संसद का मानसून सत्र बीत गया है. इस सत्र में मणिपुर के साथ ही कई और भी महत्वपूर्ण मुद्दे सुर्खियों में रहे. लेकिन संसद का ये सत्र भारत के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिहाज से ऐतिहासिक माना जाएगा. इस सत्र के आखिरी दिन यानी 11 अगस्त को देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के आधार स्तंभ के तौर पर महत्वपूर्ण तीन विधेयकों को लोक सभा में पेश किया गया. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इन विधेयकों को पेश किया. बाद में इन तीनों विधेयकों को गृह कार्य संबंधी संसदीय स्थायी समिति को भेज दिया गया. संसदीय समिति इन विधेयकों के हर पहलू और उपबंधों पर विचार कर संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी.
इन विधेयकों के जरिए बनने वाले कानून अंग्रेजी हुकूमत की ओर से बनाए गए और ब्रिटिश संसद से पारित इंडियन पीनल कोड 1860, क्रिमिनल प्रोसीज़र कोड (1898) और इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की जगह लेंगे.
आईपीसी, सीआरसीपी और एविडेंस एक्ट की जगह नए कानून
अब इन कानूनों का स्वरूप और नाम दोनों बदल जाएगा. इंडियन पीनल कोड का नया नाम भारतीय न्याय संहिता होगा. क्रिमिनल प्रोसीजर कोड का नया नाम भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता होगा. इसके साथ ही इंडियन एविडेंस एक्ट का नाम भारतीय साक्ष्य अधिनियम होगा. यहां पर गौर करने वाली बात है कि इन कानूनों का अंग्रेजी में भी यही नाम होगा. गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में विधेयकों को पेश करते वक्त इनकी जरूरत और बदलाव से जुड़े पहलुओं और उनके महत्व पर भी विस्तार से सरकार का पक्ष रखा.
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का आधार
देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिए ये तीनों कानून कितने महत्वपूर्ण हैं, ये इसी से समझा जा सकता है कि इन तीनों कानूनों के दायरे में ही देश में अपराध से जुड़ी प्रक्रिया का निपटारा होता है. यानी अपराध दर्ज होने से लेकर न्याय और सज़ा मिलने तक का सफ़र इन तीनों कानूनों पर ही आधारित हैं. हम कह सकते हैं कि इंडियन पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड और इंडियन एविडेंस एक्ट ही वो रीढ़ है, जिस पर भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था टिका है.
नए कानूनों की जरूरत क्यों पड़ी?
सबसे पहले बात करते हैं कि आजादी के 75 साल बाद आखिर क्या जरूरत पड़ी कि ये तीन नए कानून बनाने पड़ रहे हैं. दरअसल इंडियन पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड और इंडियन एविडेंस एक्ट ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ब्रिटिश संसद से बनाए गए कानून थे. इन कानूनों में उस वक्त की औपनिवेशिक जरूरतों को ध्यान में रखकर सारे प्रावधान किए गए थे. इससे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का एक आधुनिक ढांचा तो भारत में जरूर बना था, लेकिन ये भी सच है कि इन तीनों ही कानूनों अंग्रेजी हुकूमत को बनाए रखने के ढांचे से जुड़े पहलू का ख़ास ख्याल रखा गया था.
2019 में प्रधानमंत्री मोदी ने रखा था विचार
हालांकि आजादी के बाद इन तीनों ही कानूनों में जरूरत के मुताबित काफी संशोधन भी हुए हैं. उसके बावजूद इन कानूनों में औपनिवेशिक प्रभुत्व और ग़ुलामी की निशानी के तौर पर अभी भी बहुत कुछ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए की सरकार नए कानूनों में इसी औपनिवेशिक पहलू को बदलना चाहती है. इसी मकसद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार 2019 में इस विचार को रखा था कि अंग्रेजों के समय में बनाए गए तमाम कानूनों की समीक्षा हो, आजाद भारत में जो समाज है, उसके हित में वक्त की जरूरत को ध्यान में रखते हुए उन कानूनों में बदलाव हो.
