बीसवीं सदी में देश-दुनिया में एक शख्स पर विवादास्पद दार्शनिक होने का सबसे बड़ा चस्पा लगाकर उसे बदनाम किया गया गया, लेकिन उसने अपने जीते जी कभी उसकी परवाह नही की, उसका नाम था - चंद्र मोहन जैन उर्फ रजनीश उर्फ ओशो. उसी ओशो ने पुणे के कोरेगांव पार्क में जब अपना विशालतम व भव्य कम्यून बनाया, तब उनके ही एक उपासक ने उनसे बेहद समझदारी भरा सवाल पूछा था. सवाल ये था कि " आप तो मंदिर-मस्जिदों के इतने खिलाफ हैं, फिर आप खुद क्यों यह विशाल मंदिर बना रहे हैं?"
ओशो, जिसकी आध्यात्मिक ताकत को अमेरिका समेत पूरा यूरोप समझ चुका था, लेकिन भारत के लोगों को तब भी ये समझाया जाता रहा कि वो एक 'सेक्स गुरु' से ज्यादा कुछ नहीं है. लेकिन उसी ओशो ने तब मंदिर-मस्जिद के झगड़े पर जो कुछ कहा था, वो आज भी उतना ही सामयिक है और उस पर हमें गौर भी करना चाहिये. तब ओशो ने अपने उस अनुयायी को ये जवाब दिया था--"यही तो अड़चन है मंदिर-मस्जिद वालों को, कि यह मंदिर नहीं है, मस्जिद नहीं है. यही तो उनका विरोध है और यही तो उनकी नाराजगी है और तुम कहते हो, यहां विशाल मंदिर बन रहा है. विशाल मधुशाला बन रही है. और जब भी कोई मंदिर जीवित होता है तो मधुशाला ही होती है और जब कोई मधुशाला मर जाती है तो मंदिर हो जाता है.
मंदिर मधुशालाओं की लाशें हैं. बुद्ध थे, तो मधुशाला थी. मुहम्मद थे, तो मधुशाला थी. मुसलमान के पास मस्जिद है. बौद्धों के पास मंदिर है ये रेखाएं हैं जो समय की रेत पर छूट गयी. शब्द पकड़ लिये गए, उनका रस तिरोहित हो गया है.अब वहां शराब नहीं ढाली जाती, अब वहां केवल शास्त्रों की चर्चा होती है. अब वहां कोई नाचता नहीं, वहां कोई उमंग नहीं हैं, वहां कोई प्रेम की बरखा नहीं होती है. अब तो वहां मरुस्थल हैं - सिद्धांतों के, तर्कों के, विवादों के."
'मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला'
दरअसल,ओशो के शब्दों की गहराई को अगर हमने बहुत पहले ही समझ लिया होता, तो शायद हमारा देश मंदिर-मस्जिद के इस जंजाल में उलझा ही न होता. लेकिन सियासत को भला ये कभी रास आता है क्या? इसीलिये अब तक के इतिहास में ओशो ही अकेला ऐसा निहत्था शख्स रहा है, जिसके पास सिर्फ अपने ज्ञान की बंदूक थी लेकिन फिर भी अमेरिका समेत तीन दर्ज़न देश उसे मारने का कोई न कोई बहाना तलाश रहे थे. उसमें अमेरिका कामयाब हुआ और उसने कथित रूप से उन्हें स्लो पॉइजन देकर भारत के एक प्रतिभाशाली दार्शनिक को मौत की नींद सुला दिया.
आज से पांच दशक पहले भी ओशो तो लोगों को हरिवंश राय बच्चन की उसी कविता का अर्थ समझा रहे थे कि - "मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला." लेकिन जब आंखों पर मज़हबी चश्मा लगा हो, तो उसका इलाज भला कौन कर सकता है. यही हमारे मुल्क की सबसे बड़ी बदकिस्मती है कि हम अपनी आंखों पर लगे चश्मे से बहुत दूर तलक तो देख सकते हैं, लेकिन अपनी ऐनक पर लगे धार्मिक कट्टरता के उस लैंस को हटाने से या तो हम डरते हैं या फिर ये सोचते हैं कि देश में जो कुछ भी गलत-सही हो रहा है, उसके साथ चलने में ही भलाई है. इसे एक पलायनवादी सोच कहा जाता है और इसके चलते ही इस दुनिया में माओत्से तुंग और मुसोलिनी से लेकर एडॉल्फ हिटलर जैसे हुक्मरान पैदा हुए, जिनके नरसंहारों के इतिहास के लाल पन्ने आज भी सबसे बड़े गवाह हैं.
