एक अमेरिकी टॉप कमांडर ने कहा कि चीन अमेरिका और भारत दोनों के लिए एक ही तरह का चैलेंज पेश कर रहा है. ऐसे में हम भारत को मदद कर रहे हैं. ऐसे में सवाल है कि अमेरिका का ये कहना भारत के नजरिये से इसे कैसे देखा जाना चाहिए. इसके लिए थोड़ा हमें इतिहास में जा कर देखना पड़ेगा और वर्तमान में जो अमेरिकी विदेश नीति की कवायद है, उसे समझना की जरूरत है. हमने देखा है कि शीत युद्ध के समय में अमेरिका एक दूसरे सुपर पावर सोवियत यूनियन को फेस कर रहा था. शीत युद्ध के बाद जब रूस उभरा तब वह बहुत ही कमजोर था. लेकिन धीरे-धीरे रूस ने अपने आप को संभाला और खड़ा हो गया और आज के विश्व में रूस अपने सैन्य बल के साथ अमेरिका के सामने बहुत बड़ा चैलेंज है और अमेरिका इसे बखूबी फेस भी कर रहा है रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध के जरिए. अमेरिका अभी यूरोपियन यूनियन के अन्य देशों के साथ मिलकर रूस के साथ एक प्रॉक्सी वॉर लड़ रहा है.


दूसरा चैलेंज जो आर्थिक तौर अमेरिका को चीन की तरफ से फेस करना पड़ रहा है. रूस से जो अमेरिका को चुनौती मिल रही थी उसने यूक्रेन युद्ध में यूरोपीय देशों के साथ उसे उलझा दिया है. लेकिन दूसरी चुनौती चाइना के रूप में है. अब अमेरिका अपनी विदेश नीति से चाइना को टैकल करने की कोशिश कर रहा है. सवाल यह है कि आखिरकार अमेरिका रूस और चाइना दोनों को क्यों काउंटर करना चाहता है. शीत युद्ध के बाद जब सोवियत यूनियन का विघटन हुआ था तब विदेश मामलों के एक्सपर्ट ने यह बात कही थी कि अब विश्व एक ध्रुवीय हो गया है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. आगे चलकर ये यूनिपोलर न रह कर अब मल्टीपोलर वर्ल्ड हो गया है.



ये कहा जा सकता है कि कुछ समय तक सैन्य शक्ति के हिसाब से अमेरिका सबसे बड़ा राष्ट्र था. लेकिन इसी दृष्टिकोण से अगर हम पूरे विश्व पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि यूरोप के अंदर जर्मनी एक नया आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया. इंडो-पैसिफिक या एशिया-पैसिफिक के क्षेत्र में चाइना एक बड़े राष्ट्र के रूप में उभर कर आया और उसके बाद जापान भी उभरा. यानी विश्व के अलग-अलग रीजन में अलग-अलग आर्थिक शक्तियां सामने आई. चाइना का एक बहुत ही स्लो और साइलेंट रन रहा जिसे की अमेरिकन नीति निर्धारक भांप नहीं पाए. जब कोई देश एक आर्थिक शक्ति बन जाती है तब वह सैन्य शक्ति के रूप में भी बड़ा चैलेंज पेश करता है. चाइना जैसे-जैसे आर्थिक रूप से समृद्ध हुआ वो वैसे-वैसे अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाते चला गया और अब वह अपनी ताकत ताइवान और दक्षिण चीन सागर में दिखा रहा है. लेकिन इस क्षेत्र में जो चीन का बढ़ता हुआ स्वरूप है उसे अमेरिका चेक करना चाहता है. ऐसे में इस क्षेत्र में चाइना के खिलाफ कोई बड़ा देश खड़ा हो सकता है तो वो भारत ही है. लेकिन हमें भारत की विदेश नीति और विदेश मंत्रालय को बहुत ही बारीकी से समझने की जरूरत है. हमारे देश की जो विदेश नीति के जो नीति निर्माता हैं, उन्हें भी बहुत ही बारीकी से अमेरिकन नीति को समझना होगा.


