2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने नारा दिया था कांग्रेस मुक्त भारत. भारत पूरी तरह से कांग्रेस मुक्त तो नहीं हुआ लेकिन 2014 और उसके बाद के कुछ साल में बीजेपी ने देश की करीब 75 फीसदी आबादी पर अपनी सत्ता जमा ली थी. वक्त बीता. बीजेपी का ग्राफ गिरा. लेकिन इतना नहीं कि कांग्रेस केंद्र में आ सके. राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब के अलावा और भी कहीं कामयाबी नहीं मिली. और नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता हताश-निराश नज़र आने लगे. ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसे कुछ नेताओं का ठिकाना बनी बीजेपी, जिसकी कांग्रेस से जन्मजात अदावत है. लेकिन कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान किसी ने पहुंचाया तो वो हैं ममता बनर्जी, जिनकी पार्टी टीएमसी में शामिल होने वाले कांग्रेसियों की एक लंबी फेहरिश्त है.


इनमें असम की सांसद रहीं सुष्मिता देव से लेकर मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा और गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिन्हो फेलेरो तक शामिल हैं. इनके अलावा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी से लेकर बिहार के बड़े कांग्रेसी नेता कीर्ति आजाद और यूपी में प्रियंका गांधी की टीम के अहम सदस्य रहे ललितेश पति त्रिपाठी शामिल हैं. इनके अलावा अशोक तंवर, सुबल भौमिक जैसे तमाम नेता हैं, जो कांग्रेस छोड़कर टीएमसी में आ गए हैं. और अब ऐसा लगने लगा है कि टीएमसी का नया नारा बन गया है नेता मुक्त कांग्रेस. तो आखिर वो क्या वजह है कि कांग्रेस के बागियों को ममता बनर्जी इतनी तवज्जो दे रही हैं? क्या इसके पीछे 1997 में सोनिया गांधी से ममता बनर्जी की हुई खटपट है, जिसका बदला ममता बनर्जी कांग्रेस के नेताओं को अपने पाले में खींचकर निकाल रही हैं. आखिर हुआ क्या था 1997 में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी के बीच?



 


आखिर क्यों ममता ने छोड़ी थी कांग्रेस?


पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस की बेहद लोकप्रिय युवा नेता थीं. वामपंथ के खिलाफ मज़बूती से कांग्रेस का कोई नेता लड़ाई लड़ रहा था, तो वो ममता बनर्जी ही थीं. लेफ्ट के कार्यकर्ताओं के हमले में ममता की मौत होते-होते बची थी, लेकिन फिर भी वो मज़बूती से खड़ी रही थीं. यही वजह थी कि राजीव गांधी उन्हें खास तवज्जो देते थे और उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे. 1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ममता को केंद्र में मंत्री बना दिया. लेकिन ममता पद पर लंबे समय तक नहीं टिकी. 1992 में उन्होंने कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बाद भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और हार गईं. इसके बाद उन्होंने केंद्र के टाडा कानून के विरोध में संसद में हंगामा किया और फिर मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. 1995 के आखिर में उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया, जिसकी वजह से कांग्रेस में ही उनके और भी दुश्मन हो गए.


1996 आते-आते कांग्रेस में ममता बनर्जी के दुश्मनों की एक लंबी फेहरिस्त हो गई थी. तब कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार चुकी थी. नरसिम्हा राव पर घोटाले के आरोप लगे थे. और आरोप सिद्ध होने से पहले ही उन्हें अध्यक्ष पद की कुर्सी से हटा दिया गया था. सीताराम केसरी कांग्रेस के नए अध्यक्ष थे और कांग्रेस देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी. 1997 में ममता ने फिर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की कोशिश की. तब पश्चिम बंगाल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे सोमेंद्र नाथ मित्रा. लोग उन्हें सोमेन मित्रा भी कहते थे. ममता बनर्जी की सोमेन मित्रा से बिल्कुल भी नहीं बनती थी. ममता बनर्जी को लगता था कि सोमेन मित्रा लेफ्ट के सिंपेथाइजर हैं और उनके लिए ही काम करते हैं. ममता सोमेन मित्रा को तरबूज भी कहती थीं, क्योंकि तरबूज अंदर से लाल होता है और वामपंथी दलों की शिनाख्त भी लाल रंग से ही होती है. हालांकि ममता बनर्जी 27 वोटों से सोमेन मित्रा से चुनाव हार गईं. उस वक्त ममता प्रदेश यूथ कांग्रेस की अध्यक्ष हुआ करती थीं.


