'नेहरूवादी आदर्शवाद' के दौर से आगे बढ़ गई है भारतीय विदेश नीति, यथार्थ पर फोकस, 10 साल में हुआ बड़ा बदलाव
बीते कुछ वर्षों से यह लगातार कहा जा रहा है कि भारत की विदेश नीति बदल चुकी है. प्रशंसक जहां इस बात पर जोर देते हैं कि भारत की विदेश नीति आक्रामक और मुखर हुई है, वहीं आलोचकों का कहना है कि ये हाथी के दिखाने के दांत हैं, कुछ भी ठोस हमें नहीं मिल रहा है. हालांकि मूल सवाल है कि भारतीय विदेश नीति बदली हो या नहीं, इससे ज्यादा मायने रखता है कि क्या भारत की विदेश नीति अभी उसके हितों को प्रमोट करती है, उसकी सुरक्षा करती है.
हम अब वैश्विक राजनीति में सक्रिय भागीदारी चाहते हैं
हमारी विदेश नीति बहुत सारे फ्रंट पर बदलाव के दौर से गुजर रही है. कोई भी देश जब विदेश नीति बनाता है तो उसमें दो मुख्य घटक या इनग्रेडिएन्ट्स होते हैं. कुछ पुरानी नीति का ही चलन होता है और कुछ नई बदलती वैश्विक परिस्थितियों के मुताबिक परिवर्तन होता है. भारत का जहां तक सवाल है, तो जो नेहरूवादी नीति थी, उसमें दो-तीन मुख्य बातें थीं. एक, कि हम द्विपक्षीय आधार पर संबंध बनाएंगे. दूसरे, भारत के साथ अपने पड़ोसी मुल्कों के लिए भी बात करेंगे और तीसरे, हम किसी देश पर आक्रामक नहीं होंगे. जाहिर तौर पर ये चीजें हमारी विदेश नीति के मुख्य मसाले के तौर पर आज भी मौजूद हैं, लेकिन आज इसमें एक स्ट्राइकिंग चेंज है. भारत निस्संदेह शांति की बात करता है, पुरोधा है उसका लेकिन अगर कोई देश या आतंकवादी संगठन हमारे देश पर बुरी नजर रखता है, तो हम उसका जोरदार जवाब भी देते हैं. हम 'वसुधैव कुटुंबकम्' की बात जरूर करते हैं, लेकिन अगर कोई आतंकी संगठन है, तो उससे निपटने के तरीके बदल गए हैं. जैसे, पाकिस्तान है. हम लगातार उसकी नापाक हरकतों को अलग-अलग वैश्विक मंचों पर उजागर करते हैं और यहां तक कि चीन के साथ भी वैसा ही करते हैं अगर वह पाकिस्तान को कवर फायर देता है तो.
जहां तक विदेश नीति में बदलाव की बात है तो आप देखिए कि जी-20 का अध्यक्ष जब से भारत बना है, तो उसने एक आंदोलन का रूप दे दिया है. आज देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि भारत में जी-20 के तहत इतनी अहम बैठकें होने जा रही हैं, हर स्तर पर भारत भागीदार बन रहा है. हमारे सामने बालाकोट का उदाहरण है. अब तक ये होता था कि आतंकी हमले के बाद हम चुप रहते थे या बैकडोर डिप्लोमेसी के तहत उसकी शिकायत करते थे. अब अंतर ये आया है कि हम उस पर कार्रवाई करते हैं. अभी आपने सूडान में देखा होगा, टर्की में देखा होगा, 2015 में नेपाल में देखा होगा. भारत विश्व में सक्रिय भागीदारी के प्रयास कर रहा है और यही विदेश नीति में बदलाव का संकेत है.
आक्रामक कोई बनता नहीं, वह स्वतः हो जाता है
भारत की विदेश नीति के जहां तक 'हॉकिश' या 'आक्रामक' होने की बात है, तो वह कोई बनने की बात नहीं है. भारत में पिछले 10 वर्षों में जो बदलाव लगातार हो रहा है, हम ऊर्जा के स्तर पर काम कर रहे हैं, यूक्रेन में हमारी भूमिका को विश्व-बिरादरी ने देखा और सराहा है, कोरोना के समय में भारत ने पूरे विश्व के साथ जो वैक्सीन-डिप्लोमैसी अपनाई, क्वाड में हमारी भूमिका बढ़ रही है, हमारी कई नीतियां जो हैं वे वैश्विक पटल पर हमारी सक्रियता दिखा रही हैं. इसलिए, यह कहना उचित नहीं कि हम हॉकिश बन रहे हैं, सच तो ये है कि हमारी जो शक्ति थी, उसका हमने अब तक इस्तेमाल ही नहीं किया था. दूसरी बात कि पश्चिमी देशों को जब तक उनकी भाषा में जवाब नहीं देंगे, तो वे समझेंगे कैसे? इसके अलावा एक बात और है कि भारत ने खुद को प्रजातंत्र के तौर पर स्थापित किया है. पिछले 75 साल में हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और सशक्त हुई है. हमारी राजनीतिक स्थिरता ने भी विदेश नीति में बदलाव का यह कॉन्फिडेन्स दिया है.