नए कानूनों के लिए विचार-विमर्श का लंबा दौर
उसके बाद से आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट को नया आयाम देने के लिए विचार-विमर्श की एक लंबा दौर चला. इसमें केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और सभी हाईकोर्ट के जजों से भी राय मांगी. सांसदों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों से भी रायशुमारी की गई. 4 साल तक व्यापक विचार-विमर्श के बाद आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट को नया रूप देने के लिए विधेयक तैयार किया गया और मानसून सत्र के आखिरी दिन 11 अगस्त को लोकसभा में इन विधेयकों को पेश किया गया.
क्या पूरी तरह से कानून नए होंगे?
हालांकि ये कहना सही नहीं है कि कानून पूरी तरह से नए हैं. नाम नया मिला है. पहले के कानूनों की कई धाराओं को भी रखा गया है. कुछ धाराओं को पूरी तरह से हटा दिया गया है और कुछ धाराओं में बदलाव किया गया है. इसके बारे में खुद गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में विधेयकों को पेश करने के दौरान जानकारी दी.
इंडियन पीनल कोड 1860 को भारतीय न्याय संहिता रिप्लेस करेगी. पहले आईपीसी में 511 धाराएं थी, अब 356 धाराएं होंगी. इसमें 175 धाराओं में बदलाव किया गया है और 8 नई धाराएं जोड़ी गई हैं. वहीं 22 धाराओं को निरस्त कर दिया गया है.
उसी तरह से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, सीआरपीसी की जगह लेगी. इसमें 533 धाराएं रहेंगी, 160 धाराओं में बदलाव किया गया बै और 9 नई धाराएं जोड़ने के साथ 9 धाराओं को निरस्त कर दिया गया है.
उसी तर्ज पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, इंडियन इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की जगह लेगा. इसमें पहले 167 धाराएं थी, अब 170 धाराएं होंगी. इसमें 23 धाराओं में बदलाव के साथ एक नई धारा जोड़ी गई है, वहीं 5 धाराएं निरस्त की गई हैं.
नया कलेवर, वर्तमान जरूरत के हिसाब से बदलाव
इन बातों से स्पष्ट है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए लाए जा रहे तीन कानून पूरी तरह से नए नहीं होंगे, उनका कलेवर नया होगा, मौजूदा धाराओं में वर्तमान समय के हिसाब से बदलाव होंगे, साथ ही कुछ नई धाराओं का समावेश होगा. इसके साथ ही अलग-अलग अपराधों से जुड़े चैप्टर और उनसे जुड़ी धाराओं का क्रम भी बदल जाएगा. गृह मंत्री अमित शाह ने लोक सभा में जानकारी दी थी कि इन तीनों कानूनों के जरिए कुल 313 बदलाव किए गए हैं. उन्होंने कहा था कि इससे देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में आमूलचूल परिवर्तन होगा. इन बदलावों के जरिए कोशिश की गई है कि ये सुनिश्चित हो सके कि किसी को भी अधिकतम 3 वर्षों में न्याय मिल जाए.
ग़ुलामी की निशानी वाले शब्द हटाए गए
पुराने कानूनों में ग़ुलामी की निशानी के तौर पर जो भी शब्द हैं, उनको नए कानूनों में से हटा दिया गया है. जैसे पार्लियामेंट ऑफ यूनाइटेड किंगडम, प्रोविंशियल एक्ट, नोटिफिकेशन बाई द क्राउन रिप्रेज़ेन्टेटिव, लंदन गैज़ेट, ज्यूरी और बैरिस्टर, लाहौर गवर्नमेंट, कॉमनवेल्थ के प्रस्ताव, यूनाइटेड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड पार्लियामेंट. हर मैजेस्टी और बाइ द प्रिवी काउंसिल के रेफेरेंस को भी खत्म कर दिया गया है. पज़ेशन ऑफ द ब्रिटिश क्राउन, कोर्ट ऑफ जस्टिस इन इंग्लैंड और हर मैजेस्टी डॉमिनियन्स जैसे शब्दों को हटा दिया गया है. गृह मंत्री अमित शाह ने जानकारी दी कि पुराने तीनों कानूनों में 475 जगह ग़ुलामी की निशानियां थी, जिसे नए कानूनों में हटा दिया गया है.
