भारत ने तालिबान की सरकार को मान्यता न देने का साहसिक फैसला लेकर दुनिया को ये संदेश दे दिया है कि न तो वह आतंकवाद से कोई समझौता करेगा और न ही उसके आगे घुटने टेकेगा. ये एक ऐसा फैसला है जिसे लेने और इसका ऐलान करने से पहले सरकार ने कश्मीर-लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा से जुड़े संभावित खतरों को लेकर दस बार सोचा होगा. लेकिन सामरिक कूटनीति के लिहाज से ये इसलिए भी अहम माना जाएगा कि दुनिया के बाकी देशों को भारत ने एक रास्ता दिखा दिया है कि कोई आतंकी समूह उसे ब्लैकमेल करने की ताकत नहीं रखता है. इस फैसले के जरिए भारत ने उस ताकतवर अमेरिका को भी ये अहसास कराने की कोशिश की है,जो अफगानिस्तान में 20 साल की नाकामयाब जंग लड़ने के बाद अचानक अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर और वहां के बेकसूर लोगों को दोबारा इन आतंकियों के हवाले कर अपने घर चलता बना.


शनिवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने साफ कर दिया कि वो तालिबान की नई सरकार को एक व्यवस्था यानी 'डिस्पेंसेशन' से ज्यादा कुछ नहीं मानते हैं और उसमें भी सभी वर्गों के शामिल ना होने से हम चिंतिंत है. इसके अलावा अफगानिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के जो हालात हैं, वो भी भारत के लिए खासी चिंता का विषय है. ऐसी सूरत में उन्हें मानने और संबंध रखने के बारे में भला कैसे सोचा जा सकता है.


अच्छी बात ये है कि इस मसले पर एक-एक करके बाकी मुल्क भी अब भारत के साथ आते दिख रहे हैं. रूस के बाद अब ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत का साथ देते हुए साफ कर दिया है कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल आतंकवाद को पालने-पोसने और बढ़ावा देने के लिए नहीं होना चाहिए. ऑस्ट्रेलिया के विदेश और रक्षा मंत्री नई दिल्ली के हैदराबाद हाउस में शनिवार को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ संयुक्त प्रेस-वार्ता में जब ये सब कह रहे थे, तो उस पर तालिबान से ज्यादा निगाह पाकिस्तान और चीन के हुक्मरानों की लगी हुई थी.


वैश्विक कूटनीति के विशेषज्ञ मानते हैं कि पिछले इतने दिनों से इन दोनों देशों की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि भारत, तालिबान की अंतरिम सरकार को मान्यता देता है कि नहीं. खासकर, पाकिस्तान की आईएसआई के मुखिया इसे लेकर बेहद उतावले थे कि भारत का रुख पता लगे, तभी उसके मुताबिक वे अपनी आगे की रणनीति बनाएं. चूंकि अब भारत ने दो टूक लहजे में बता दिया है कि हम तालिबान की सरकार को नहीं मानते, तो जाहिर-सी बात है कि ये पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा झटका है.


अमेरिकी फौज की वापसी के फौरन बाद तालिबान की गुजारिश पर ही भारत के कतर स्थित राजदूत दीपक मित्तल ने पहली बार औपचारिक तौर से तालिबानी नेता शेर मोहम्मद अब्बास से दोहा में बातचीत की थी. इस वार्ता को लेकर पाकिस्तान बेहद आश्वस्त था कि भारत अब तालिबान के जाल में फंस रहा है और वो पुरानी सरकारों की तरह ही तालिबान सरकार से भी रिश्ते कायम रखते हुए उसे आर्थिक मदद देना जारी रखेगा. लेकिन भारत ने पाकिस्तान के इस नापाक ख्वाब को पूरा होने से पहले ही तोड़ दिया. इसके बाद उसकी बौखलाहट और ज्यादा बढ़ेगी. लिहाजा, सुरक्षा व खुफिया एजेंसी के जानकार मानते हैं कि आने वाले दिनों में आईएसआई के गुर्गे कश्मीर में किसी बड़ी करतूत को अंजाम देने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाने की कोशिश लगातार करते रहेंगे.


चूंकि चीन भी तालिबान का हमदर्द बनकर उभरा है, लिहाजा वो भी लद्दाख और पूर्वोत्तर राज्यों से लगती सीमाओं पर भारत को परेशान करने के लिए अपनी करतूतों से जल्दी बाज नहीं आने वाला है. हालांकि इस फैसले का ऐलान करने से पहले ही सरकार को भी ये इहलाम था कि इसके नतीजे क्या हो सकते हैं लेकिन ऐसे खतरनाक हालात में अन्तराष्ट्रीय कूटनीति का सिरमौर बनने के लिए भारत के पास इसके अलावा कोई और बेहतर  विकल्प था भी नहीं.


9/11के आतंकी हमले का बदला लेने के लिए अरबों डॉलर पानी की तरह बहाने वाले और अपनी सेना को 20 साल तक अफगानिस्तान में खपाने वाले अमेरिका ने अभी तक साफतौर से ये नहीं बताया है कि वो तालिबान की इस सरकार से कैसे रिश्ते रखने वाला है. राष्ट्रपति जो बाइडेन कुछ बोलते हैं और उनके विदेश मंत्री इस सवाल पर गोलमोल जवाब देते हुए दुनिया को भ्रम में डालने का मैदान खुला छोड़ देते हैं.


अफगानिस्तान में टोलो न्यूज़ के प्रमुख लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन से हाल ही में लिए एक इंटरव्यू में इस बारे में भी सवाल पूछा था. उस इंटरव्यू को अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर भी पोस्ट किया है. सवाल था कि अब अफगानिस्तान में तालिबान का पूरा नियंत्रण है. क्या आप तालिबान को मान्यता देंगे? इसके जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय मान्यता की बात कही है. लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि तालिबान क्या कर रहे हैं न कि वो क्या कह रहे हैं. तालिबान का हमसे या पूरी दुनिया से संबंध उनकी करनी और कथनी में फर्क पर निर्भर करेगा. तालिबान ने कई वादे किए हैं. लेकिन हम देखेंगे कि वे किन वादों के साथ ईमानदार हैं.'' 


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