समाज का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि संस्कृति को परफॉर्मिंग आर्ट यानी नृत्य, गीत, संगीत तक ही समेटने की कोशिश की जाती है. संस्कृति शब्द अपने आप में इतना विराट है कि इसमें अगर भोजन की बात करें तो भोजन-संस्कृति, पहनावे की बात करें तो वस्त्र-संस्कृति और बाकी कलाएं तो हैं ही. जी20 के विशेष संदर्भ में जब हम संस्कृति की बात करें तो भारत ने इस बार पूरी ठसक और धमक के साथ अपनी संस्कृति का प्रदर्शन किया है. वैसे, जी20 का जो स्वरूप और चार्टर है, वह आर्थिक मामलों तक ही महदूद है और चीन ने इसी आधार पर यूक्रेन-रूस युद्ध का जिक्र करने का विरोध भी किया था. पहली बार भारत ने अपने कल्चर को चार्टर में ही जोड़ने का काम किया. यह काम किसी पेपर में जोड़कर नहीं किया गया, लेकिन जब आप ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात करते हैं, जब आप 37 पेज के घोषणापत्र की शुरुआत ही इसी से करते हैं, आपके बैकड्रॉप में जब सुबह कोणार्क का सूर्य मंदिर और शाम में नालंदा के भग्नावशेष हों, तो आपकी सांस्कृतिक पैकेजिंग और मार्केटिंग वैसे ही हो जाती है. 


दुनिया एक परिवार है


एक बात और गौर करने की है. हम आज ‘ग्लोबल विलेज’ की बात करते हैं, लेकिन सनातन तो उससे भी एक सोपान आगे बढ़ वसुधा यानी पूरी दुनिया को एक कुटुंब यानी परिवार समझने और बरतने की बात करता है. हां, इस धारणा को भी समाप्त करने की जरूरत है कि सनातन और भारतीय अलग हैं. हमें समझना होगा कि ऐसा नहीं कि सनातन किसी धर्म विशेष की बात करता है और भारतीय संस्कृति इस देश की संस्कृति है. जो सनातनी संस्कृति है, वही इस देश की संस्कृति है. इसे नकारने की ही पिछले सात दशकों से राजनीति की गयी और इस बार जी20 के माध्यम से इसी को सुधारा गया है. जी20 में अर्थ-व्यापार की जितनी बातें हैं, वे पिछले 17 सम्मेलनों में हुआ, इस बार विशेष यह हुआ है कि भारतीय संस्कृति को खान-पान या कला के स्तर से भी देखा गया है.   



संस्कृति को दिखाना राजनीति नहीं


चीन ने जब यह कहा कि भारत अपनी संस्कृति दूसरे देशों पर थोपना चाहता है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’तो संस्कृत है और वह संयुक्त राष्ट्र की भाषा नहीं तो वह तो अपना काम कर रहा था, लेकिन जो घरेलू आलोचक हैं, उन पर हंसी और दया दोनों आती है. वे चीन की इस लाइन को रिपीट कर ‘राजनीति के सनातनीकरण’ या सनातन के राजनीतिकरण की बात कर रहे हैं, वे देश का नुकसान कर रहे हैं. वैसे, तकनीकी तौर पर भी देखें तो ‘भारत मंडपम्’ की तैयारी तो 2017 से हो रही थी, तो क्या इस सरकार के नुमाइंदों को यह सपना आया था कि 2023 में जी20 का समिट होगा और वहीं होगा? क्या कोणार्क के सूर्य-मंदिर और नालंदा के भग्नावशेष राजनीति हैं, क्या प्राचीन वैदिक वाद्ययंत्रों से लेकर जनजातीय कला और यंत्रों का प्रदर्शन राजनीति है, अगर जल बहार, जलतरंग, विचित्रवीणा, सरस्वती वीणा जैसे वाद्ययंत्र बज रहे हैं तो यह राजनीति है, दिलरुबा, ढंगली, सुंदरी जैसे लोकवाद्यों और लोकनृत्य का आनंद अगर विदेशी मेहमान ले रहे हैं तो क्या यह राजनीति है, नटराज की नृत्य मुद्रा क्या राजनीति है, भारत को भारत के नाम से पुकारा जाना क्या राजनीति है, 26 पैनल्स के माध्यम से ‘वॉल ऑफ डेमोक्रेसी’ के बहाने भारत के 5000 वर्षों के इतिहास को बताना क्या राजनीति है, ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ को पारिभाषित करना क्या राजनीति है, वैदिक सभ्यता से लेकर रामायण-महाभारत, बौद्ध-जैन धर्म, महाजनपद, कौटिल्य, पाल साम्राज्य, लखीमपुर के ताम्रपत्र, तमिलनाडु के प्राचीन शहर, छत्रपति शिवाजी इत्यादि को दिखाना क्या राजनीति है? दरअसल, सात दशकों तक भारत की संस्कृति को छिपाना और दिल्ली-आगरा तक महदूद रखना ही राजनीति था. 



‘सॉफ्ट पावर’ के जरिए भारत की धमक


भारत कभी भी आक्रामक नहीं रहा, कभी दूसरे देशों को गुलाम नहीं बनाना चाहा. दुनिया जीतने की तो बात दूर है, लेकिन हां सनातन अपनी महक अब दुनिया में फैला रहा है. सनातन का मूल स्वभाव विस्तारवादी नहीं रहा, क्योंकि वह खुद अनंत है, उसे विस्तार की जरूरत नहीं. हां, देशी भाषा में कहा जाता है कि जिसकी अपने घर-परिवार में इज्जत नहीं, उसकी कहीं भी इज्जत नहीं है. दुनिया के किसी हिस्सें में देखिए तो सनातनी मूल्य किसी न किसी रूप में मौजूद है. अब भारत चूंकि अपनी संस्कृति को घर में ही सम्मान दे रहा है, उस पर गौरवान्वित है, तो विदेशों में भी जाहिर तौर पर उसकी इज्जत बढ़ रही है. जब आप देरंडसंहिता की 32 योगमुद्राओं को प्रदर्शित करते हैं तो पूरे विश्व के फिटनेस की, एक स्वस्थ दुनिया की कल्पना करते हैं. जब आप ‘मिलेट्स’ को महर्षि नाम देते हैं, तो पूरे विश्व के कल्याण की, अच्छे भोजन की कामना करते हैं. 


रात्रिभोज में जब नालंदा को आप दिखाते हैं, तो यह चर्चा भी जरूर ही हुई होगी कि वे भग्न-अवशेष किसके और क्यों हैं? तो, इसका मतलब ये है कि भारत अब अपने सत्य को छिपाता नहीं है, ना ही उस पर मौन रहता है. भारत अपने योग और आयुर्वेद की मार्फत पूरी दुनिया को अपनी धरोहर और संस्कृति से परिचित करवा रहा है. अब भारत की विदेश नीति जहां ‘अपने हितों’ को पहले क्रम पर रखती है, वहीं वह दुनिया को अपने खजाने से भी परिचित करवा रहा है. आत्मविश्वस्त और बुलंद भारत अब अपनी सांस्कृतिक पहचान पर इतराता है और उसे साझा करता है. वैसे भी कहा गया है-
कौन सी बात कहां, कैसे कही जाती है, 
हो सलीका तो हर बात सुनी जाती है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]