कोरोना काल में शायद ही हम लोगों ने शायद ही सोचा था कि हम इतनी जल्दी इससे उबर जाएंगे. हम न केवल उबरे बल्कि दूसरे देशों की भी मदद की. हमारी बाकी नीतियां, राजनीतिक स्थिरता ही हैं जो हमारे विदेश मंत्री को आत्मविश्वास दे रही हैं और वह भारत की भूमिका को विश्व-पटल पर स्पष्टता और मुखरता से रख रहे हैं. चाहे यूक्रेन का मसला हो, या राष्ट्रवादी हिंदू सरकार बोलने पर कड़ी आलोचना या यूरोप को आईना दिखाना, हमारे विदेश मंत्री बिल्कुल वही कर रहे हैं, जो उन्हें करना चाहिए. भारत अब आगे की भी तैयारी कर रहा है और वह चाहता है कि विश्व भारत के विकास को अच्छे दृष्टिकोण से देखें. हमें हल्के में न लें और कमजोर न समझें. जैसे, ब्रिटेन में जब भारतीय दूतावास पर हमला हुआ तो हमने न केवल कहा बल्कि यहां ब्रिटिश दूतावास से भी सुरक्षा हटा दी. खालिस्तान के मसले पर हमने लगातार कार्रवाई की और यही बड़ा अंतर है कि हम केवल कह नहीं रहे हैं, कर रहे हैं.
चीन को रोकने के लिए बड़ी लाइन खींचनी होगी
भारत की विदेश नीति के अगर पीछे ही होने का जो आलोचक आरोप लगाते हैं तो शुरुआत नेपाल से कीजिए. किसी भी देश को अपनी विदेश नीति तय करने का अधिकार है और वह नेपाल से भी आप छीन नहीं सकते. वह अगर अपने विकास के लिए चीन के थोड़ा करीब होना चाहता है, तो यह उसकी मर्जी है. समय के साथ देशों की विदेश नीति परिवर्तित होती है. दक्षिण एशिया में चीन के आक्रामक अभ्युदय को भारत नजरअंदाज नहीं कर सकता है. चीन 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' की नीति के जरिए भारत को घेरने की पूरी तैयारी कर चुका है. भारत भले ही अपनी विदेश नीति आक्रामक रखे या दुर्बल रखे, आप चीन की आक्रामकता को नहीं रोक सकते, वह अपनी करेगा ही. चीन महत्वाकांक्षी देश है. वह रूस के साथ अपनी नीति बदल चुका है और अब उसके साथ इंगेजमेंट बढ़ा रहा है. पाकिस्तान के साथ आप उसकी गलबंहियां नहीं रोक सके, म्यांमार के साथ नहीं रोक सके. वह भूटान में भी करेगा, यहां तक कि वह अरुणाचल में भी कर रहा है. चीन विश्वास के लायक नहीं है, तो आप उस पर भरोसा नहीं कर सकते. 1962 में हम देख चुके हैं. चीन को अगर रोकना है तो बड़ी लाइन खींचनी होगी, आपको शक्तिशाली ही बनना होगा.
चीन ने दूसरे देशों को लुभावने सपने दिखाए और बेचे हैं. बाघ जब तक उनको खा नहीं रहा है, तब तक ये देश आंख बंद किए हुए हैं. श्रीलंका हम देख चुके हैं. हरमनतोता बंदरगाह के बदले चीन ने क्या किया, अभी जब नेपाल को उसने रेलवे ट्रैक का सपना दिखाया है, उसका कॉस्ट क्या होगा, यह किसी को पता नहीं है. उन देशों के पास चूंकि लिमिटेड ऑप्शन है, इसलिए वे देश भारत के साथ चीन के साथ भी संबंध रखते हैं. यहां तक कि भारत भी चीन को अनदेखा नहीं कर सकता. हमारा विकास ही चीन को जवाब होगा. चीन से अधिक ताकतवर बनना ही एकमात्र विकल्प है.
फिलहाल, जो भारत की विदेश नीति है, वह रियलिस्टिक है. बदलती वैश्विक परिस्थितियों के अनुकूल है. पड़ोसी देशों को भी उसका फायदा मिलना चाहिए. हमारी ऊर्जा और आइटी रेवोल्यूशन का फायदा हमारे पड़ोसियों को मिलना चाहिए, तभी वे हमारे साथ जुड़ेंगे और बढ़ेंगे.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)