विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर एक बार फिर से ये बहस छिड़ गई है कि क्या भारत में एक खास वर्ग यानी मुसलमानों की आबादी जरुरत से ज्यादा बढ़ रही है? और क्या इसे काबू करने के लिए मोदी सरकार जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने के बारे में सोच रही है? लेकिन सवाल ये है कि क्या भारत में सचमुच जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन गई है कि सरकार को इसके नियंत्रण के लिए क़ानून बना पड़े? विशेषज्ञ इसका जवाब 'ना' में देते हुए कहते हैं कि अगर ऐसी कोई कोशिश होती है,तो उसे एक खास वर्ग को सरकारी योजनाओं से वंचित करने का राजनीतिक मकसद ही समझा जायेगा.


दरअसल, सोमवार को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुस्लिमों का नाम लिए बगैर उन पर निशाना साधा है कि एक वर्ग में आबादी की रफ्तार और उसका प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है,जिसके चलते समाज में अराजकता पैदा हो रही है.हालांकि उनके इस बयान पर एआईएमआईएम के अध्यक्ष और हैदराबाद से लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने भी तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है.


उल्लेखनीय है कि सीएम योगी ने सोमवार को लखनऊ के एक कार्यक्रम में कहा था कि "हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि जनसंख्या नियंत्रण का कार्यक्रम सफलता पूर्वक आगे बढ़े लेकिन जनसांख्यिकी असंतुलन की स्थिति पैदा न हो जाए. ऐसा न हो कि किसी वर्ग की आबादी की बढ़ने की गति और उसका प्रतिशत ज़्यादा हो और कुछ जो मूल निवासी हों उन लोगों की आबादी का स्थिरीकरण हो जाये,इसलिए हम लोग जागरूकता के माध्यम से, एनफोर्समेंट के माध्यम से जनसंख्या संतुलन की स्थिति पैदा करें.''


साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि जहां भी जनसांख्यिकी असंतुलन की स्थिति पैदा होती है, वहां धार्मिक जनसांख्यिकी पर इसका विपरीत असर पड़ता है. फिर एक समय के बाद वहां पर अव्यवस्था और अराजकता पैदा होने लगती है. इसलिए जब जनसंख्या नियंत्रण की बात करें तो जाति, मत-मजहब, क्षेत्र, भाषा से ऊपर उठकर समाज में समान रूप से जागरूकता के व्यापक कार्यक्रम के साथ जुड़ने की ज़रूरत है.


दरअसल, उत्तर प्रदेश लॉ कमीशन ने उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) बिल 2021 का मसौदा हाल ही में योगी सरकार को सौंपा है.बताया गया है कि प्रस्तावित बिल में दो बच्चे के नियम की बात कही गई है. विपक्षी दलों समेत मुस्लिम नेता मानते हैं कि योगी सरकार मुसलमानों को निशाने पर लेने के लिए ही ऐसा कर रही है.लेकिन सरकार ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया है.


अपने तीखे तेवरों के लिये मशहूर असदुद्दीन ओवैसी ने बीजेपी को निशाने पर लेते हुए अपने ट्वीट में लिखा, ''विश्व जनसंख्या दिवस पर संघी फ़र्ज़ी ख़बर फैलाएंगे. सच यह है कि भारत में युवा और बच्चे मोदी शासन में अंधकारमय भविष्य का सामना कर रहे हैं. भारत के कम से कम आधे युवा बेरोजगार हैं. भारत में विश्व के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे हैं. भारत की प्रजनन दर में गिरावट आई है और यह रिप्लेसमेंट लेवल से भी नीचे है. यहाँ कोई जनसंख्या विस्फोट की स्थिति नहीं है. हमें स्वस्थ और प्रोडक्टिव युवा आबादी को लेकर चिंता करनी चाहिए और इसे सुनिश्चित करने में मोदी सरकार नाकाम रही है.''


वहीं बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने अपने ट्वीट में कहा है कि, ''बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट किसी मजहब की नहीं, मुल्क की मुसीबत है, इसे जाति, धर्म से जोड़ना जायज नहीं है.''
कई लोग नक़वी की इस टिप्पणी को योगी आदित्यनाथ के बयान के विरोध में देख रहे हैं.


उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने भी योगी को जवाब देते हुए मंगलवार को अपने ट्वीट में लिखा कि "अराजकता आबादी से नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों की बर्बादी से उपजती है." लेकिन क्या वाकई मुस्लिमों की आबादी तेजी से बढ़ रही है? कुछ अरसा पहले अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किये गए अध्ययन में पता चला है कि भारत में सभी धार्मिक समूहों की प्रजनन दर में काफ़ी कमी आई है.यानी 1951 से लेकर अब तक देश की धार्मिक आबादी और ढाँचे में बेहद मामूली अंतर ही आया है.


भारत में हिंदू और मुसलमान देश की कुल आबादी का 94% हिस्सा हैं.जबकि ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्म की आबादी महज़ का 6 फीसदी है. लेकिन एक तथ्य यह भी है कि भारत में अब भी मुसलमानों की प्रजनन दर सभी धार्मिक समूहों से ज़्यादा है. साल 2015 में हर मुसलमान महिला के औसतन 2.6 बच्चे थे.जबकि हिंदू महिलाओं के बच्चों की संख्या औसतन 2.1 थी. सबसे कम प्रजनन दर जैन समूह की पाई गई. जैन महिलाओं के बच्चों की औसत संख्या 1.2 थी.


अध्ययन के अनुसार यह ट्रेंड मोटे तौर पर वैसा ही है, जैसा साल 1992 में था. उस समय भी मुसलमानों की प्रजनन दर सबसे ज्यादा (4.4) थी. दूसरे नंबर पर हिंदू (3.3) थे.यानी पिछले दो दशक में मुस्लिमों की आबादी तेजी से बढ़ने का दावा गलत है.


इस अध्ययन का एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि पिछले 25 वर्षों में यह पहली बार हुआ है, जब मुसलमान महिलाओं की प्रजनन दर कम होकर प्रति महिला दो बच्चों के क़रीब पहुँची है" साल 1990 की शुरुआत में भारतीय महिलाओं की प्रजनन दर औसतन 3.4 थी, जो साल 2015 में 2.2 हो गई. इस अवधि में मुसलमान औरतों की प्रजनन दर में और ज्यादा गिरावट देखी गई जो 4.4 से घटकर 2.6 हो गई. हालांकि पिछले 60 वर्षों में भारतीय मुसलमानों की संख्या में 4 प्रतिशत की बढ़त हुई है जबकि हिंदुओं की जनसंख्या क़रीब 4 फीसदी घटी है. बाक़ी धार्मिक समूहों की आबादी की दर लगभग उतनी ही बनी हुई है.


देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने पिछले साल इसी मुद्दे पर एक किताब लिखी थी - 'द पॉपुलेशन मिथ : इस्लाम, फ़ैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया'. वे कहते हैं, "भारत में जनसंख्या वृद्धि को लेकर सबसे बड़ी भ्रांति ये है कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और उनकी वजह से जनसंख्या ज्यादा बढ़ रही है. लेकिन ये पूरी तरह से तथ्य से परे है. उनके मुताबिक नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे यानी एनएफएचएस के पिछली पाँच रिपोर्ट के आँकड़े बताते हैं कि हिंदू और मुसलमानों में बच्चे पैदा करने का अंतर एक बच्चे से ज़्यादा कभी नहीं रहा.


साल 1991-92 में ये अंतर 1.1 का था, इस बार ये घट कर 0.3 का रह गया है. ये बताता है कि मुस्लिम महिलाएं तेजी से फैमिली प्लानिंग के तरीके अपना रही हैं. गर्भनिरोधक तरीकों की डिमांड भी उनमें ज़्यादा है जो पूरी नहीं हो रही. कुरैशी कहते है कि, भारत को जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने की जरूरत आज से 30 साल पहले थी लेकिन आज नहीं है.


जनसंख्या वृद्धि दर, प्रजनन दर, रिप्लेसमेंट रेशियो और गर्भनिरोधक के तरीकों की डिमांड सप्लाई का अंतर बताता है कि सरकार को जनसंख्या नियंत्रण पर कानून की ज़रूरत नहीं है. इसके अलावा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आँकड़े भी बताते हैं कि हर दशक में जनसंख्या बढ़ने की दर कम हो रही है.प्रजनन दर में भी कमी आ रही है और सभी धर्म के लोगों के बीच ऐसा हो रहा है. 


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