इस सवाल का जवाब खोजना इस वक्त इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि ये एक ज्वलंत मुद्दा बन गया है. वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट सीरीज के लिए चुनी गई टीम को लेकर शुरू हुआ असंतोष खत्म नहीं हो रहा है. अभी तक कहानी एकतरफा थी. एकतरफा इस लिहाज से कि चयनकर्ताओं ने कुछ ऐसे नामों को टीम में शामिल नहीं किया था जिन्हें लगता था कि वो टीम में रहना ‘डिज़र्व’ करते हैं.


फिर कहानी में एक और मोड़ आ गया. ये मोड़ आया महेंद्र सिंह धोनी की वजह से. हुआ यूं कि चीफ सेलेक्टर एमएसके प्रसाद ने बताया कि धोनी घरेलू टूर्नामेंट विजय हजारे में झारखंड के लिए खेलेंगे. लेकिन अगले दिन धोनी ने विजय हजारे में खेलने से मना कर दिया. उनके इस फैसले के पीछे अपनी दलील भी थी.


लेकिन सवाल ये खड़ा हो गया कि क्या मौजूदा चयन समिति इतनी कमजोर है कि खिलाड़ी उसकी बात ही नहीं सुनते. ये सवाल गंभीर है. गंभीर इसलिए क्योंकि अगर इसका जवाब अभी नहीं तलाशा गया तो आने वाले समय में बात और बढ़ेगी. ध्यान रखना होगा कि पिछले काफी समय से क्रिकेट को ‘एडमिनिस्ट्रेटर्स’ को कमेटी देख रही है. कहीं ऐसा तो नहीं कि खेल में पारदर्शिता लाने के जिस कमेटी को क्रिकेट सौंपा गया उसकी देखरेख में क्रिकेट राम भरोसे चला जाए.


क्या कमजोर चयन समिति की नहीं चलती


अगर खिलाड़ी टीम में ना चुने जाने पर खुले आम बात करते हैं. बयान देते हैं. अगर धोनी चीफ सेलेक्टर के कहने के बाद भी घरेलू क्रिकेट खेलने से इंकार कर देते हैं तो चयन समिति की कमजोरी साफ झलकती है. ये कमजोरी उसी दिन पता चल गई थी जब एमएसके प्रसाद ने कहा था कि धोनी 2019 विश्व कप तक के लिए ‘ऑटोमैटिक च्वॉइस’ नहीं हैं. उनके इस बयान के कुछ ही दिनों बाद कप्तान विराट कोहली और कोच रवि शास्त्री ने धोनी की जमकर तारीफ की थी. विराट कोहली ने यहां तक कहा था कि उन्होंने धोनी जैसे ‘क्रिकेटिंग ब्रेन’ वाले खिलाड़ी दुनिया में कम ही देखे हैं. अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई थी कि धोनी तो 2019 तक के लिए सुरक्षित दिख रहे थे जबकि एमएसके प्रसाद पर ही खतरा मंडराने लगा था.


आपको बता दें कि एमएसके प्रसाद ने टीम इंडिया के लिए कुल 6 टेस्ट मैच खेले हैं. अगर यही एमएसके प्रसाद ने टीम इंडिया के लिए 30-35 टेस्ट मैच खेले होते तो शायद स्थिति ऐसी नहीं होती. सीओए यानि कमेटी ऑफ क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेटर्स का ऐसे मामलों में क्या रोल है वो साफ नहीं है.


क्यों गंभीर है ये मुद्दा


सवाल अनुशासन का है. सवाल खिलाड़ी के मन में उस सीमा का है जो उसे पता होनी चाहिए क्योंकि खेल से बड़ा कोई नहीं. पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम को देखिए. रोहित शर्मा इंग्लैंड के खिलाफ आखिरी दो टेस्ट मैच के लिए टीम में नहीं चुने जाने से खफा है. मुरली विजय टीम से बाहर किए जाने से खफा है. करूण नायर को बिना मौका दिए ही टीम से बाहर कर दिया गया. जाहिर है वो भी खफा हैं. इनकी नाराजगी मीडिया में भी जाहिर हुई. हालिया वेस्टइंडीज सीरीज में मयंक अग्रवाल को मौका मिल सकता था लेकिन उन्हें मौका नहीं मिला. वो ऑस्ट्रेलिया के लिए चुने नहीं जाएंगे. जाहिर है उनके साथ भी न्याय नहीं हुआ.


इसी कड़ी में ताजा मामला धोनी का है जिन्हें घरेलू क्रिकेट खेलने को कहा गया तो उन्होंने मना कर दिया. ये मुद्दा इसलिए और ज्यादा गर्मा रहा है क्योंकि हाल के दिनों में धोनी अपनी फॉर्म से बुरी तरह जूझ रहे हैं. उनका औसत और स्ट्राइक रेट बहुत खराब रहा है. ऐसे में वो घरेलू क्रिकेट खेलकर अपनी खोई फॉर्म को वापस पाने की कोशिश कर सकते थे. हालांकि उन्होंने घरेलू क्रिकेट ना खेलने के पीछे दलील दी है कि वो अपनी टीम का ‘कॉम्बिनेशन’ बिगाड़ना नहीं चाहते थे.


इन सारे उदाहरणों को गिनाने का मकसद सिर्फ एक ही है कि ये बात साफ समझ आ जाए कि चयन समिति को लेकर असंतोष है. और इस असंतोष का चयन समिति के अनुभव से सीधा रिश्ता है.