कुल मिलाकर बंगाल कांग्रेस के नेता तब दो धड़ों में बंटे हुए थे. नरम दल के नेताओं का नेतृत्व सोमेन मित्रा के हाथ में था, जबकि गरम दल का प्रतिनिधित्व ममता बनर्जी कर रही थीं. कांग्रेस में ये फूट साफ-साफ समझ मे आ रही थी. इस बीच सीताराम केसरी और प्रधानमंत्री देवगौड़ा के बीच की तल्खी इतनी बढ़ गई कि कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. देवगौड़ा को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. इससे ममता बनर्जी और नाराज हो गईं. उन्होंने सवाल किया कि जब कांग्रेसी समर्थक उनसे पूछेंगे कि एक सेक्युलर सरकार से समर्थन वापस क्यों लिया गया तो वो क्या जवाब देंगी. ममता लिखती हैं कि वो समझ ही नहीं पाईं कि सीताराम केसरी ने ऐसा क्यों किया. और इससे भी ज्यादा नाराज ममता तब हुईं जब एक हफ्ते के अंदर ही सीताराम केसरी ने फिर से संयुक्त मोर्चा की सरकार का समर्थन कर दिया, बस मुखिया इस बार देवगौड़ा की जगह गुजराल थे.


इस बीच सीताराम केसरी ने घोषणा कर दी कि कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन कोलकाता में होगा. तारीख तय हुई 8, 9 और 10 अगस्त 1997. लेकिन ममता बागी हो चुकी थीं. उन्होंने तय किया कि 9 अगस्त को वो भी कोलकाता में एक बड़ी रैली करेंगी. कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में था तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्रा की ही थी. ये भी तय हुआ कि कोलकाता के ही अधिवेशन में सोनिया गांधी आधिकारिक तौर पर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करेंगी. ऐसे में कोलकाता का अधिवेशन कांग्रेस के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण हो गया. कांग्रेस नेताओं को सोनिया गांधी के शामिल होने की वजह से लगा कि ममता की रैली तो अब फ्लाप हो ही जाएगी. वहीं ममता ने कहा कि उनकी रैली होगी और उनकी रैली में ज़मीन से जुड़े कांग्रेसी नेता शामिल होंगे.


सीताराम केसरी ने ममता को रोकने की एक आखिरी कोशिश की. कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जीतेंद्र प्रसाद और कोषाध्यक्ष अहमद पटेल को ममता के पास भेजा. दो घंटे तक दोनों नेताओं ने ममता को मनाने की कोशिश की. ममता नहीं मानी. कांग्रेसी नेताओं ने कहा कि ममता की इस रैली से सोनिया गांधी को अच्छा नहीं लगेगा, तो ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी को भी अपनी रैली में बुलाने के लिए निमंत्रण दिया. कांग्रेस का अधिवेशन भी हुआ और ममता की रैली भी. कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने वाला कोई नेता ममता की रैली में न जा सके, इसके लिए अधिवेशन के दौरान दरवाजे बंद रखे गए. लेकिन कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं जैसे मार्ग्रेट अल्वा, सुनील दत्त, सीके जाफर शरीफ और एआर अंतुले जैसे नेताओं ने ममता को उनके घर फोन किया. वहीं ममता की रैली में करीब 3 लाख लोग जुटे, जो कांग्रेस अधिवेशन वाली जगह से महज 2 किलोमीटर दूर हो रही थी.