साल 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराये जाने से लेकर साल 2014 तक क्या देश में कोई मंदिर-मस्जिद का विवाद उठा? अगर उठा हो तो याद कीजिये और मेरी जानकारी भी दुरुस्त कीजिये. वह भी छोड़िए. साल 2014 से लेकर 2022 के इन आठ सालों में ऐसा क्या हो गया कि तमाम बुनियादी मुद्दे हाशिये पर चले गए और अचानक ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे को ऐसा हौवा बना दिया गया कि देश में इसके सिवा और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है. हमारे मुल्क का संविधान हम सब पर समान रुप से लागू होता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किस धर्म या जाति से हैं.
मौलाना मदनी के बयानों के मायने
देश में फिलहाल मुसलमानों के इकलौते ऐसे धार्मिक नेता हैं, जो सबसे ज्यादा प्रभावशाली भी हैं और जिनकी बातों को कौम के तमाम मौलाना व इस्लामिक स्कालर भी तवज्जो देते हैं. वे हैं- जमीयत-उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी. हो सकता है कि पिछले दिनों देवबंद में दी गई उनकी तकरीर को लेकर बहुत सारे लोग उनसे नफरत भी करते हों.
लेकिन शनिवार की रात abp न्यूज के कार्यक्रम 'प्रेस कॉन्फ्रेंस' में उन्होंने अयोध्या, मथुरा, काशी समेत हिंदू-मुसलमान के झगड़ों को लेकर जिस बेबाकी से बातचीत की,उससे लगता है कि वे नफ़रत फैलाने वाले मुस्लिम नेता नहीं बल्कि मोहब्बत का पैगाम देने वाले इंसान हैं. उनसे ज्ञानवापी मस्जिद विवाद को लेकर काफी तीखे सवाल पूछे गए थे. लेकिन मदनी ने अपना आपा खोए बगैर कहा कि ज्ञानवापी के मामले को सुलझाने के लिए सही तरीका अपनाया जाए. ये मुद्दा या तो कोर्ट से हल होगा या समझौते से. कोई तीसरी ऐसी चीज नहीं है कि जिससे मामला सुलझ जाए. उन्होंने कहा कि समझौता ही सबसे अच्छी बात होगी. हम मीडिया में, सड़क पर इसकी चर्चा नहीं करेंगे.
उनके इस बयान की तारीफ इसलिए भी की जानी चाहिए कि दो समुदायों के बीच उभरे विवाद के जिस अति संवेदनशील मुद्दे को 'मीडिया ट्रायल' के जरिये एक विस्फोटक रुप देने की कोशिश हो रही है, वह हर दृष्टि से अनुचित व असंवैधानिक है क्योंकि ये मामला फिलहाल कोर्ट में लंबित है, जिस पर किसी भी तरह की टीका-टिप्पणी करने का अधिकार संविधान ने भी मीडिया को नहीं दे रखा है. मौलाना मदनी से एक और बड़ा सवाल ये भी पूछा गया था कि क्या मुसलमान मथुरा, काशी हिंदुओं को दे सकते हैं? इसके जवाब में मदनी ने कहा कि समझौते को कभी भी नकारा नहीं जा सकता. समझौता हो जाए इससे बेहतर कोई बात नहीं. कुछ हमारा रोल होगा तो उसके लिए हम आगे आ सकते हैं, लेकिन अभी ऐसी कोई बात नहीं है. उन्होंने कहा कि ज्ञानवापी राष्ट्रीय मामला नहीं है. मदनी ने कहा कि ये अच्छी पहल हो सकती है. हमने अयोध्या का फैसला स्वीकार किया. लेकिन इस बहस को बढ़ाना एकदम ठीक भी नहीं है.
दरअसल,मदनी से इतने तीखे सवाल पहले कभी पूछे ही नही गए होंगे लेकिन उनके जवाब बताते हैं कि वे फिरकापरस्त ताकतों के साथ नहीं हैं और मुल्क में दोनों समुदायों के बीच अमन व भाईचारा कायम रखने के पैरोकार हैं. उनसे एक सवाल यह भी किया गया कि, क्या आप डिप्लोमेसी कर रहे हैं, जिम्मेदारी से बच रहे हैं? उनका जवाब था-" मैं कभी भी डिप्लोमेसी नहीं करता, मैं जिम्मेदारी से बच नहीं रहा हूं. आप इसे नेशनल इशू बना रहे हैं. हम लोगों से ये अपील कर रहे हैं कि, इस मामले को गर्म मत कीजिए. हम लोगों से कह रहे हैं कि इसे हिंदू-मुसलमान का मामला नहीं बनाएं."
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)