'न्याय देना और अधिकारों का संरक्षण' है मकसद
सरकार की ओर से कहा गया है कि नए कानूनों का मकसद पुराने कानूनों से अलग है. पुराने कानूनों का मकसद दंड या सज़ा देना था. नए कानूनों का मकसद 'न्याय देना' होगा. नए कानूनों का मकसद नागरिकों को संविधान से मिले सभी अधिकारों की रक्षा करना होगा. दंड सिर्फ़ वहीं दिया जाएगा, जहां अपराध को रोकने की भावना पैदा करने की आवश्यकता होगी.
हालांकि सरकार ने जो मकसद बताया है, उसे अक्षरश: किसी भी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में बेहद मुश्किल है. ख़ासकर भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में. हमारे देश में ये एक चुनौती भी है, जहां सामाजिक और आर्थिक तौर से व्यवहार में एक बहुत बड़ी खाई है. इससे शायद ही कोई इनकार करेगा कि हमारे देश में क्रिमिनल सिस्टम से जुड़ी जटिल प्रक्रियाओं की वजह से गरीब, अनपढ़, कम पढ़े-लिखे लोग या फिर कम रसूखदार लोग, मिडिल क्लास को काफी कुछ झेलना पड़ता है. इसमें न्याय मिलने में देरी से लेकर न्याय हासिल करने की प्रक्रिया में व्यापक आर्थिक बोझ जैसे कई मसले जुड़े हुए हैं.
रसूखदार लोगों को भी नहीं बख़्शा जाएगा
इसका एक दूसरा भी पहलू है. आपराधिक व्यवस्था में जो रसूखदार लोग हैं, वो अपनी हैसियत का इस्तेमाल कर आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट से जुड़े कायदे-कानूनों से लंबे वक्त तक बचने में कामयाब होते रहे हैं. अगर इसे ताजा उदाहरण के तौर पर समझें तो सांसद सांसद बृजभूषण शरण सिंह के मामले पर हम गौर कर सकते हैं. जिन धाराओं के तहत दिल्ली पुलिस ने यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ और पीछा करने के अपराधों के लिए चार्जशीट में उन्हें आरोपी बनाया है..अगर ऐसा ही मामला कम रसूखदार, या आम लोगों के साथ हुआ होता, तो वो लोग अब तक जेल में होते. ये तो एक उदाहरण मात्र है, देश की आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में ऐसे बहुत सारे मामले हैं.
नए कानूनों से इस प्रकार का भेदभाव खत्म होगा, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए. जैसा कि गृह मंत्री अमित शाह ने भी लोक सभा में कहा कि चाहे कुछ भी हो, कोई कितना भी राजनीतिक रसूख वाला लोग हो, नए कानूनों के जरिए उनको भी गुनहगार होने पर सज़ा मिलेगी. नए कानूनों में इसका भरपूर ख्याल रखा गया है कि गुनहगार होने पर राजनीतिक रसूख को नहीं छोड़ा जाएगा. सरकार के इस आश्वासन से नई उम्मीदें जागती है, हालांकि इसके नतीजे कैसे आएंगे, क्या सामाजिक-आर्थिक फासले समय पर न्याय हासिल करने में बाधा नहीं बनेंगे, ये तो भविष्य में ही पता चलेगा, जब नए कानूनों को संसद की मंजूरी मिल जाएगी और पूरे देश में ये लागू हो जाएंगे.