ममता ने कहा, अब इंदिरा जी नहीं हैं...राजीव जी नहीं हैं....तो अब कांग्रेस में क्या है. भीड़ ने चिल्लाकर ममता का समर्थन किया. ममता ने कहा कि अब मैं प्रदेश कांग्रेस कमिटी और ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी को दिखाउंगी कि कांग्रेस में निष्पक्ष चुनाव कैसे होते हैं. हालांकि ममता ने इस रैली में ये नहीं कहा कि वो अपनी अलग पार्टी बनाएंगी.उन्होंने सुभाष चंद्र बोस की फॉरवर्ड ब्लॉक, देशबंधु चितरंजन दास की स्वराज पार्टी और इंदिरा गांधी का उदाहरण दिया कि कैसे कांग्रेस के साथ रहते हुए भी काम किया जा सकता है. कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता भी जानते थे कि ममता के साथ लोग हैं, लिहाजा कांग्रेस ममता के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं ले पा रही थी. खुद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कहा था-


'ममता मेरी बेटी की तरह हैं. उनको कांग्रेस से निकालने पर फायदा सीपीएम को ही होगा. वो भी उन्हीं ताकतों के खिलाफ लड़ रही हैं, जिनके खिलाफ मैं लड़ रहा हूं.  जल्दी ही ममता को पता चलेगा कि चचा सही थे और वो मेरे पास आएंगी. ममता के पास कांग्रेस में हमेशा जगह है. वो जब भी मेरे पास आएंगी और किसी भी पद के लिए कहेंगी, मैं उन्हें दूंगा.'


इस बीच सीताराम केसरी ने 29 नवंबर, 1997 को इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. गुजराल की सरकार गिर गई. इससे कई कांग्रेसी नेता भी सीताराम केसरी से खफा हो गए. खुद प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि सीताराम केसरी खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. केसरी से नाराज नेताओं की एक लंबी लिस्ट तैयार हो गई. और फिर कांग्रेस नेताओं ने सोनिया गांधी से कहा कि वो कांग्रेस का नेतृत्व करें. कांग्रेस नेताओं ने नारा उछाला. सोनिया लाओ, देश बचाओ. ममता बनर्जी और एक कदम आगे बढ़ गईं. नारा दिया. केसरी भगाओ, कांग्रेस बचाओ...ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी के घर 10 जनपथ भी आना जाना शुरू कर दिया. खुलकर सोनिया गांधी के साथ खड़ी हो गईं. सीताराम केसरी ने जब कहा कि ममता उनकी बेटी की तरह हैं तो ममता ने कहा कि उनके पिता हैं और उन्हें सीताराम केसरी की ज़रूरत नहीं है. इस बीच 12 दिसंबर, 1997 को सोनिया ने ममता को दिल्ली बुलाया. ममता ने मुलाकात की और कहा कि उन्हें पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लेना चाहिए. सोनिया ने खुद को विदेशी मूल का बताकर नेतृत्व से इन्कार कर दिया लेकिन 29 दिसंबर, 1997 को कांग्रेस की होने वाली रैली में शामिल होने के लिए हामी भर दी.


सोनिया ने ममता और सोमेन मित्रा दोनों से कहा कि वो मिलकर बंगाल के लिए काम करें. ममता को उम्मीद थी कि सोनिया के हस्तक्षेप से चीजें उनके पक्ष में हो जाएंगी. सोनिया भी नहीं चाहती थीं कि ममता कांग्रेस से अलग हों. और इसके लिए सोनिया ने एआईसीसी के महासचिव ऑस्कर फर्नांडिज से एक नोट तैयार करने को कहा, जो पश्चिम बंगाल के प्रभारी भी थे. ऑस्कर फर्नांडिज ने नोट तैयार किया, लेकिन उन्होंने ममता से मुलाकात नहीं की. ममता ने आरोप लगाया कि प्रणब मुखर्जी, प्रियरंजन दास मुंशी और सोमेन मित्रा ने ऑस्कर फर्नांडिज को इतना उलझा दिया कि ऑस्कर ममता से मिल ही नहीं सके. ममता को आखिरी उम्मीद सोनिया से थी. लेकिन सोनिया ने भी मदद नहीं की. ममता ने कहा कि उस वक्त के नेता ममता को नेता के तौर पर स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे.


ममता ने मन बना लिया. अपनी पार्टी बनाने की तैयारी शुरू कर दी. निर्वाचन आयोग से मुलाकात का वक्त भी तय कर लिया. 17 दिसंबर को कांग्रेस के अजीत पांजा ममता के पास मैसेज लेकर पहुंचे. मैसेज में कहा गया था कि सोनिया गांधी ने संदेश दिया है कि ममता निर्वाचन आयोग के साथ अपनी मुलाकात को रद्द कर दें और अगले 24 घंटे इंतजार करें. सोनिया पहले ऑस्कर फर्नांडिज और फिर ममता से बात करेंगी. ममता मान गईं. कहा कि वो 17 दिसंबर को निर्वाचन आयोग नहीं जाएंगी. लेकिन उन्होंने दूसरे नेताओं के हाथ नई पार्टी बनाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज निर्वाचन आयोग को भिजवा दिए थे.


