(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
क्या राजनीतिक नैतिकता को मिथ्या मान लिया जाए?
संविधान सभा द्वारा संविधान निर्माण के पश्चात और उसे लागू होने के पूर्व संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर समापन भाषण के दौरान डॉ. राजेंद्र प्रासद ने खेद जाहिर करते हुए कहा था कि "एक विधि बनाने वाले के लिए बौद्धिक उपकरण उपेक्षित है. इससे भी अधिक वस्तुस्थिति पर संतुलित विचार करने की तथा स्वंत्रतापूर्वक कार्य करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है. सबसे पहले अधिक आवश्यकता इस बात की है कि जीवन के उन आधारभूत तत्वों के प्रति सच्चाई हो. एक शब्द में ये कहना चाहिए कि चरित्र बल हो. ये संभव नहीं है कि व्यक्ति के नैतिक गुणों को मापने के लिए कोई मापदंड तैयार किया जा सके और जब तक यह सम्भव नहीं होगा, तब तक हमारा संविधान दोषपूर्ण रहेगा''.
डॉ. राजेंद्र प्रासद की टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र का यथार्थ है, जो दिल्ली में उपजे राजनितिक संकट के बीच सही मायने में मौजूं है. दिल्ली की सरकार में विधि बनाने वाले का प्रमुख का जेल में होने से न तो पूरी तरह स्वतंत्र है और न ही कोई ऐसा नैतिक उपकरण है जिसके आधार पर अरविन्द केजरीवाल को पूरी तरह गलत या सही ठहराया जाए. पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट ने भी अपनी टिप्पणी में कहा था ''राष्ट्रीय हित और सार्वजनिक हित की मांग है कि मुख्यमंत्री पद पर रहने वाला कोई भी व्यक्ति लंबे समय तक या अनिश्चित समय के लिए अनुपस्थित न रहे. दिल्ली जैसी व्यस्त राजधानी ही नहीं, किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री का पद कोई औपचारिक पद नहीं है. ये ऐसा पद है जहां पदधारक को प्राकृतिक आपदा या संकट से निपटने के लिए 24 घंटे और सातों दिन उपलब्ध रहना पड़ता है.''
लेकिन हाई कोर्ट भी संविधान में कोई ठोस उपचार नहीं होने की वजह से दिल्ली के संकट पर अनिर्णीत स्थिति में है. दिल्ली हाई कोर्ट कहीं न कहीं यह उम्मीद में है कि इस संकट का संवैधानिक उपचार नहीं होने की स्थिति में समाधान नैतिकता द्वारा किया जाए. बेशक, भारत में आम तौर पर यह उम्मीद की जाती है कि जहां संविधान और कानून मौन हो, वहां नैतिकता के आधार पर लोकतांत्रिक मूल्यों का संरक्षण किया जाए. लेकिन टके का सवाल है कि नैतिकता का पैमाना क्या होगा?
दरअसल, संविधान निर्माण के दशकों बीत जाने के बाद भी हम नैतिकता का कोई ठोस पैमाना नहीं ढूंढ पाए हैं. अलबत्ता नैतिकता वक्त के साथ और अबूझ होता जा रहा है. जबकि विकसित राष्ट्रों में ऐसा नहीं है. कई देशों ने समय समय पर राजनीतिक मूल्यों के संरक्षण हेतु नैतिक संहिता का विकास कर इस मुद्दे का समाधान किया है. कनाडा, बेजील आदि देशों में आचार आचार/नैतिक संहिता लागू की गई है.
मोटे तौर पर नैतिकता का संबंध इस बात से है कि मेरी भावनाएं मुझे क्या बताती हैं कि यह सही है या गलत. नैतिक होने का मतलब वही करना है जो कानून को आवश्यक है. नैतिकता में व्यवहार के वे मानक भी शामिल हैं, जिन्हें हमारा समाज स्वीकार करता है. भारत की प्राचीन राज व्यस्था में नैतिकता का स्थान था. प्राचीन राज व्यवस्था में नैतिकता का निर्णय विक्तगत तौर पर आत्मनिर्भर होने के साथ ही धार्मिक तौर पर परनिर्भर भी था. कोई अगर नैतिक तौर पर व्यक्तिगत निर्णय नहीं लेता था तो धर्म के मानक द्वारा निर्णय लेने को विवश किया जाता था. धार्मिक मानकों द्वारा नैतिक निर्णय लेने के पीछे समाज का शास्ति (बल) कार्य करता था.
भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति में गाहे-बगाहे कई बार ऐसा मौका जब कुछ व्यक्ति विशेष ने अपने इच्छाशक्ति से नैतिकता का नजीर पेश किया. 1956 में अरियालूर रेल दुर्घटना में 114 लोगों की मौत के बाद तत्कालीन रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दिया था. जिसे नेहरू ने इस्तीफा स्वीकारते हुए संसद में कहा कि वह इस्तीफा इसलिए स्वीकार कर रहे हैं ताकि ये एक नजीर बने इसलिए नहीं कि हादसे के लिए किसी भी रूप में शास्त्री जिम्मेदार हैं.
नैतिकता के मामले में कुछ और नज़ीर भी भारतीय लोकतंत्र में है. 1962 के युद्ध में चीन से मिली शिकस्त के बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री वी. के. कृष्ण मेनन के खिलाफ गुस्सा उफान पर था. मेनन ने इस्तीफा दिया. साल 1987 में बोफोर्स घोटाले मामले को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन रक्षा मंत्री वी. पी. सिंह के बीच तनातनी हो गई. वी. पी. सिंह ने अपने मंत्रालय से इस्तीफा सौंपा दिया. जैन हवाला कांड में नाम आने पर बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने साल 1996 में संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था.
इस केस में क्लीनचिट मिलने के बाद साल 1998 में वह संसद के लिए फिर से निर्वाचित हुए. हवाला कांड में नाम आने के बाद नेता शरद यादव ने भी नैतिकता के आधार पर संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. बाद में इस मामले में वह भी बाइज्जत हुए. वर्ष 1993 में तत्कालीन नागरिक उड्डयन एवं पर्यटन मंत्री माधवराव सिंधिया एक जहाज क्रैश होने पर इस्तीफा दे दिया था.
मगर खेद है कि ऐसे ज्यादा मौके आये जब नैतिकता को हथियार बना कर इसका बेजा इस्लेमाल किया गया. जिसकी गिनती भी संभव नहीं है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से अनेकों बार इस्तीफा दिया. मगर उनकी नैतिकता सत्ता बदलने तक के लिए था. पिछले दिनों, महराष्ट्र, बिहार, जैसे कई राज्यों के क्षेत्रीय दलों में दलों में तोड़-फोड़ हुआ, जिसे राजनीतिक नैतिकता के सवाल पर कठघरे में भी खड़ा किया गया. मगर सभी दलों ने इस दौरान अपनी राजनीतिक नैतिकता को अपनी सुविधा के मुताबिक परिभाषित किया है.
राजनीतिक नैतिकता के सवाल पर महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री फडऩवीस की वो टिपण्णी भारतीय राजनीति की नैतिकता का स्याह सच है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘आदर्शवाद राजनीति में अच्छा है. किंतु यदि आपको धकेल दिया गया हो तो फिर किसे परवाह? मैं इस बात का वायदा नहीं कर सकता कि मैं शत-प्रतिशत नैतिक राजनीति करता हूं.’’ जाहिर है राजनीतिक नैतिकता का सबका अपना-अपना पैमाना है. दिल्ली के मुख्यमंत्री का राजनीतिक बुनियाद ही नैतिकबल के नारे के साथ शुरू हुआ था. मगर वर्तमान हालत में सबसे अधिक नैतिकता को अपनी सुविधा अनुसार इस्तेमाल करने का आरोप अरविन्द केजरीवाल पर ही है. केजरीवाल भारतीय राजनीति में भ्रामक नैतिकता की परिभाषा गढ़ रहे हैं, ऐसा गहरा आरोप उन पर राजनीतिक जानकारों द्वारा लगाया जा रहा है.
एक चलित परिभषा है कि संवैधानिक नैतिकता का तात्पर्य संविधान के मूल सिद्धांतों का पालन करना है. इसमें एक समावेशी और लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया का समर्थन करना शामिल है, जो व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों हितों को संतुष्ट करता है. लेकिन ये सुविधावादी नैतिकतावादियों को मौका देता है. जहां संविंधान मौन है, वहां इसकी व्यख्या सुविधावादी नैतिकतावादी अपने अनुरूप गढ़ लेते हैं. जहां तक व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों हितों को संतुष्ट करने कि बात तो व्यक्तिगत निर्णय उनकी स्वेच्छा होती है और अपने समर्थकों का हित वे सामूहिक संतष्टि को सिद्ध कर देते हैं.
दरअसल, भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में नैतिकता मिथ्या बनता जा रहा है. आदि गुरु शंकराचार्य के मुताबिक़ मिथ्या का अर्थ है जो न सत्य, न असत्य है. भारतीय लोकतांत्रिक राजनीतिक नैतिकता न सत्य है, न असत्य है. असल में भारत में राजनीतिक नैतिकता मिथ्या साबित हो रहा है.
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