Opinion: भारतीय राजनीति में जीवंत रंगों का समावेश है 'हास्य', इतिहास देता गवाही
भारतीय राजनीति में हास्य जीवंत रंगों का समावेश करता है. विदूषक, शाही दरबार के बोझिल पलों को हल्का बनाते थे. बीरबल या तेनाली राम जैसे शख्सियत राजतन्त्र में जान फूंकते थे. उनके हास्य ने शासकों को कई गलत कदमों से भी बचाया.
कालिदास को याद करें जिसमें एक व्यक्ति शाही दरबार में पहुंचने पर 50 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग करता है, लेकिन बाद में जब राजा दुष्यन्त ने उसकी सराहना करनी चाही तो उसने इनाम के रूप में 100 कोड़े लगाने की मांग की. ऐसे हास्यपूर्ण उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि भारतीय अदालतें, चाहे वे दुष्यन्त की हों या पल्लव शासक की, कैसे संचालित होती थीं.
स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी हास्य कायम रहा. यूपी विधान परिषद द्वारा एक उल्लेखनीय संकलन, "ह्यूमर इन द हाउस", 1927 में अपनी स्थापना के बाद से विधान सभा में मजाकिया क्षणों को कैद करता है. आश्चर्यजनक रूप से, ब्रिटिश अधिकारियों ने हलके तरीके से सदन के गरिमा को बढाया. सदन में हास्य का संकलन करने में यूपी परिषद अकेली नहीं है. राज्यसभा, जो अपने अध्यक्ष की नकल के लिए चर्चा में है, ने हल्के क्षणों के दो अलग-अलग संकलन प्रकाशित किए हैं, एक 1989 में और दूसरा 2003 में, जब योगेंद्र नारायण इसके महासचिव थे.
1960 के दशक की शुरुआत में एक मजाकिया चाय पार्टी ने यूपी विधान परिषद को बचाया था. जब सीबी गुप्ता मुख्यमंत्री थे तो विपक्ष ने यूपी विधानसभा में इसे खत्म करने की मांग की थी. शोर-शराबे के बीच विधानसभा की कार्यवाही स्थगित कर दी गई. नेता सदन से बाहर चले गये. गुप्ता का एक दूत जल्द ही शीर्ष विपक्षी नेताओं तक पहुंच गया. गुप्ता ने उन्हें चाय पर आमंत्रित किया था. वे उसके कार्यालय में चले गये. वहाँ नाश्ते की एक भव्य थाली थी. गुप्ता ने भी हल्के-फुल्के अंदाज में इसे उन सबके साथ साझा किया. यह कुछ समय तक जारी रहा.
किसी को नहीं पता था कि हंगामेदार सत्र के बाद मुख्यमंन्त्री ने उन्हें क्यों बुलाया था. एक विपक्षी नेता ने पूछा, "भाईसाहब, आपने हमें क्यों बुलाया है? उन्होंने उन्हें बैठने के लिए कहते हुए पूछा कि वे परिषद को क्यों खत्म करना चाहते हैं. उन्होंने अपना सैद्धांतिक रुख यह बताया कि यह बर्बादी है और विधायिका में पिछले दरवाजे से प्रवेश का एक तरीका है. इसके बाद गुप्ता ने एक दर्जन विपक्षी नेताओं के नाम उछाले, जो पिछला विधानसभा चुनाव हार गए थे. उन्होंने पूछा, "क्या आप उन्हें सदन में नहीं चाहते?" पिन ड्रॉप साइलेंस था. नेता चुपचाप बाहर चले गए और सभा में जमा हो गए. सत्र फिर शुरू हुआ. फिर कभी ऐसी मांग नहीं उठी.
एक छोटे से मजाकिया बैठक ने गतिरोध दूर कर दिया. संसदीय कार्य मंत्री सदन को क्रियाशील बनाने के लिए यही करते हैं. लोकतंत्र में हस्स्य और हलके पल, एक सुरक्षा वाल्व है. क्या हम इसे भूल रहे हैं? नेहरूवादी युग में कांग्रेस पार्टी के भीतर, कई निर्णय मुख्य विधानसभा कक्ष से दूर लिए जाते थे. संसद का सेंट्रल हॉल में कई बार चुपचाप बातचीत करके काम कर लिया जाता है. अफ़सोस अब यह इतिहास है.
कांग्रेस ही अपनी सबसे बड़ी आलोचक थी. 1962 के चीनी युद्ध के बाद, तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अक्साई चिन पर चीनी कब्जे को उचित ठहराते हुए कहा, "वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता". जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट में मंत्री रहे महावीर त्यागी ने अपने गंजे सिर की ओर उंगली दिखाते हुए जवाब दिया, ''यहां कुछ नहीं उगता, तो क्या मुझे इसे काट देना चाहिए?''
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के समय में पीलू मोदी के "मैं एक सीआईए एजेंट हूं" के क्षण भी ऐसे ही थे. 1998-2004 के दौरान मुरली मनोहर जोशी (भाजपा मंत्री) और उनके आलोचक लालू यादव के साथ कई दिलचस्प बातचीत हुई. समकालीन समय में, षड्यंत्र के सिद्धांतों और तीखी नोकझोंक के बीच, बातचीत बंद करना और सदस्यों को निलंबित करना कोई समाधान नहीं है. सवाल उठता है कि क्या हम बहुत ज्यादा गंभीर हो गए हैं? संसद सत्र को जीवंत बनाने में मिमिक्री, व्यंग्यचित्र और चुटकुले योगदान देते हैं.
नेहरू ने ठीक ही कहा था, ''मैं विपक्ष से नहीं डरता. मैं नहीं चाहता कि लाखों भारतीय एक बात के लिए "हाँ" कहें, बुद्धिमान इंसान का विकास ऐसे नहीं होता. मुझे विरोध चाहिए. अगर मुझे संसद में लड़ने के लिए कोई नहीं मिला तो मैं कमजोर महसूस करता हूं.'' हां, लोकतांत्रिक सद्भाव के लिए हल्के-फुल्के क्षणों में बातचीत जारी रहनी चाहिए.
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