न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता होगी खत्म!
संविधान के तहत मिले नागरिकों को मिले अधिकारों की रक्षा नए कानूनों के उद्देश्यों में शामिल है. इससे जुड़ा एक महत्वपूर्ण मसला है. इस मुद्दे पर 11 अगस्त को बिल पेश होने के दौरान शिरोमणि अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर बादल ने भी गृह मंत्री अमित शाह का ध्यान खींचा था. उन्होंने पूछा था कि जो लोग जेल की सज़ा काटने के बावजूद 30-30 सालों से रहने को मौजूद हैं, उनके लिए नए कानूनों में अलग से प्रावधान किए गए हैं.
आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया इतना ज्यादा जटिल है कि देश में कई लोग तो लंबी अदालती कार्यवाही की वजह से लंबे वक्त के लिए जेल में रहने को मजबूर होते हैं, हालांकि बाद में आरोप मुक्त होने के बाद उन्हें रिहा किया जाता है. दूसरा मामला ऐसा भी है कि छोटी-मोटी सज़ा होने पर भी जमानती प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाने की वजह से ( कारण कुछ भी हो सकता है, आर्थिक या फिर कुछ और) एक बड़ी संख्या ऐसे भी लोगों की है, जो जेल में की सालों तक रहने को मजबूर है. ये दोनों पहलू हमारे मौजूदा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिए बहुत बड़ी चुनौती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि नए कानूनों के जरिए इन चुनौतियों का समाधान निकालने में मदद मिलेगी.
विचाराधीन कैदियों के लिए प्रावधान
नए कानूनों में अंडर ट्रायल कैदियों के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, वो काफी मायने रखते हैं. इसमें कहा गया है कि कोई शख्स पहली बार अपराधी है और एक तिहाई कारावास काट चुका है, तो उसे अदालत की ओर से जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा. उसी तरह से विचाराधीन कैदी 'सज़ा की आधी या एक तिहाई अवधि' पूरी कर लेता है, तो जेल अधीक्षक तुरंत लिखित में अदालत को आवेदन देगा जिससे उसकी जमानत सुनिश्चित हो पाएगी. हालांकि अगर अपराध ऐसा है कि उसमें आजीवन कारावास या मौत की सज़ा हो सकती है, तो विचाराधीन कैदी के पास फैसले से पहले रिहाई का विकल्प उपलब्ध नहीं होगा.
राजद्रोह कानून को खत्म करने का ऐतिहासिक फैसला
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिए आने वाले नए कानूनों में एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम उठाया गया है. वो कदम राजद्रोह से जुड़े कानून को लेकर हैं. आईपीसी के सेक्शन 124A में Sedition यानी राजद्रोह को लेकर प्रावधान है. लंबे वक्त से इस सेक्शन को खत्म करने की मांग की जा रही है. इस सेक्शन में राजद्रोह की परिभाषा और उसके लिए सज़ा का प्रावधान है. अब भारत सरकार ने नए कानून के जरिए राजद्रोह को पूरी तरह से खत्म करने का फैसला किया है. आजादी मिलने के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजद्रोह जैसे शब्द की कोई प्रासंगिकता नहीं रह जाती. इसी आधार पर आईपीसी के सेक्शन 124A को खत्म करने की मांग की जा रही थी.
दरअसल इस सेक्शन का इस्तेमाल तब भी हो रहा था, जब कोई नागरिक सरकार या सरकारी फैसलों की आलोचना करे. इस सेक्शन को लोकतांत्रिक व्यवस्था और बोलने की मौलिक अधिकार के विरुद्ध माना जाता था. अब सरकार ने इस मांग को ध्यान रखकर राजद्रोह को पूरी तरह से समाप्त करने का फैसला किया. इसे आजाद भारत के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में अब तक का सबसे बड़ा और ऐतिहासिक फैसला माना जाना चाहिए. ये इसलिए नहीं माना जाना चाहिए कि इसका दुरुपयोग हो रहा था या दुरुपयोग के आरोप लग रहे थे. ये इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि हम एक आजाद मुल्क हैं और साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों से चलने वाले शासन व्यवस्था के तहत रहते हैं. इसमें राजद्रोह जैसे पहलू के होने से लोकतांत्रिक नहीं बल्कि राजशाही व्यवस्था जैसी फीलिंग आती थी.