इस बात की जानकारी सिर्फ तीन लोगों को थी. खुद ममता बनर्जी. मुकुल रॉय और रतन मुखर्जी. हालांकि सोनिया ने 17 दिसंबर को ही ममता को अपने घर बुलवाया. सोनिया ने ऑस्कर फर्नांडिज से कहा कि मुद्दे को सुलझाया जाए. तय हुआ कि ममता बनर्जी बंगाल की चुनाव प्रभारी बनेंगी. इसके तहत ममता को आगामी लोकसभा चुनाव की जिम्मेदारी मिलनी थी. साथ ही लोकसभा की 42 में से 21 सीटों पर ममता अपनी पसंद के उम्मीदवार उतार सकती थीं. खुद सीताराम केसरी ने भी इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. 19 दिसंबर की रात सोनिया गांधी ने ममता से मुलाकात की. ऑस्कर फर्नांडिज ने कहा कि ममता के लिए लिए गए फैसले को न्यूज़ एजेंसी पीटीआई को जल्द ही भेजा जाएगा. राजी-खुशी ममता बनर्जी 20 दिसंबर को दिल्ली से कोलकाता के लिए निकल गईं.


21 दिसंबर को हैदराबाद में सीताराम केसरी ने घोषणा की कि ममता बनर्जी इलेक्शन कैंपेन कमिटी की कन्वेनर होंगी लेकिन वो सिर्फ प्रचार का काम देखेंगी. प्रत्याशियों के चयन में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा. अजीत पांजा और बंगाल के मुख्यमंत्री रह चुके सिद्धार्थ शंकर रे ने फैक्स भेजकर सीताराम केसरी के इस फैसले की मुखालफत की. 22 दिसंबर को ममता बनर्जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई. घोषणा की कि वो और उनके समर्थक ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ेंगे. अभी ममता बनर्जी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ही रही थीं कि उनके पास खबर आई कि उन्हें कांग्रेस से छह साल के लिए बाहर कर दिया गया है.


ममता बनर्जी तुरंत अपनी मां के पास गईं. उनकी मां गायत्री देवी लगातार ममता से कांग्रेस में बने रहने के लिए कहती रही थीं. लेकिन उस दिन गायत्री देवी ने कहा-'मैं फिर कभी तुमसे कांग्रेस में काम करने के लिए नहीं कहूंगी. जाओ और तृणमूल कांग्रेस के लिए काम करो. मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है.'


कांग्रेस के साथ ही और लोगों को लगा कि ममता पार्टी नहीं बना पाई हैं. वो कांग्रेस के झांसे में आकर पार्टी बनाने से चूक गई हैं. लेकिन ऐसा नहीं था. पार्टी बन चुकी थी. रतन मुखर्जी, अजीत पांजा और मुकुल ऱॉय पार्टी बना चुके थे. बात जब सिंबल की आई तो निर्वाचन आयोग में बैठे-बैठे ममता ने कागज पर जोड़ा घास फूल बना दिया. और इस तरह से 1 जनवरी, 1998 को नई पार्टी अस्तित्व में आई जिसका नाम हुआ ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस. कांग्रेस से निकली ममता बनर्जी वाजपेयी की सरकार में केंद्र में रेल मंत्री बनीं, लेकिन राज्य की सत्ता में आने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा. आखिरकार 2011 में उनका सपना पूरा हुआ और वो बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर स्थापित हुईं तो अब भी उन्हें कोई हिला नहीं पाया है.


लेकिन अब बंगाल का दायरा शायद ममता बनर्जी के लिए छोटा पड़ने लगा है. उन्हें विस्तार की ज़रूरत है और इसमें काम आ रही है ममता बनर्जी की सोनिया गांधी से करीब 22 साल पुरानी अदावत, जिसमें ममता सोनिया को लगातार मात देती हुई दिख रही हैं और सोनिया के सिपहसालारों को अपने पाले में करके ममता अब कांग्रेस के खिलाफ ही सबसे बड़ा दांव खेल रही हैं. 


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