चार महीने में बालासोर के बाद अब बक्सर में दूसरा रेल हादसा, लोगों की लगातार जा रहीं जानें, उठ रहे रेलवे पर ये 3 सवाल

बिहार के बक्सर में बुधवार यानी 11 अक्टूबर की रात बड़ा रेल हादसा हुआ है. बक्सर के रघुनाथपुर में नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर 12506) की 21 बोगियां बेपटरी हो गईं. इस हादसे में चार लोगों की मौत की पुष्टि हुई है. कई यात्री जख्मी हो गए हैं. दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन से असम के कामाख्या जा रही नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस के कई डिब्बे रात करीब 9 बजकर 35 मिनट पर बक्सर जिले के रघुनाथपुर स्टेशन के पास पटरी से उतर गए. घटना के बाद बिहार सरकार और रेलवे मंत्रालय ने मृतकों और घायलों को मुआवजे का ऐलान किया है और कई ट्रेनों का रूट बदल दिया गया है.
थम नहीं रही हैं दुर्घटनाएंं
अभी जब चार महीने पहले बालासोर में 2 जून 2023 को जब बड़ी दुर्घटना हुई थी, तो रेलवे ने दावा किया था कि अब आगे सुरक्षा बिल्कुल चाक-चौबंद रहेगी. अभी जो कल रात यानी 11 अक्टूबर को जो दुर्घटना बिहार के बक्सर में नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस की हुई, उसमें कई सारी चीजें मैनेज की जा सकती हैं. अगर वह रात के दो-तीन बजे होती तो शायद नुकसान और अधिक हो सकता था. ये बात चिंताजनक है, क्योंकि भारतीय रेल 13 हजार से अधिक सवारी गाड़ियां चलाती हैं. जो गाड़ियां पटरी से उतरती हैं, उससे कई सवाल खड़े होते हैं. क्या पटरियों का जो नवीनीकरण है, मरम्मत है या देखभाल है, वह ठीक से हो रही है या नहीं, यह भी देखने की बात है. एक महत्वपूर्ण बात है कि इस बार नुकसान अधिक नहीं हुआ, क्योंकि इलेक्ट्रिक कोचेज थे, लाइटवेट थे, तो वे एक-दूसरे पर चढ़ी नहीं. दूसरे घायलों पर कोई बात नहीं करता है. घायलों की चूंकि जान बच जाती है, तो उनके बारे में कोई बात नहीं करता. उनमें से कई तो बहुत बुरी तरह घायल हो जाते हैं, कई दिव्यांग हो जाते हैं. नॉर्थ ईस्ट काफी प्रेस्टिजिस गाड़ी मानी जाती है. यह जिस मार्ग पर चलती है, वह मुख्य मार्ग है, तो इन चीजों ध्यान देना चाहिए और सुरक्षा को पहली शर्त बनाया जाना चाहिए.
चमक-दमक में लगा है पूरा रेलतंत्र
हकीकत ये है कि भारतीय रेल में इधऱ स्टाफ की भर्ती नहीं हो रही है. लगभग तीन लाख वैकेंसी है, जिसे भरा नहीं जा रहा है. पूरा रेलवे तंत्र इस वक्त चमक-दमक और ऊपरी बातों में लगा है. ध्यान देना है पटरी पर तो हम दे रहे हैं चमक पर. वंदे भारत चले, इसमें कोई दिक्कत नहीं है. रेलवे स्टेशनों को भी चमकाया जाए, उसमें भी कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन सुरक्षा को तो पहली प्राथमिकता देनी ही होगी. वंदे भारत की ही औसत गति देखेंं तो वह 100 किमी प्रति घंटे भी नहीं है. उसको सेमी-हाई स्पीड कहते हैं. कई आरटीआई के जवाब में रेल मंत्रालय ने कहा है कि वह 80-85 के एवरेज पर चल रही है. पुराने डिब्बों से लेकर नए डिब्बे तक का जो ट्रांजिशन है, वह प्रक्रिया वही है. तरीकों में सुधार नहीं हो रहा है, मानसिकता में बदलाव नहीं हो पा रहा है.
