पिछले कुछ दशक से भारत अपनी विदेश नीति में ‘ASEAN’ (असोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स)  के देशों को विशेष दर्जा दिया है और इसी की मार्फत हमारी विदेश नीति के एक नए आयाम का नामकरण भी किया है. प्रधानमंत्री मोदी के सत्तासीन होने के बाद से पहले की ‘लुक ईस्ट’ पॉलिसी को अब ‘एक्ट ईस्ट’ पॉलिसी का नाम दिया गया है. इस साझीदारी को 4 दशक हो गए हैं और भारत न केवल आसियान के देशों के साथ, बल्कि पूरे ईस्ट एशिया के सभी देशों के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ बना रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसीलिए जी-20 की तैयारियों से एक छोटा सा ब्रेक लेते हुए इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में 8 अगस्त को 20वें आसियान समिट में हिस्सा लिया. वहीं 18वां ईस्ट एशिया सम्मेलन भी था और इसको संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि वर्तमान विश्व राजनीति में आसियान के विशेष दर्जे एवं उसकी केंद्रीयता को संबोधित किया.


बेहद सफल संगठन है आसियान


आसियान के इतिहास की बात करें तो 1967 में उसकी शुरुआत होती है और वह तृतीय विश्व (जिसे आज हम ग्लोबल साउथ कहते हैं) का पहला ऐसा संगठन था, जो व्यापार, आपसी समझौते, बेहतर संबंधों के लिए बना था. आगे चलकर यही संगठन विश्व के अन्य कई संगठनों के लिए मिसाल बना. 1967 में आसियान की सदस्यता के लिए भारत को भी निमंत्रण भेजा गया था. उसका कारण यही था कि ऐतिहासिक और भौगोलिक तौर पर भारत आसियान के करीब था, तो उसे भी सदस्य बना जाए. हालांकि, तत्कालीन परिस्थितियों या भू-राजनीतिक परिस्थितियों की ठीक समझ नहीं होने की वजह से ही तब भारत में जो भी नेतृत्व में थे, उन्होंने सदस्यता नहीं ली.


हालांकि, धीरे-धीरे आसियान का डंका बजने लगा और उससे प्रभावित होकर ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ‘सार्क’ की स्थापना ही में सहयोग दिया. आखिर, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय यह पाया गया कि ‘आसियान’ से हमें जुड़ना चाहिए और जिस स्तर पर हम नहीं जुड़ पाए औऱ हमारी ऐतिहासिक गलती को सुधारने के लिए 1992 में ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ की स्थापना हुई. उसके बाद ही पहले हमें ‘सेक्टोरल डायलॉग पार्टनर’ और फिर ‘फुल डायलॉग पार्टनर’ बनाया और आज चूंकि भारत उस समय से ही इस पर काम कर रहा है, तो अब भारत और आसियान समिट भी हो रहा है, हम आसियान के सभी मंचों-चाहे वो डिफेंस, या विदेश मंत्रियों की मीटिंग हो, में शिरकत करते हैं. साथ ही आसियान के लगभग सभी सदस्य देशों के साथ हमारा फ्री-ट्रेड एग्रीमेंट भी है. यह हमारे लिए जरूरी भी है, क्योंकि यह हमारे उत्तर-पूर्व के राज्यों पर भी प्रभाव डालता है. भारत का नॉर्थ ईस्ट चूंकि गेटवे ऑफ इंडियाज लुक ईस्ट पॉलिसी है, इसलिए भी यह जरूरी है कि हम इन देशों के साथ अच्छे संबंध रखें.


चीन के ऊपर अंकुश


पिछले कई दशकों से चीन आसियान के हरेक देश के साथ कई स्तरों पर संबंध बना चुका है. वह कई मायनों में हमसे आगे हैं. आसियान के देश आज भी कई मुद्दों पर चीन पर आश्रित हैं. चाहे मलेशिया हो, सिंगापुर हो, या कोई और हो, वहां चीन के प्रवासी खासी संख्या में है, कई जगहों पर तो प्रवासी चीनी नागरिक ही उनकी रीढ़ की हड्डी है. कई विद्वान तो यह भी मानते हैं कि भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी और कुछ नहीं, ‘कैचिंग अप विद चाइना’ पॉलिसी है. हालांकि, मेरा ऐसा मानना नहीं है. भारत अपनी सांस्कृतिक निकटता और ऐतिहासिक संबंधों की वजह से अपने आसियान पड़ोसियों के साथ संबंध बना रहा है और कहीं न कहीं ये सारे देश भी भारत को एक मजबूत और जिम्मेदार साझीदार मानते हैं. वे जानते हैं कि भारत भरोसेमंद है और इसीलिए वे चीन पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं.