सरकार ने भले ही नए कानून में राजद्रोह से जुड़े सेक्शन को हटा दिया है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देश विरोधी कार्रवाई के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा गया है. अलगाव, सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियां, अलगाववाद, भारत की एकता, संप्रभुता और अखंडता को चुनौती देने जैसे अपराधों की पहली बार भारतीय न्याय संहिता में व्याख्या की गई है. इससे जुड़ी संपत्तियों को ज़ब्त करने के अधिकार के लिए भी नए कानूनों में प्रावधान किए गए हैं. इस तरह से सरकार ने राजद्रोह को तो रिपील करने का फैसला किया ही है, साथ ही आतंकवाद और अलगाववादी तत्वों पर नकेल कसने के लिए भी पर्याप्त प्रावधानों को नए कानूनों में जगह दी है.
अपराधों की प्राथमिकता पर ख़ास ध्यान
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के तहत नए कानूनों में अपराधों की प्राथमिकता पर ख़ास ध्यान दिया गया है. वर्तमान में जो भी कानून हैं, उनमें मर्डर या महिलाओं के साथ दुराचार जैसे जघन्य अपराधों को बहुत नीचे रखा गया है. इसके साथ ही खजाने की लूट, सरकारी अधिकारियों पर हमले, राजद्रोह जैसे मामलों को मर्डर और रेप जैसे अपराधों से ऊपर रखा गया है. नए कानूनों के जरिए इस सोच में बदलाव किया जा रहा है. नए कानूनों में पहला अध्याय महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध से जुड़ा होगा. वहीं दूसरे अध्याय का संबंध मर्डर और मानव शरीर के साथ होने वाले अपराधों से जुड़ा होगा.
महिलाओं और बच्चों को लेकर संवेदनशीलता
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के तहत नए कानूनों में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों को प्राथमिकता दी गई है. ऐसे अपराधों में चाहे कोई भी हो, कितना भी बड़ा रसूख (चाहे आर्थिक या राजनीतिक) रखता हो, उन अपराधियों को सज़ा मिले, इसके लिए तमाम प्रावधान किए गए हैं. ऐसे मामलों में पुलिस अपने अधिकारों को दुरुपयोग नहीं कर सके, इसके लिए भी तमाम पहलुओं को नए कानूनों में जगह दी गई है.
ये प्रावधान बेहद महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इनके अमल की है. इस बात पर सरकार को गंभीरता से गौर करनी चाहिए और उस हिसाब से हर तरह के मैकेनिज्म को तैयार किया जाना चाहिए, उनमें सुधार किया जाना चाहिए.. चाहे पुलिस व्यवस्था हो या फिर अदालती प्रक्रिया से जुड़ी व्यवस्था.
बच्चों के खिलाफ अपराध पर सख्ती
बच्चों के खिलाफ अपराध को बेहद संगीन मानते हुए सख्त प्रावधान किए गए हैं. ऐसे अपराधों में सज़ा को 7 से बढ़ाकर 10 साल करने का फैसला किया गया है. साथ ही जुर्माने की राशि जो पहले बहुत कम हुआ करती थी, उसे अब मौजूदा समय के हिसाब से तर्कसंगत बनाते हुए बढ़ाने का भी प्रावधान किया गया है.