आज अमेरिका को क्यों लग रहा है कि चाइना भारत और अमेरिका दोनों के लिए एक जैसा सुरक्षा के लिए खतरा है. मुझे लगता है कि अमेरिका का अपना सिक्योरिटी कन्सर्न अलग है. चूंकि अमेरिका को अपनी बादशाहत कायम करना है विश्व पटल पर इसके लिए उसने एक तरफ रूस को उलझा दिया है. अब वह चीन को ताइवान के साथ उलझाना चाहता है. लेकिन इस क्षेत्र में ताइवान एक बहुत ही छोटा सा राष्ट्र है. अमेरिका को भी ये बात समझ आ रही है कि जिस तरह से रूस के खिलाफ यूक्रेन खड़ा है, और साल भर से युद्ध जारी है. ऐसा भी नहीं लग रहा है कि रूस का कद बड़ा हो रहा है इस युद्ध से दोनों पक्ष एक-दूसरे पर हावी हो रहे हैं लेकिन फायदा अंततः अमेरिका को ही हो रहा है. इससे यूरोप भी कमजोर हो रहा है और रूस भी, तो उस क्षेत्र में अमेरिकी बादशाहत ऊपर आ रही है. लेकिन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के ऊपर नकेल कसना अमेरिकी विदेश नीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. ऐसे में वो चाहे तो ताइवान के साथ चीन को उलझा दे और अगर दोनों के बीच युद्ध होता है तो ताइवान उसके समक्ष ज्यादा देर टिक नहीं पाएगा.


लेकिन अमेरिका फिर से अप्रत्यक्ष तौर पर ताइवान की तरफ से चीन के खिलाफ युद्ध करेगा और उसे हथियार देकर मदद करेगा. चूंकि अमेरिका अगर युद्ध पसंद करने वाला होता तो वो अफगानिस्तान से बाहर नहीं निकलता. अभी अमेरिका कोई इस क्षेत्र में सैन्य हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है. इसलिए वो चाहता है कि अगर भारत को किसी तरह से चीन के साथ उलझा कर रखा जाए. आप देखिए, कि उसने इसके लिए इंडो-पैसिफिक में क्वाड का गठन कर रखा है जिसका सदस्य देश भारत भी है. कुछ लोग क्वाड को इंडो-पैसिफिक के लिए नाटो की तरह तुलना कर रहे हैं. ये सब जो नारेटिव चल रहा है. इससे भारत को परहेज करने की जरूरत है. ये बात सही है कि हमारे रणनीतिक सुरक्षा कन्सर्न हैं. लेकिन भारत और भारतीय विदेश नीति आर्थिक रूप से, डिप्लोमैटिक रूप से सक्षम है चाइना को चेक करने के लिए. इसके लिए हमें अमेरिका या किसी और देश की जरूरत नहीं है.

हमारा चीन के साथ बॉर्डर पर सिक्योरिटी चैलेंज है, तनाव है लेकिन ये भी हमें देखने की जरूरत है कि हमारा सबसे बड़ा व्यापार चीन के साथ है. हाल के वर्षों में इसमें कुछ गिरावट आई है लेकिन फिर भी हमारा चीन के साथ मेजर आर्थिक इंगेजमेंट है. ऐसे में चीन भी नहीं चाहता है कि वह भारत के साथ युद्ध की स्थिति का सामना करे और भारत भी ये कभी नहीं चाहेगा की हम चीन के साथ बड़ी लड़ाई लड़ें. चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था मौजूदा दौर में कमजोर हुई है और वह नहीं चाहेगा की युद्ध करके वह अपनी अर्थव्यवस्था और चौपट कर दे. वहीं, भारत अभी तेजी से विश्व में आर्थिक शक्ति बनने की ओर अग्रसर है. हम अभी चौथे स्थान पर पहुंच गए हैं. ये अलग बात है कि चीन और भारत के राजनेताओं के बीच वाकयुद्ध चलते रहता है और ये सिर्फ पब्लिक कंजम्पशन के लिए होता है. लेकिन जब हम इसके मूल में जाएंगे तो पाएंगे कि न तो चीन युद्ध चाहता है और न ही भारत इसका पक्षधर है और मुझे लगता है कि सबसे अच्छी डिप्लोमेसी यही है. 


 

मेरा यही ओपिनियन है कि भारत को बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है और हमें अमेरिकी मोह जाल से बचने की जरूरत है. यह अमेरिका का रिक्वायरमेंट है कि वह चीन को चेक करने के लिए वह उसे या तो ताइवान से साथ भीड़ा दे या फिर भारत को आगे करके उसे चीन के साथ लड़वा दिया जाए. ऐसे में इस क्षेत्र में हर दृष्टिकोण से चीन भी कमजोर होगा और भारत भी और फायदा अमेरिका का होगा. इस अमेरिकी विदेश नीति में फंसने से बचना होगा. मेरा ऐसा मानना है कि भारत भी अमेरिका के इस चाल को बखूबी समझता है.   

[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]