भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) के मुताबिक भारत ने इस मामले में चीन को पीछे छोड़ दिया है. ये हम सब को पता है कि संयुक्त राष्ट्र में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) सबसे ताकतवर संस्था है. अब जबकि भारत दुनिया का सबसे आबादी वाला देश है और वो  UNSC का स्थायी सदस्य नहीं है, तो ऐसे में इस संस्था के औचित्य पर भी सवाल उठता है.


हमें ये समझना होगा कि UNSC का स्थायी सदस्य बनने के लिए सिर्फ आबादी का ही एक  मापदंड नहीं है. आर्थिक तौर पर भी भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है और इस दशक के आखिर तक तीसरे या चौथे नंबर पर भी पहुंच सकते हैं.


आबादी के हिसाब से देखें, आर्थिक तौर से देखें या फिर किसी और मापदंड से भी इसे देखें तो कोई औचित्य नहीं बनता की भारत पास UNSC का स्थायी सदस्यता न हो. मसला ये है कि इसका गठन दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुआ था और उस समय जो पांच बड़ी शक्तियां थी, वो इसके स्थायी सदस्य बने. चीन बड़ी ताकत नहीं था, उसके बावजूद सिर्फ़ एशिया का प्रतिनिधित्व देने के लिए उसे रख लिया गया.



संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के गठन का जो ढांचा है ऐसे भी वो करीब 75 साल पुराना हो गया है. अब जो दुनिया की वास्तविकता है, उसमें ये अजीब सी बात लगती है कि भारत इसका स्थायी सदस्य नहीं है. आप ब्रिटेन को देख लें, उसमें अब वो ताकत या क्षमता नहीं रही जो 1945 के दशक में थी. फ्रांस भी अब उस स्थिति में नहीं है. रूस एक महाशक्ति तो है, लेकिन अगर रूस को आबादी के तौर पर देखा जाए या रूस को अर्थव्यवस्था के हिसाब से देखा जाए. रूस की अर्थव्यवस्था 1.3 या 1.4 ट्रिलियन डॉलर है, वहीं भारत 3 ट्रिलियन डॉलर पार कर चुका है और शायद इस दशक के आखिर तक 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा.


ये जो समीकरण बदल रहे हैं, इसका कोई न कोई तरीका तो होना चाहिए कि जो वास्तविकता है, वो संयुक्त राष्ट्र में दर्शाई जाए. लेकिन इन पांच शक्तियों की जो मोनोपॉली वो मुख्य अड़चन है. ऐसे तो चीन को छोड़कर बाकी 4 देश बोलते तो रहते हैं कि हम आपकी स्थायी सदस्यता को मुहर लगाने के लिए बिल्कुल तैयार हैं, लेकिन उनको भी पता है कि चीन उसमें अड़ंगा लगा देगा. इन देशों को भी पता है कि समर्थन की बात कहने में कोई घाटा भी नहीं है, भारत भी खुश हो गया और होना भी नहीं है.


मेरे हिसाब से हालात उधर हैं, लेकिन कब तक ये चल सकता है, इस पर अब बहुत सारे प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं. ये सिर्फ़ भारत का ही मामला नहीं है. इसमें और देश हैं जिनकी दावेदारी है. जैसे भारत ने बात की है कि इसमें कोई अफ्रीकन देश का प्रतिनिधित्व नहीं है, दक्षिण अमेरिका से कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. वहां से ब्राजील एक बहुत बड़ी शक्ति है. एशिया से जापान को आपने बाहर रखा हुआ है.


इसमें चीन सिर्फ़ एक बाधा है, उसके अलावा भी बाकी बाधाएं हैं. जर्मनी बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था है. वो भी भारत, जापान और ब्राजील के साथ मिलकर अपनी दावेदारी रख रहा है. जब जर्मनी की बात आती है तो देश पीछे हट जाते हैं, जिनकी जर्मनी से नहीं बनती है. भारत की बात आती है तो पाकिस्तान कुछ और देशों का संगठन करके इसका विरोध करता है. उसी तरह जब जापान की बात आती है तो चीन और दक्षिण कोरिया उसका समर्थन नहीं करता है.


पहली बात ये है कि जो संयुक्त राष्ट्र महासभा है, उसमें भी इस मसले पर कोई आम सहमति नहीं बन पा रही है. अगर महासभा में आम सहमति बन जाए तो फिर शायद मौजूदा पांच स्थायी सदस्यों पर एक बहुत बड़ा प्रेशर पड़ेगा कि वो इसमें अड़ंगा नहीं लगाएं. लेकिन वहां तक बात पहुंचती नहीं है तो ये ब्रिटेन जैसे देशों के लिए बहुत ही सस्ता सौदा है कि भारत को खुश करने के लिए ये बोल दें कि हम आपकी सदस्यता पर मुहर लगाने को तैयार हैं और हम उसका समर्थन करते हैं, लेकिन उनको पता है कि ये बात बढ़ेगी ही नहीं.


उम्मीद ये करनी चाहिए कि अगले 5 से 10 साल में शायद इसमें बदलाव आएगा. जो स्थायी सदस्य हैं या जो अड़ंगा लगा रहे हैं, आने वाले वक्त में उनके लिए मुश्किल हो जाएगा कि जिनकी दावेदारी है, जो औचित्य है, उसको सिरे से खारिज नहीं कर सकते. उनको वाद विवाद करनी पड़ेगी और उनको मंजूरी देनी पड़ेगी, नहीं तो  फिर इस संगठन का कोई प्रभाव नहीं रह जाएगा. 
दूसरी चीज़ ये है कि दुनिया में बहुत तेजी बदलाव हो रहा है. ये हमारे सामने हैं कि कैसे समीकरण बदल रहे हैं और कैसे नई-नई शक्तियां उभर रही हैं, नए-नए तकनीक आ रहे हैं. एक लिहाज से दुनिया करवट ले रही है.


अगर आप चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र अपनी भूमिका सही ढंग से निभा सके तो इसको मद्देनजर रखना पड़ेगा. अगर आप चाहते हैं कि ये कॉमनवेल्थ की तरह की संस्था रह जाए, तो फिर कोई बात नहीं. एक जमाना था कि कॉमनवेल्थ की पूछ थी, लेकिन आज उसे कौन पूछता है.


अगर किसी संस्था में वक्त और जरूरत के हिसाब से सुधार नहीं किए जाते हैं, तो उसकी प्रासंगिकता खत्म हो जाती है और वो संस्था अपने आप मर जाती है. अगर ऐसा हुआ तो शायद एक नया संगठन उभर कर सामने आएगा, जिसका गठन नई वास्तविकता को ध्यान में रखकर किया जाएगा.


भारत सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया, इसका एक लिहाज से स्वागत भी होना चाहिए. लेकिन दूसरी तरफ इससे जुड़ी जो समस्या है, वो भी हमारे सामने है. इतनी बड़ी आबादी है तो ये सुनिश्चित करना पड़ेगा कि सबके पास नौकरियां हों, उनका जीवन स्तर बेहतर हो, उनको जो शिक्षा मिलती है, वो आले दर्जे की हो. ये तमाम चुनौतियां भी हमारे सामने होंगी.


(ये निजी विचारों पर आधारित आर्टिकल है)