जुलाई 2021 में अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटाईं और 15 अगस्त तक तालिबान ने पूरी तरह वहां अपना कब्जा जमा लिया. उसका परिणाम यह हुआ कि अब्दुल गनी की सरकार ने जो बहुतेरे देशों में राजदूत और दूतावास के कर्मचारी नियुक्त किए थे, उनके साथ दुविधा हो गयी. उनको न तो तालिबान ने रिकग्नाइज किया, न ही वे तालिबान को मान्यता देते थे. पिछले दो-ढाई वर्षों में स्थिति ये हुई कि चूंकि भारत सरकार ने तालिबानी कब्जे को मान्यता नहीं दी थी, इसलिए गनी सरकार के नियुक्त कर्मचारियों को पहले की तरह फंक्शन करने दिया. सच पूछिए तो, दूतावास चलाने के लिए भारत सरकार ने मौद्रिक मदद भी की. अन्य कई देशों में भी इसी तरह की स्थिति बनी हुई थी.


भारत के हित स्थिर अफगानिस्तान में


पिछले छह महीने में यह डेवलपमेंट हुआ है कि भारत सरकार ने जून में एक तकनीकी टीम को काबुल भेजा है. वह तकनीकी टीम काबुल में दूतावास स्थापित करने के पहले की तैयारी (प्री-एंबैसी इस्टैब्लिशमेंट) कर रही है. चीन ने वहां हाल ही में दूतावास खोल लिया है और उसकी विस्तारवादी आक्रामक नीति से हम सभी परिचित हैं. भारत ने हालांकि यह कहा है कि वह संयुक्त राष्ट्र के फैसले का इंतजार करेगा. अगर यूएन तालिबान को मान्यता देती है, तो भारत विचार करेगा. भारत ने लेकिन ट्रैक टू डिप्लोमैसी शुरू कर दी है. उसने भविष्य की सोचते हुए एक तरह से तैयारी शुरू कर दी है. भारत की सोच यह है कि अगर छह महीने या साल भर बाद यूएन से मान्यता मिल जाए, तो स्वाभाविक तौर पर बदलाव की प्रक्रिया की जा सके. दूसरा पक्ष यह है कि अफगान एंबैसी के वो स्टाफ (जो गनी सरकार ने नियुक्त किए थे) अब धीरे-धीरे यूरोप के देशों में शरण ले रहे हैं. इस साल जून से ही अफगानी राजदूत दिल्ली में नहीं हैं. वह अमेरिका में पाए जा रहे हैं. गनी सरकार के अधिकांश नियुक्त स्टाफ धीरे-धीरे भारत छोड़ रहे हैं, तो भारत ने भी आर्थिक सहायता खींच ली. 



तालिबान के प्रति बदलता रुख


अफगानिस्तान को लेकर नए समीकरण ही बन रहे हैं और भारत का रुख बदल भी रहा है. देखने की बात है कि पाकिस्तान ने तालिबान को पनपाया और उसकी सोच थी कि तालिबान वहां पाकिस्तान की कठपुतली बनकर शासन करेगा और भारत को वहां से हटाएगा. हालांकि, हम तालिबान का अगर एक्शन देखें और उसके कामकाज को देखें तो पाकिस्तान का दांव उल्टा पड़ गया है और पाकिस्तान का सबसे बड़ा सरदर्द तो तालिबान बन गया है. वह तो डूरंड लाइन को मानता ही नहीं है, जो पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच विभाजक रेखा है. पाकिस्तान इस मुगालते में था कि कठपुतली सरकार अगर बनी, तो वह उसे मान्यता दे देगी, लेकिन तालिबान को समझने में पाकिस्तान चूका. तहरीके-तालिबान (पाकिस्तान) लगातार ही पाकिस्तान में हिंसा कर रही है, लेकिन तालिबान उसको रोकने की कोशिश भी नहीं कर रहा है, दूसरी ओर वह लगातार भारत के पक्ष के बयान जारी कर रहा है. दरअसल, अमेरिकी कब्जे या गनी सरकार के दौरान भारत ने जो मानवीय सहायता पहुंचाई है, उसको तो तालिबान भी एप्रीशिएट करता है. हालांकि, भूतकाल में तालिबान ने भारतीय दूतावास और बाकी जगहों पर हमला भी किया है. आज वही तालिबान भारत को बुला रहा है कि वह अपनी 100 बंद पड़ी योजनाओं को शुरू करे. तालिबान लगातार बांहें खोल कर खड़ा है, भारत के लिए. हां, भारत तालिबान को मान्यता देने में हिचक रहा है. वह अगर हुआ तो पाकिस्तान पूरी तरह खेल से बाहर होगा. 



चीन की भी है नजरें गड़ी


तालिबान से अधिक फायदा लेने के लिए चीन ने तो अफगानिस्तान में दूतावास ही खोल दिया है. उसकी नजरें अब अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों पर है. चीन अमेरिकी हस्तक्षेप के पक्ष में भी नहीं था. वह तो पाकिस्तान के साथ मिलकर तालिबान को ही पनपाना चाहता था. इसीलिए, चीन ने तो तालिबान के कब्जे से पहले ही तालिबान के प्रतिनिधि को चीन में जगह दी है. अफगानिस्तान दरअसल रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण देश है. सेंट्रल एशिया का यह देश चीन और मिडल ईस्ट को कनेक्ट करता है. चीन का सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बीआरआई जो है, वह तब तक पूरा नहीं हो पाएगा, जब तक अफगानिस्तान पर उसका नियंत्रण न हो. इसलिए, अमेरिका के जाते ही चीन वहां जमने आ गया है. अब उसको काउंटर करने के लिए भारत को भी अपनी मौजूदगी बढ़ानी होगी. चीन लगातार अफगानिस्तान सरकार को काफी पैसा दे रही है. 


चीन की एक बड़ी नीति है कि भारत को दक्षिण एशिया में चारों तरफ से घेरा जाए. म्यांमार की जो जुंटा सरकार है, वह चीन के इशारे पर ही चलती है, पाकिस्तान तो हम सभी जानते ही हैं, मालदीव में अभी इयुज्जु राष्ट्रपति बने हैं जो चीन के समर्थक और समर्थित हैं. श्रीलंका को उसने डेट-डिप्लोमैसी यानी कर्ज के जाल में फांस ही रखा है. चीन की यही नीति है कि दक्षिण एशिया में ही भारत को फंसा कर रखो, ताकि वह दक्षिण चीन सागर या हिंद प्रशांत महासागर में अपनी मनमानी कर सके. क्वाड में भारत संलग्न नहीं हो, अमेरिका के साथ रणनीतिक साझीदारी न करे, ये सभी चीन के लक्ष्य हैं. इसलिए, कभी चीन का हाथ ऊपर रहता है, कभी भारत का. अभी जैसे बांग्लादेश में जो सरकार है, वह भारत विरोधी नहीं. नेपाल से भी भारत ने संबंध सुधारे हैं और भूटान भारत का मित्र देश है. अफगानिस्तान में भारत की दखल है ही. यह कहने की बात नहीं कि पड़ोसियों से अगर संबंध अच्छे नहीं हुए, तो भारत की राह मुश्किल रहेगी. भारत इस बात को जानता है और इसीलिए उसकी पूरी नजर इस इलाके पर है. भारत अपनी कूटनीतिक और रणनीतिक चाल इस तरह से चल रहा है कि विश्व रंगमंच पर वह एक सशक्त उपस्थिति दर्ज करा सके. 




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