ऐसा हो जाता है तो निकट भविष्य में आयात को लेकर चीन पर निर्भरता कम करने में काफी मदद मिलेगी. 


हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन पर दबाव बनाना जरूरी


भारत अब ये भी चाहता है कि इंडो-पैसिफिक रीजन में चीन के रुख को लेकर यूरोपीय देश भी सीधे दखल दें और ऐसा तभी संभव है जब भारत, रूस की तरह ही यूरोप के बाकी देशों के साथ भी अपने संबंधों को दोस्ती के स्तर पर ले जाए. इंडो पैसिफिक रीजन में संतुलन बनाने के लिहाज से भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के क्वाड समूह से काम नहीं चलने वाला. इसमें यूरोप के देशों की भी भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है. यूक्रेन युद्ध के बाद रूस-चीन की बढ़ती दोस्ती और बाकी पश्चिमी देशों के साथ रूस के बिगड़ते रिश्तों से ये और भी जरूरी हो गया है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्रों में अपने हितों पर आंच नहीं आने देने के लिए भारत को पश्चिमी देशों के साथ संबंधों को नया आयाम देना होगा. पिछले कुछ वक्त से ऐसा दिख भी रहा है.


अरब देशों के साथ बेहतर होते रिश्ते


भारत अरब देशों के साथ भी अपने संबंधों को लगातार बेहतर कर रहा है. उसके पीछे भी एक बड़ी वजह रूस और चीन के बीच बढ़ती जुगलबंदी है. ये सही है कि पिछले 8 महीने से भारत को सबसे ज्यादा कच्चा तेल रूस से हासिल हो रहा है, जो पहले ओपेक के देशों से मिलता था. इतना ही नहीं मई के महीने में रूस से सस्ते कच्चे तेल का आयात रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया. रूस से कच्चे तेल के आयात का आंकड़ा सऊदी अरब, इराक, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका से सामूहिक रूप से खरीदे गए तेल के आंकड़ों से  भी ज्यादा रहा. भारत के कच्चे तेल के आयात में रूस की हिस्सेदारी 42% हो गई है. वहीं ओपेक की हिस्सेदारी घटकर 39% हो गई है. 


यूक्रेन युद्ध के बाद क्या होगा रूस का रुख?


यूक्रेन युद्ध की इसमें बहुत बड़ी भूमिका रही है. इस युद्ध के शुरू होने से पहले भारत के कच्चे तेल के आयात में रूस की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम थी. हालांकि अमेरिका और बाकी पश्चिमी देशों की ओर से तमाम पाबंदी की वजह से और युद्ध पर हो रहे खर्च की भरपाई के लिए रूस की ये मजबूरी थी कि वो भारत को कम कीमत पर कच्चा तेल मुहैया कराए. भारत ने भी इस मौके का भरपूर फायदा उठाया. एक वक्त था जब  भारत में ओपेक देशों से  90 फीसदी कच्चे तेल का आयात होता था. भारत के साथ ही चीन भी बड़े पैमाने पर रूस से कच्चे तेल खरीद रहा है.


इस बीच ये संभावना बनी रहेगी कि जब यूक्रेन युद्ध खत्म हो जाएगा और रूस की अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगेगी, तो वो फिर से कच्चे तेल के मामले में भारत के साथ अपनी शर्तों पर बार्गेन करने की स्थिति में होगा. भविष्य की आशंका को देखते हुए भारत के लिए जरूरी है कि वो अरब देशों के साथ संबंधों को और बेहतर करे. कच्चे तेल के साथ ही द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक हितों से जुड़े दूसरे मुद्दों के लिए भी ये ज्यादा जरूरी है.  


चीन को साधने में अरब देशों की भूमिका


चीन के साथ अमेरिका के संबंध अब उतने अच्छे नहीं रह गए हैं. पिछले कुछ सालों में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक के साथ ही व्यापारिक रिश्ते भी काफी बिगड़े हैं. अमेरिका भी चाहता है कि खाड़ी देशों में अब भारत को ज्यादा महत्व मिले. मई की शुरुआत में भारत, अमेरिका और यूएई के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान के साथ मुलाकात हुई थी. इसे मध्य-पूर्व में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिहाज से काफी अहम माना जा रहा है.


अरब देशों के बीच दो साल से माहौल बदल रहा है. एक तरह से कहें तो पुरानी दुश्मनी को भूलकर अरब देश साथ आ रहे हैं. सऊदी अरब और ईरान की नजदीकियां और सीरिया का फिर से अरब लीग में शामिल किया जाना इसी बात का संकेत देता है. ऐसे में पश्चिमी एशियाई देशों में हो रहे उथल-पुथल में भारत अपने कूटनीतिक हितों को नजरअंदाज नहीं कर सकता है.


एक वक्त था कि भारत नहीं चाहता था कि इन देशों में अमेरिका की दखलंदाजी बढ़े. लेकिन  जब 2021 में भारत I2U2 में शामिल हुआ, तो उसी वक्त नई दिल्ली की ओर से ये संकेत दे दिया गया था कि अब अरब देशों के साथ समीकरणों को साधने में भारत को अमेरिका के साथ साझेदारी से कोई गुरेज नहीं है. I2U2 में भारत और अमेरिका के साथ इजरायल और यूएई शामिल हैं.  इसके जरिए भारत ने ये भी जता दिया कि अब वो इजरायल के साथ खुलकर दोस्ती दिखाने से भी पीछे नहीं हटेगा. पहले भारत का झुकाव इजराइल के दुश्मन देश फिलिस्तीन की ओर ज्यादा रहता था.


बहुध्रुवीय दुनिया के हिसाब से विदेश नीति


भारत के लिए जरूरी है चीन और पाकिस्तान दोनों समस्या बन चुके हैं. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की इन दोनों देशों के साथ नजदीकी रही है. लेकिन अब भारत के लिए जरूरी हो गया है कि चीन और पाकिस्तान को साधने के लिए वो सऊदी अरब और यूएई दोनों के साथ रिश्तों को और मजबूत बनाए. यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरब के इन दो महत्वपूर्ण देशों के साथ साझेदारी को नया आयाम देने पर काम किया है.


इसके साथ ही भारत, फ्रांस और यूएई के साथ त्रिकोणीय साझेदारी पर भी तेजी से काम कर रहा है. ये दिखाता है कि यूरोपीय देश और अरब देश के साथ मिलकर भारत अब नए समीकरणों को तलाशने पर भी काम करने की दिशा में अपनी विदेश नीति को आगे बढ़ा रहा है. कुल मिलाकर ये जरूर कहा जा सकता है कि अमेरिका के साथ ही जिस तरह से भारत बाकी पश्चिमी देशों और अरब के देशों के साथ रिश्तों को मजबूत करने में जुटा है, वो महज़ इत्तेफाक नहीं है, बल्कि उसके पीछे के कई कारणों में से प्रमुख कारण रूस-चीन के बीच मजबूत होती दोस्ती की गांठ भी है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]