नयी दिल्लीः कोरोना संकट के बीच भारत पर एक और बड़ी अंतराष्ट्रीय जिम्मेदारी यह आ गई है कि इजरायल और फलीस्तीन के बीच जारी खूनी संघर्ष को सुलझाने के लिए अब उसे पहल करनी होगी. इन दोनों मुल्कों के बीच चल रही लड़ाई से अगर मिडिल ईस्ट में तनाव बढ़ता है, तो उसकी आंच दक्षिण एशिया के देशों में भी आना तय है.लिहाजा हर सूरत में यह तनाव ख़त्म करने के लिए भारत को कारगर भूमिका निभानी चाहिए.


चूंकि इजरायल के साथ भारत के रिश्ते अच्छे हैं,सो ऐसे वक्त पर अगर भारत "शांतिदूत" बनने की पहल करता है,तो ऐसा संभव नहीं कि इसरायल उसके सुझावों को सिरे से नकार दे.वक़्त का तकाजा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मित्र व इसरायल के पीएम बिन्यमीन नेतन्याहू से फ़ोन पर वार्ता करके इस संघर्ष को रोकने का कूटनीतिक खाका पेश करते हुए भारत के रुख को ज़ाहिर करें.


गौरतलब है कि पिछले पांच दिनों से इजरायली सेना और फ़लस्तीनी चरमपंथियों के बीच संघर्ष जारी है. इजरायल ने गाज़ा में अपनी कार्रवाई तेज़ कर दी है,तो वहीं फ़लस्तीनी इजरायल के शहरों में रॉकेट दाग रहे हैं. इस बीच इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने कहा है कि इजरायली सेना गाज़ा में जब तक ज़रूरी होगा, सैन्य कार्रवाई करती रहेगी. शुक्रवार सुबह उन्होंने एक बयान में कहा कि "हमास को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी".वहीं हमास के सैन्य प्रवक्ता ने कहा है कि इजरायली सेना ने अगर ज़मीनी सैन्य कार्रवाई करने का फ़ैसला किया तो वो उसे "कड़ा सबक" सिखाने के लिए तैयार हैं.


दरअसल,संघर्ष का ये सिलसिला यरुशलम में पिछले लगभग एक महीने से जारी अशांति के बाद शुरू हुआ है.हालांकिअंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों पक्षों के बीच हिंसा को बंद करने की अपील की है जिनमें इसराइल का सहयोगी अमेरिका भी शामिल है मगर इसके बावजूद इसके थमने के संकेत नहीं मिल रहे.


इसकी शुरुआत पूर्वी यरुशलम से फ़लस्तीनी परिवारों को निकालने की धमकी के बाद शुरू हुईं जिन्हें यहूदी अपनी ज़मीन बताते हैं और वहाँ बसना चाहते हैं. इस वजह से वहाँ अरब आबादी वाले इलाक़ों में प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें हो रही थीं.


पिछले शुक्रवार को पूर्वी यरुशलम स्थित अल-अक़्सा मस्जिद के पास प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच कई बार झड़प हुई.वैसे अल-अक़्सा मस्जिद के पास पहले भी दोनों पक्षों के बीच झड़प होती रही है मगर पिछले शुक्रवार को हुई हिंसा 2017 के बाद से सबसे गंभीर थी.


सारे विवाद की जड़ पूर्वी यरुशलम स्थित अल अक़्सा मस्जिद है जिसे मुसलमान और यहूदी दोनों ही पवित्र स्थल मानते हैं.1967 के मध्य पूर्व युद्ध के बाद इजरायल ने पूर्वी यरुशलम को नियंत्रण में ले लिया था और वो पूरे शहर को अपनी राजधानी मानता है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसका समर्थन नहीं करता. वैसे फ़लस्तीनी पूर्वी यरुशलम को भविष्य के एक आज़ाद मुल्क की राजधानी के तौर पर देखते हैं. आरोप है कि ज़मीन के इस हिस्से पर हक़ जताने वाले यहूदी फलस्तीनियों को बेदख़ल करने की कोशिश कर रहे हैं जिसे लेकर विवाद है.


यह बताना जरुरी है कि अक्तूबर 2016 में संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक शाखा यूनेस्को के कार्यकारी बोर्ड ने एक विवादित प्रस्ताव को पारित करते हुए कहा था कि यरुशलम में मौजूद ऐतिहासिक अल-अक़्सा मस्जिद पर यहूदियों का कोई दावा नहीं है. प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया था कि अल-अक़्सा मस्जिद पर मुसलमानों का अधिकार है और यहूदियों से उसका कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है.जबकि यहूदी उसे 'टेंपल माउंट'कहते रहे हैं और यहूदियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल माना जाता रहा है.कहा तो ये भी जाता है कि मक्का और मदीना के बाद मुसलमानों के लिए ये सबसे पवित्र जगह है.


हालांकि फलीस्तीन के इस्लामी चरमपंथी संगठन 'हमास' के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसराइल को विवादित अल-अक़्सा मस्जिद पर उसकी सैन्य कार्रवाई बंद करवाने के लिए दबाव डालता है तो वो भी जवाबी संघर्षविराम करने के लिए तैयार हैं.