(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
देश का हर शहर इंदौर की तरह ही आखिर 'स्वच्छ' क्यों नहीं बन पाता?
मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी कहलाने वाले इंदौर ने लगातार छठी बार देश के सबसे स्वच्छ शहर का खिताब जीता है. वहीं, दूसरे और तीसरे नंबर पर सूरत और नवी मुंबई ने ये मुकाम हासिल किया है. साल 2014 में नरेंद्र मोदी जब देश के प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने स्वच्छता पर सबसे अधिक जोर देते हुए इसे एक मिशन में बदल डाला था. लेकिन आखिर क्या वजह है कि पिछले छह साल से कोई और दूसरा शहर इंदौर को टक्कर ही नहीं दे पा रहा है? सवाल ये भी है कि भारत का हर शहर इंदौर की जनता से सबक लेते हुए क्या अपने शहर को साफ-सुथरा नहीं रख सकता?
दरअसल, किसी भी शहर के स्वच्छ होने की बड़ी वजह वहां के लोगों की जागरूकता के साथ ही स्थानीय प्रशासन की सक्रियता और नेकनीयती से काम करने का जुनून भी होता है. इंदौर के स्थानीय निकाय ने शहर को साफ-सुथरा रखने के जो तरीके अपनाए हैं, कमोबेश वही तरीका राजधानी दिल्ली समेत अन्य शहरों में भी अपनाया जा रहा है लेकिन फिर भी वे स्वच्छ्ता के मोर्चे पर फेल साबित हो रहे हैं.
हर बार इंदौर ही स्वच्छता के मामले में अव्वल नंबर पर क्यों रहता है, तो कह सकते हैं कि वहां के निवासी कुछ ज्यादा ही जागरुक हैं लेकिन सिर्फ यही वजह नहीं है. इसके कुछ और भी कारण हैं, जिन्हें समझना होगा. शहर में कचरा पेटियां नहीं हैं. दिल्ली की तरह वहां भी नगर निगम के करीब 1500 वाहनों के जरिये सीधे घरों से कचरा इकट्ठा करके उसे ट्रांसफर स्टेशनों तक पहुंचाया जाता है. हालांकि अन्य शहरों में भी यही तरीका अपनाया जा रहा है लेकिन वे इसे शत-प्रतिशत कर पाने में अभी भी कामयाब नहीं हो पाए है. यही कारण है कि राजधानी समेत एनसीआर के शहरों में कूड़े के ढेर दिखाई देना सामान्य बात है.
दूसरा, यह कि वहां वेस्ट सेग्रिगेशन का खास ख्याल रखा जाता है, यानी घरों से ही गाडि़यों तक पहुंचने वाला कचरा अलग-अलग हो जाता है. गीले, सूखे के अलावा प्लास्टिक,सेनेटरी वेस्ट, इलेक्ट्रिक और घरेलू हानिकारक कचरे को अलग-अलग बॉक्स में डाला जाता है. जबकि दूसरे शहरों में अभी भी मिक्स कचरा ही आ रहा है.
पिछले तीन साल में वहां नदी व नालों के किनारे सात सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाये गये. सीवरेज के ट्रीट हुए पानी के उपयोग के लिए टंकियों बनाई गईं जहां से शहर के करीब सवा सौ पार्कों में ट्रीटेड पानी पाइप के जरिये पहुंचाया जाता है. इंदौर वाकई नगर निगम शायद पहली ऐसी निगम होगी, जिसे कचरे से भी कमाई हो रही है. नगर निगम को सूखे कचरे के पृथकीकरण प्लांट से हर साल करीब डेढ़ करोड़ रुपये जबकि गीले कचरे वाले बायो सीएनजी के प्लांट से प्रतिवर्ष ढाई करोड़ करोड़ रुपये की कमाई हो रही है.
बायो सीएनजी प्लांट से बाजार मूल्य से पांच रुपये कम कीमत पर मिलने वाली सीएनजी गैस से सालभर में डेढ़ से दो करोड़ रुपये की जो बचत हो रही है, वह अलग है. इसी तरह गाद से भी खाद बनाने का काम हो रहा है. नगर निगम ने थ्री आर मॉडल यानी रिसायकल, रियूज और रिड्यूज मॉडल को शहर में लागू किया, जो सफल रहा. एक हजार से ज्यादा बेकलेन में सीमेंटीकरण और सफाई कर वहां पेटिंग बनाई. बेकार की चीजों से विभिन्न स्थानों पर कलाकृतियां बनाई गई, जिसने शहर को और भी निखार दिया. शहर में थ्री आर मॉडल पर गार्डन बनाए गए और लोगों को गीले कचरे से खाद बनाने के लिए प्रेरित किया गया.
इसके अलावा स्वच्छ्ता को लेकर हर साल कुछ नए प्रयोग किये गये. मसलन, करीब दर्जन भर चौराहों पर फाउंटेन लगाए गए, जो हवा में उड़ने वाले धूल कणों को सोख लेते हैं. चौराहों के लेफ्ट-टर्न का चौडीकरण करने के साथ ही सेंट्रल डिवाइडर बनाए गए, जिन पर पौधारोपण करके शहर को हरा-भरा कर दिया गया. लोगों को प्लास्टिक की बजाय कपड़े की थैलियों का इस्तेमाल करने के लिए जागरुक बनाया गया. वायु प्रदूषण से निपटने के लिए ट्रैफिक सिग्नल बंद होने पर वाहनों के इंजन बंद कराने का अभियान चलाया गया, जिसमें प्रशासन को जनता का भरपूर सहयोग मिला.
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.