धोखा देकर महिला का शोषण बेहद गंभीर मामला
नए कानूनों में धोखा देकर महिला का शोषण करने को बेहद गंभीरता से लिया गया है. शादी, नौकरी देने और पदोन्नति के झूठे वादे और गलत पहचान के आधार पर यौन संबंध बनाने को अपराध की कैटेगरी में शामिल किया गया है. इस तरह का प्रावधान पहली बार किया गया है. नए कानून के मुताबिक गैंग रेप के सभी मामलों में 20 साल की सज़ा या आजीवन कारावास होगा, इसकी भी व्यवस्था की गई है. 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के मामले में गैंगरेप पर मौत की सज़ा भी प्रावधान किया गया है. पहले मोबाइल फोन या महिलाओं की चेन की स्नेचिंग के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं था, नए कानूनों में इसके लिए भी प्रावधान रखा गया है.
मॉब लिंचिंग के मामलों में सख्त सज़ा
पिछले कुछ सालों से सामाजिक समस्या मॉब लिंचिंग की काफी चर्चा हो रही थी. काफी घटनाएं भी हुईं थी. अब नए कानूनों में मॉब लिंचिग जैसे अपराधों के लिए सख्त सज़ा का प्रावधान किया गया है. इसके तहत कम से कम सात साल या आजीवन कारावास या मौत की सज़ा..तीनों प्रावधान रखे गए हैं.
सज़ा माफी से जुड़ा पहलू काफी महत्वपूर्ण
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की एक कमजोर कड़ी के तौर पर सज़ा माफी को जाना जाने लगा था. इसके राजनीतिक दुरुपयोग को लेकर हमेशा बहस होते रहती थी. हाल फिलहाल में बिलकिस बानो रेप केस के दोषियों और डीएम जी कृष्णैया की हत्या से जुड़े मामले में दोषी आनंद मोहन की रिहाई का मामला काफी सुर्खियों में रहा है. नए कानूनों में सज़ा माफी के इस राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना को कम करने की कोशिश की गई है.
नए कानून के मुताबिक अब सज़ा माफी के तहत मृत्यु दंड को ज्यादा से ज्यादा आजीवन कारावस में बदला जा सकता है. उसी तरह से सज़ा माफी के तहत आजीवन कारावास को कम से कम सात साल की सज़ा और 7 साल के कारावास को कम से कम 3 साल तक की सज़ा में ही बदला जा सकता है. खुद गृह मंत्री अमित शाह ने सदन को आश्वस्त किया है कि नए कानून के जरिए ये सुनिश्चित किया जाएगा कि गुनहगार होने पर सज़ा माफी के तहत किसी भी प्रकार से राजनीतिक रसूख वाले लोगों को छोड़ा नहीं जाएगा. नए कानून के तहत सज़ा माफी में इस बात को ध्यान में रखकर भी प्रावधान किए गए हैं. ये बेहद महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन नए कानून में ऐसे प्रावधान जरूर होने चाहिए जिससे कोई भी राज्य सरकार इसका तोड़ नहीं निकाल सके. यानी इसका कोई अपवाद नहीं होना चाहिए.
छोटे-मोटे मामलों में समरी ट्रायल
इसके साथ ही नए कानूनों में छोटे-मोटे मामलों में समरी ट्रायल को अनिवार्य बनाया गया है ताकि निचली अदालतों का बोझ जल्द से जल्द कम हो. उससे भी जरूरी है कि ऐसे मामलों से जुड़े लोगों को त्वरित न्याय भी मिले सके और जो आरोपी बनाए गए हैं, उन्हें निर्दोष होने की स्थिति में जटिल कानूनी प्रक्रिया की वजह से बेवजह की जेल और आर्थिक बोझ से छुटकारा मिल सके. नए कानून के तहत जिन मामलों में सज़ा 3 वर्ष है, उनमें समरी ट्रायल की व्यवस्था की गई है. वर्तमान में समरी ट्रायल हो, इसके लिए सज़ा की मियाद दो वर्ष है. नए कानून का अकेला ये प्रावधान निचली अदालतों पर बोझ को कम करने में संजीवनी का काम करेगा क्योंकि इससे सेशन कोर्ट में 40% से ज्यादा केस समाप्त हो जाएंगे.
