रूस और यूक्रेन की बीच छिड़ी जंग के बीच भारत शायद इकलौता ऐसा देश होगा, जहां इस पर भी राजनीति का तड़का लग गया है क्योंकि यहां विपक्ष हर समय सरकार पर हमला करने और उसे घेरने के लिए किसी मुद्दे की तलाश में रहता है.बेशक लोकतंत्र में विपक्ष को उसकी आवाज़ उठाने के हक़ को कोई छीन नहीं सकता लेकिन सवाल उठता है कि खुद को सबसे जिम्मेदार बताने वाले विपक्ष को यूक्रेन में हो रहे धमाकों के बीच एक भारतीय छात्र की मौत के बाद ही आखिर सरकार को घेरने की याद क्यों आई?
24 फरवरी से पहले जब दुनिया के अधिकांश देश ये अंदेशा जता रहे थे कि रुस किसी भी वक़्त यूक्रेन पर हमला कर सकता है,तब देश के किसी भी विपक्षी नेता ने मोदी सरकार को ये सलाह देने की हिम्मत आखिर क्यों नहीं जुटाई कि हम सबसे पहले अपने 20 हजार छात्रों को वहां से निकालने की रणनीति बनाएं क्योंकि अब वह एक असुरक्षित देश बन चुका है? डॉक्टर बनकर भारत आने का सपना देख रहे एक नौजवान की मौत के बहाने सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश अगर कोई भी करता है, तो फिर उसमें राजनीति की ही बू आती है,जिससे विपक्षी दल जनता का समर्थन तो क्या जुटा पायेंगे बल्कि मजाक का पात्र बनकर ही रह जायेंगे. वह इसलिये कि युद्ध में किसी भी तरफ से हो रही गोलाबारी न तो इंसान का मजहब पूछती है और न ही उसकी नागरिकता कि वह किस देश का रहने वाला है.
हां, अगर रुस के इस हमले से पहले किसी भी विपक्षी नेता ने सरकार को लिखित में ये आगाह किया होता कि इस तनाव को हल्के में न लेते हुए वहां से भारतीय छात्रों की सकुशल स्वदेश वापसी का इंतज़ाम तत्काल कीजिये और यदि सरकार उसकी सलाह को कोई तवज्जो नहीं देती,तब वे बेशक सीना चौड़ा करके सरकार की मजामत करने के हकदार बन जाते.लेकिन अफसोस कि एक भारतीय छात्र की मौत पर सबसे पहले ट्वीट करके मोदी सरकार को नसीहत देने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी रुस का हमला होने से पहले सरकार को ऐसी कोई नेक सलाह नहीं दी. उल्लेखनीय है कि यूक्रेन के खारकीव शहर में भारतीय छात्र की मौत के बाद राहुल गांधी समेत कुछ अन्य विपक्षी नेताओं ने भी सरकार की रणनीति पर सवाल खड़े किए हैं.
लेकिन इस मुद्दे पर कई मंत्रियों ने सरकार के बचाव में कूदते हुए विपक्ष को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि वे राजनीति करने से बाज आएं.केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने कहा कि, राहुल गांधी ने सवाल खड़े किए हैं, लेकिन मैं उन्हें और उनके जैसे विपक्ष के सभी लोगों को बता दूं कि ऐसे मामलों में राजनीति न करें. भारत सरकार ने पहली ही सीसीएस की बैठक में अहम फैसला लेकर ऑपरेशन गंगा शुरू किया और अभी एक-एक छात्र को लाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं. हमारे चार मंत्री भी यूक्रेन के पड़ोसी देशों में भेजे जा चुके हैं.
लेकिन सियासत से हटकर गौर करने वाली बात ये भी है कि ये एक ऐसा संवेदनशील मसला है,जो भारत से हजारों किलोमीटर दूर किसी दूसरे मुल्क की धरती पर घट रहा है और जिसका हमारे मुल्क से सीधेतौर पर फिलहाल कोई वास्ता भी नहीं है.कूटनीति की भाषा भेम कहा जाये, तो बगैर किसी लड़ाई की शुरुआत हुए एक देश से अचानक अपने नागरिकों को वहां से बाहर निकालने के फैसले का सीधा असर कूटनीतिक रिश्तों पर तो पड़ता ही है,साथ ही अपने देश में भी खौफ का माहौल बनता है.एस.जयशंकर विदेश मंत्री बनने से पहले देश के विदेश सचिव भी रह चुके हैं,लिहाज़ा विदेशी कूटनीति का अनुभव जितना उन्हें है,उतना शायद ही किसी राजनेता को होगा.लिहाज़ा,हो सकता है कि उन्होंने एक डिप्लोमेट की हैसियत से ही ये तय किया हो कि जब तक जंग छिड़ने की तस्वीर पूरी तरह से साफ नहीं हो जाती,तब तक यूक्रेन से भारतीयों को निकालने का फैसला शायद ठीक नहीं होगा.
विपक्ष का बड़ा आरोप ये भी है कि मोदी सरकार ने वहां से हमारे छात्रों को निकालने में देर कर दी क्योंकि उनका मानना है कि तमाम कूटनीतिक रिश्ते निभाने से पहले अपने नागरिकों की रक्षा करना ही सरकार का सबसे पहला व बड़ा फर्ज़ बनता है.हालांकि विपक्ष की इस दलील को भी नहीं नकारा जा सकता. इसलिये सियासी गलियारों में ये सवाल भी उठ रहा है कि क्या वाकई सरकार से इसमें कोई चूक हुई या डिप्लोमेट से मंत्री बनने वाले शख्स ही अपने आकलन में गलत साबित हो गए और वे सरकार को संभावित खतरे की हक़ीक़त बता पाने में नाकामयाब रहे.वजह जो भी हो लेकिन सच तो ये है कि भारत ही अकेला ऐसा देश है,जहां के एक छात्र को इस जंग की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है ,जबकि यूक्रेन में दुनिया के तकरीबन डेढ़ दर्जन देशों के बच्चे मेडिकल की पढ़ाई करने गए हुए हैं,जिनमें अमेरिका व ब्रिटेन भी शामिल हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)