हम सब इधर मज़हबी मसले में ऐसा उलझे हुए हैं कि इसका कोई खाबो-ख्याल ही नही है कि उधर, ड्रैगन यानी चीन हमारे लद्दाख में घुसपैठ की पूरी तैयारी कर चुका है.इसका अहसास भी हमें कराया, अमेरिकी सेना के एक अहम कमांडिंग जनरल ने जो दो दिन पहले ही भारत के दौरे पर आए थे. अब ऐसे में, ये सवाल उठता है कि हमारे लिए धर्म को लेकर सड़कों पर लड़ी जा रही ये आपसी लड़ाई ज्यादा महत्वपूर्ण है या फिर अपनी अंतराष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा करना और उसे किसी भी दुश्मन की घुसपैठ करने से रोकना जरूरी है?


पुरानी  कहावत है कि आपके घर में हो रही लड़ाई की  आवाज़ आपके पड़ोसी का हौंसला बुलंद करती है.अगर खैरख्वाह होगा,तो वह इसे सुलझाने में अपनी दखल देगा लेकिन अगर वह आपसे खार खाता है,तो वो इसका तमाशा भी देखेगा और पूरे मोहल्ले में उसका ढिंढोरा भी पिटेगा. अंतराष्ट्रीय मंच पर हमारे पड़ोसी चीन का भी कुछ यही हाल है.मजहब के नाम पर हमारे घर में उठी बेवजह की इस लड़ाई के वह न सिर्फ मजे ले रहा है,बल्कि अपने एक बड़े मकसद को अंजाम देने के लिए भी जी-जान से जुटा हुआ है.


ये भारत के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक व चिंताजनक स्थिति है.इसलिये कि जो देश अपने अंदरुनी झगड़े में इतना उलझ जाता है,वही बाहरी दुश्मन के लिए सबसे साफ्ट टारगेट भी बन जाता है.हमें अपनी रक्षा ताकत पर पूरा भरोसा है लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी लोकतंत्र में हर बड़ा फैसला सरकार ही लेती है. फिलहाल हमारी सरकार जाने-अनजाने में  एक बड़ी दिक्कत का सामना कर रही है. सत्तारुढ़ पार्टी के किसी एक अपरिपक्व नेता की किसी एक वजह के चलते दुनिया के 57 इस्लामिक देश उस पर दबाव की राजनीति कर रहे हों,तब उस सरकार का सारा ध्यान उन्हें समझाने व उनका गुस्सा बुझाने पर ही रहता है.कुछ यही हालत इस वक़्त हमारे देश की भी है,जिसका फायदा उठाने की ताक में चीन गिद्ध निगाहें लगाये बैठा है.इसलिये फिलहाल तो मोदी सरकार को नेशनल हाई -वे पर लगे उस साइन बोर्ड का बेहद सख्ती से पालन करना होगा कि,-"सावधानी हटी,तो दुर्घटना घटी."


दरअसल,चीन पिछले दो-ढाई साल से हमारी सीमाओं के नजदीक जिस तेजी के साथ अपना पूरा तामझाम जुटाने में लगा है,उससे हमारी सेना बेखबर नहीं है.लेकिन अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क का एक शीर्ष जनरल ये कहे कि लद्दाख में भारत से लगती सीमा (Border) के निकट चीन (China) द्वारा कुछ रक्षा बुनियादी ढांचे स्थापित किया जाना ‘‘चिंताजनक’’ है और इस क्षेत्र में चीनी गतिविधियां ‘‘आंख खोलने’’ वाली है. तो जाहिर है कि ये स्थिति हमारे लिए बेहद नाजुक है क्योंकि हम तो अभी अपने अंदरुनी झगड़ों से ही न तो पार पा सके हैं और न ही उन तमाम इस्लामिक मुल्कों के गुस्से को ही ठंडा कर पाए हैं.


दरअसल, भारत के दौरे पर आए अमेरिकी सेना के प्रशांत क्षेत्र के कमांडिंग जनरल चार्ल्स ए. फ्लिन ने कहा है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) का ‘‘अस्थिर करने वाला और दबाव बढ़ाने वाला’’ व्यवहार उसकी मदद नहीं करने जा रहा है और भारत से लगती अपनी सीमा के निकट चीन द्वारा स्थापित किए जा रहे रक्षा बुनियादी ढांचे चिंताजनक हैं.