जितने तरह के साजोसामान जुटाए जा रहे हैं, उसके साथ ही सुरक्षा और संरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए. वह पूरी मानसिकता ही बदलनी चाहिए. आप देखिए कि 2017 से अभी तक जो पटरी से उतरने की घटनाएं हैं, उनमें भी बढ़ोतरी हुई है. कानपुर से इलाहाबाद के बीच अगर आप देखें, या फिर मध्य प्रदेश के इंदौर वाली दुर्घटना है, उसमें काफी बड़ी कैजुअल्टी हुई है, जो पटरी से उतरने की वजह से हुआ है. पटरी से उतरना तो मुहावरा ही है जब हम तंत्र के बारे में कोई बात करना चाहते हैं. तो, रेलों को पटरी से उतरने की घटनाएं कम हों, इसके लिए तो बिल्कुल चाक-चौबंद व्यवस्था करनी चाहिए.
सरकार दे रेलवे पर ध्यान
जिस दिन यह सरकार 2014 में बनी, उसी दिन गोरखपुर में भयंकर दुर्घटना हुई थी. तब इस सरकार ने कई सारी बातें कही थीं. इन्होंने तीन-चार चीजों को प्राथमिकता दी थी. पहला यह कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा, दूसरा-पुरानी सरकारी की तरह रेलवे को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने देंगे और तीसरा यह कि बेमतलब की ट्रेनें नहीं चलाएंगे. हालांकि, ये तीनों ही बातें नहीं हुईं. सरकार को जितना ध्यान रेलवे पर देना चाहिए, वह दे नहीं रही है. रेलमंत्री भी अभी ओवरलोडेड हैं. उनके पास आइटी मंत्रालय भी है. शास्त्री जी थे तो उनके पास परिवहन मंत्रालय था. अब सरकार ने रेलवे बजट ही खत्म कर दिया है, तो संसद में भी जो चर्चा हो पाती थी, वह भी नहीं हो रही है. रेलवे में एकरूपता लाने के नाम पर सरकार ने रेलवे प्रबंधन सेवा में सबको समाहित कर दिया है. पहले जो विशेषज्ञ सेवाएं थीं, उसको खत्म कर दिया गया है. कहा गया कि विभागीय सुप्रीमैसी चल रही है.
विभाग को तो आप किसी अधिकारी के हवाले ही करेंगे न. उसकी तो सुप्रीमैसी रहेगी ही. फिर, एक काम और आया. बीच में कुछ ऐसे लोगों को अधिकारी बनाया गया, जो या तो रिटायर हो गए हैं या फिर उसी तरह आधे-अधूरे मन से लाए गए. जैसे, अश्विनी लोहानी साहब को रेलवे बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया. वे 20 साल से रेलवे में थे ही नहीं. आखिरकार, उनको भी जाना पड़ा. रेलवे में इस तरह के प्रयोग नहीं करने चाहिए. जो प्रयोग हों वे सुरक्षा-संरक्षा को सुनिश्चित करने चाहिए. अब किसान-रेल की ही बात लीजिए. तीन साल में सात लाख-आठ लाख टन ही माल ढुलाई हुई. यह तो रेलवे के हिसाब से कुछ हुआ ही नहीं, तो यह तो फेल्योर है.
कहने का मतलब यह है कि रेलवे को चमक-दमक से इतर अपने काम पर ध्यान देना चाहिए. जो पुरानी समितियां हैं, जैसे काकोडकर कमिटी, उसकी सिफारिशों को लागू करना चाहिए. योजनाओं की संख्या बढ़ाने और चमक-दमक से बेहतर यात्रियों की सुरक्षा-संरक्षा पर ध्यान दिया जाए. बहुतेरी कमियां हैं रेलतंत्र में, जिसको तत्काल प्रभाव से दुरुस्त किया जाए, वरना पैसेंजर का भी कॉन्फिडेन्स टूटेगा और रेलवे का भी विश्वास घटेगा. पूरे तंत्र पर सवालिया निशान लगता रहेगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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