आधुनिक तकनीक के हिसाब से एविडेंस कानून
नए कानूनों के तहत आधुनिक टेक्नोलॉजी के हिसाब से भारतीय साक्ष्य अधिनियम में सारे प्रावधान किए गए हैं. दस्तावेजों की परिभाषा में अब इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड को शामिल किया गया है. ईमेल, सर्वर लॉग्स, कंप्यूटर पर मौजूद डॉक्यूमेंट को स्वीकार किया गया है. स्मार्टफोन या लैपटॉप के मैसेजेज को भी दस्तावेज माना जाएगा. वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी को भी दस्तावेज माना जा सकता है. कुल मिलाकर डिजिटल डिवाइस पर उपलब्ध मेल-मैसेजेज अब एविडेंस के तौर पर दस्तावेज माने जाएंगे. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भेजे गए सम्मन को विधिवत प्रेषित सम्मन माना जाएगा. एफआईआर से केस डायरी, केस डायरी से चार्जशीट और जजमेंट सभी को डिजिटाइज्ड किया जाएगा.
अन्य प्रावधान और पहलू जो हैं महत्वपूर्ण
इन सबके साथ ही पहली बार सज़ा के तौर पर कम्युनिटी सर्विस की शुरुआत की गई है. साथ ही प्रोक्लैमड ऑफेंडर की गैरमौजूदगी में मुकदमा चलने का नया प्रावधान किया गया है. ऐसे हालात में मुकदमा जजमेंट तक भी चलाया जा सकेगा. देश के पुलिस स्टेशनों में पड़ी बड़ी संख्या में केस संपत्तियों के त्वरित निपटारे पर फोकस किया गया है. इसके अलावा में एविडेंस प्रोटेक्शन स्कीम तैयार करने और उसे नोटिफाई करने को लेकर भी प्रावधान काफी महत्वपूर्ण है. फोरेंसिक सुधार पर ख़ास ज़ोर दिया गया है. इसके लिए सभी राज्यों में 5 वर्ष के अंदर जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का प्रावधान किया गया है. सर्च और जब्ती में वीडियो रिकॉर्डिंग को अनिवार्य किया गया है. सरकारी अधिकारी या पुलिस अधिकारी के विरूद्ध ट्रायल को लेकर नए कानून में ख़ास प्रावधान किया गया है. अब ऐसे मामलों में सरकार को 120 दिनों के अंदर अनुमति पर फैसला करना होगा. अगर 120 दिनों में अनुमति पर फैसला सरकार नहीं करती है, तो इसे डीम्ड परमिशन मानकर ट्रायल शुरू कर दिया जाएगा.
ऊपरी तौर पर देखें, तो आईपीसी, सीआरपीसी और इंडियन एविडेंस एक्ट की जगह पर नए कानून का जो खाका है, उसके जरिए देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में क्रांतिकारी बदलाव सैद्धांतिक तौर से तो नज़र आता है, लेकिन असली समस्या वास्तविक अमल से जुड़ी हुई है. जो नए कानूनों का मकसद है, न्याय दिलाना और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना, ये सही मायने में तभी सुनिश्चित हो सकता है, जब उन कानूनों का तोड़ पुलिस और न्यायिक व्यवस्था न निकाले. पुलिस और न्यायिक व्यवस्था में राजनीतिक दखलंदाजी बिल्कुल नगण्य हो जाए. इसके साथ ही पुलिस और न्यायिक व्यवस्था आम लोगों, गरीब लोगों को न्याय दिलाने में संवेदनशील हो.
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के तहत 3 नए कानूनों का मकसद न्याय देना और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना बताया गया है. लेकिन ये बहुत हद तक इस पर निर्भर करता है कि व्यवहार में इन कानूनों पर कितनी संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ बिना भेदभाव के अमल हो पाता है.
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