हमें अपनी सेना के सर्वोच्च कमांडर की काबिलियत और दूरदृष्टि पर कोई शक नहीं है और होना भी नहीं चाहिए लेकिन साथ ही ये भी याद रखना होगा कि दुनिया की तीन बड़ी ताकतें-अमेरिका,चीन और रुस हमसे बहुत आगे की न सिर्फ सोचते हैं बल्कि उसी लिहाज़ से वे अपनी रक्षा-रणनीति को अंजाम भी देते हैं. इसीलिये अमेरिका की इस सलाह को हल्के में लेकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अमेरिकी जनरल ने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि (चीनी सेना की) पश्चिमी थिएटर कमान में जो कुछ बुनियादी ढांचा तैयार किया जा रहा है, वह चिंताजनक है.’’ चीनी सेना की पश्चिमी थिएटर कमान भारत की सीमा से लगी है. उन्होंने कहा कि चीन का ‘‘अस्थिर करने वाला और दबाव बनाने वाला’’ व्‍यवहार उसकी मदद नहीं करने जा रहा है.


पिछले दो साल से भारत और चीन के बीच गतिरोध कायम है और दोनों देशों के बीच दर्ज़न भर से भी ज्यादा बार हो चुकी वार्ताओं से भी इसका कोई समाधान अभी तक नहीं निकल पाया है.इसलिये अमेरिकी सेना के कमांडर फ्लिन का ये कहना बिल्कुल जायज़ है कि "जब कोई चीन के सैन्य शस्त्रागार को देखता है, तो उसे यह सवाल पूछना चाहिए कि आखिर इसकी जरुरत क्यों है." उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए, मेरे पास आपको यह बताने के लिए कोई ‘जादुई आइना’ नहीं है कि यह (भारत-चीन सीमा गतिरोध) कैसे समाप्त होगा या हम कहां होंगे.’’


अंतराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार मानते हैं कि "प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जिस तरह से मेहमाननवाजी की ,वो अभूतपूर्व थी. मोदी ने गुजरात में आम लोगों के जरिये न सिर्फ उनका ऐतिहासिक स्वागत कराया बल्कि साबरमती नदी के किनारे ले जाकर खुद अपने हाथ से उन्हें चाय परोसकर ये संदेश भी दिया कि भारत "वसुधैव कुटुम्बकम" की भावना में विश्वास रखता है.दरअसल,वो कूटनीति का ऐसा लम्हा था,जो भारत-चीन के गहरे होते रिश्तों का गवाह बनने के साथ ही बाकी दुनिया को चिढ़ाने के लिए भी पर्याप्त था. भारत ने तो अपनी तरफ से मेजबानी में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन चीन ने इसे शायद हमारी कमजोरी समझ लिया.उसने हमारा दोस्त बनकर पीठ में छुरा घोंपने का काम किया,जिसके बारे में भारत सोच भी नहीं सकता था."


शायद इसीलिये अमेरिकी कमांडर फ्लिन ने उस वाकये का जिक्र किये बगैर ये कहा कि साल 2014 और 2022 के बीच चीन का व्यवहार कैसे बदला है,इसका भारत को अहसास होगा. उन्होंने ये भी कहा कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन का अस्थिर और कटू व्यवहार मददगार नहीं है.


लेकिन चीन की बौखलाहट बताती है कि अमेरिका ने भारत का साथ देते हुए उसकी दुखती नब्ज़ पर हाथ रख दिया है. इसीलिये चीन को अमेरिका के टॉप मिलिट्री जनरल के लद्दाख को लेकर किए गए दावे पर तीखी प्रतिक्रिया देने के लिए मैदान में कूदना ही पड़ा.गुरुवार को चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा कि भारत और चीन के पास बातचीत के जरिए सीमा मुद्दे को ठीक से हल करने की इच्छा और क्षमता है. चीन ने अमेरिका पर आग में घी डालने और क्षेत्रीय शांति को भंग करने का आरोप भी लगाया लेकिन साथ ही ये दावा भी किया कि भारत-चीन सीमा पर सैन्य गतिरोध स्थिर हो रहा है. रक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि फिलहाल चीन पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है, इसलिये हमारी कूटनीति को इस मामले में छाछ को भी फूंक-फूंक कर ही पीना होगा.



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