जिस तरह से दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर चीन ने आसियान के आधे से अधिक देशों को घेरा है, बल्कि जापान (ईस्ट एशिया) तक को नहीं छोड़ा है, तो वे भी भारत को एक रणनीतिक साझीदार के तौर पर देखना चाहते हैं. चीन के विस्तारवाद से उनको भी समस्या है और वे भारत पर भरोसा करते हैं.


चीन का विस्तारवाद सबको खटका


कई विद्वानों का मानना है कि दो विश्वयुद्ध जमीन पर हुए, लेकिन तीसरा या तो सामुद्रिक होगा या समुद्र के संसाधनों के साथ, संसाधनों के लिए होगा. शोध से पता चला है कि वेस्ट एशिया के बाद सेकंड पर्शियन गल्फ दक्षिण चीन सागर का क्षेत्र हो सकता है, इसमें तेल के अपार मात्रा में होने की संभावना है और उसी को लेकर चीन यहां अपना कब्जा करना चाहता है. कई बार इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के माध्यम से भी चीन को मुंह की खानी पड़ी है, लेकिन वह ढीठ की तरह इस इलाके में लगातार अपनी दखल बनाए हुए है. भारत की बात करें तो उसका 55 फीसदी व्यापार जो ईस्ट एशिया के देशों के साथ होता है, वह साउथ चाइना सी के माध्यम से ही होता है. आर्कटिक भी भारत निवेश कर रहा है, तेल की खोज हो रही है और दक्षिण चीन सागर के माध्यम से ही हम उसको वापस ला सकते हैं. आनेवाले समय में जाहिर तौर पर इसकी भूमिका बढ़ने वाली है. इसीलिए, हमारे नौसेना प्रमुख ने, प्रधानमंत्री ने बोला है कि हमारे राष्ट्रीय हितों का जुड़ाव इस इलाके से है, इसलिए हम इन देशों से बेहतर संबंध चाहते हैं. चीन के दबदबे के बिना हम चाहते हैं कि समंदर मुक्त हो और उस पर किसी देश का कब्जा नहीं होना चाहिए. इसको लेकर कई तरीके से प्रबंध हो रहे हैं. चीन को लगाम कसने के लिए यूरोप और अमेरिका की भी इस पर नजरें हैं.


अभी हाल ही में जकार्ता में जो यह सम्मलेन हुआ, उसमें भारत ने कहा कि दक्षिण पूर्व एशिया को बाकी दुनिया से जोड़ने के लिए एक आर्थिक गलियारा बने, जिसका केंद्र भारत होगा. यहां तक कि हमने डिजिटल भविष्य को ध्यान में रखते हुए भारत-आसियान कोष की भी घोषणा की है. भारत कई मुद्दों पर इन सारे देशों के साथ अपने संबंध को बेहतर कर रहा है. आसियान और इंडो-पैसिफिक समन्वय की बात है. चीन पूर्व-सक्रिय है, लेकिन भारत भी अब सक्रिय है और हमें कई देशों का समर्थन भी प्राप्त है. इसीलिए, भविष्य की राजनीति को मद्देनजर रखते हुए एवं आसियान और पूर्वी एशिया के महत्व को समझते हुए, नरेंद मोदी ने भारत में होने वाले G-20 के एतिहासिक समिट से ठीक पहले   बीसवें भारत-आसियान व अठारहवें भारत-ईस्ट एशिया समिट में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित किया. भारत का मानना है कि इक्कीसवीं सदी एशिया की होगी और उसमें भारत एवं आसियान की अग्रणी भूमिका होगी.




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