क्या राजनीति को लेकर संजीदा नहीं हैं राहुल गांधी, कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है खामियाजा, विपक्षी दल भी काट रहे हैं कन्नी
भारतीय राजनीति में इस वक्त कांग्रेस की हालत उस डूबती हुई नैया की तरह होते जा रही है, जिस पर कोई सवारी नहीं करना चाहता. इसके बावजूद पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी राजनीति को लेकर उतना संजीदा नहीं दिख रहे हैं और 'अपनी डफली आप बजाना' के मूड से बाहर निकल ही नहीं रहे हैं.
पिछले 4 दिनों से राहुल गांधी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और लंदन में अपने बयानों को लेकर सुर्खियों में हैं. 2 मार्च को त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के विधानसभा चुनावों का नतीजा आना था, लेकिन उससे पहले ही राहुल गांधी देश से बाहर चले जाते हैं. ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हुआ है, इससे पहले भी वो कई बार ऐसा कर चुके हैं कि जब पार्टी को उनकी जरूरत देश के सियासी पिच पर होती तो, उस वक्त राहुल गांधी विदेश में नरेंद्र मोदी सरकार और बीजेपी के खिलाफ आग उगल रहे होते हैं. राहुल गांधी के इस प्रवृत्ति से साफ है कि उनके लिए राजनीति दिन-रात संघर्ष करने का नाम नहीं है. वो किसी कंपनी की तरह पार्टी में काम करने वाले सीईओ या वरिष्ठ अधिकारी जैसा रवैया अपना लेते हैं कि दो-तीन महीने मैंने जमकर काम कर लिया और अब मैं थोड़े दिन आराम करूंगा. लेकिन क्या इससे कांग्रेस की खोई सियासी ज़मीन वापस मिल जाएगी. शायद इस पर राहुल गांधी को गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
राहुल गांधी को शायद लगता है कि विदेशी सरज़मीं पर वे मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना करेंगे, तो इससे कांग्रेस को लेकर भारत में उम्मीदें बढ़ेंगी. जबकि होता बिल्कुल इसके उल्टा है. विदेशी ज़मीन पर राहुल गांधी के दिए गए एक-एक भाषण को भारत में बीजेपी अपने फायदे का हथियार बना लेती है. ऐसा पिछले 10 साल से होते आ रहा है, फिर भी राहुल गांधी इससे कोई सबक नहीं ले पा रहे हैं, जिसका खामियाजा अंत में कांग्रेस को ही भुगतना पड़ रहा है.
राहुल गांधी ये क्यों भूल जा रहे हैं कि वो भारतीय राजनीति में उस पार्टी के सबसे बड़ चेहरे और महत्वपूर्ण नेता हैं, जिसका विपक्षी दल के तौर पर पूरे भारत में अभी भी सबसे ज्यादा जनाधार और पकड़ हैं. जब राहुल गांधी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में बोल रहे थे, तो क्या उनके जेहन में ये बात नहीं थी कि पिछले 3 साल से चीन को लेकर भारतीय जनमानस में किस तरह की धारणा है. आप चीन की या फिर चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रशंसा करते हैं, संदर्भ चाहे कोई भी हो, क्या भारतीय जनता इस बात को स्वीकार करने को तैयार है. ये कांग्रेस के सबसे बड़े नेता होने की हैसियत से राहुल गांधी को जरूर सोचना चाहिए. पुराने अनुभव भी यहीं कहते हैं. जब-जब राहुल गांधी ने विदेश में इस तरह का कोई भी बयान दिया है. भारत में बीजेपी ने उसे कांग्रेस के खिलाफ ही इस्तेमाल किया है और बहुत हद तक उसे कामयाबी भी मिली है. ये भी तथ्य है कि एक राजनीतिक दल के तौर पर राहुल गांधी के बयानों से कांग्रेस को फायदा नहीं बल्कि नुकसान ही हुआ है. जनता के बीच कांग्रेस की छवि धूमिल ही हुई है. राहुल गांधी को ये बात अच्छे से याद रखना चाहिए कि उनकी और कांग्रेस की छवि एक-दूसरे से जुड़ी हुई है.
जनता के बीच कांग्रेस की धूमिल होती छवि का ही नतीजा है कि धीरे-धीरे बाकी विपक्षी दल उससे किनारा कर रहे हैं. चाहे ममता बनर्जी हो या फिर अखिलेश यादव या फिर के. चंद्रशेखर राव. कांग्रेस को लेकर जनता के बीच जो धारणा बनते जा रही है, उसको देखते हुए बाकी विपक्षी दलों के नेताओं में भी ये धारणा मजबूत होते जा रही है कि कहीं कांग्रेस से हाथ मिलाने के चक्कर में उन्हें अपने ही राज्य में नुकसान न झेलना पड़े. यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने एलान कर दिया है कि 2024 के चुनाव में वो किसी के साथ हाथ नहीं मिलाने वाली. उनके कहने का सीधा मतलब है कि उनकी पार्टी 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस से दूर ही रहेगी.
कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से नुकसान होता है, इसका ताजा उदाहरण त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे हैं. इसमें बीजेपी को हराने के लिए सीपीएम, कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ी. उसे उम्मीद थी कि इससे पार्टी को तो फायदा मिलेगा ही, साथ ही त्रिपुरा में बीजेपी के लिए सत्ता वापसी की राह भी मुश्किल हो जाएगी. लेकिन हुआ इसके विपरीत. कांग्रेस से गठबंधन का न तो सीपीएम को कोई लाभ मिला और न ही बीजेपी सूबे की सत्ता से बाहर हो पाई. उल्टा सीपीएम को पिछली बार के मुकाबले नुकसान ही उठाना पड़ा. 2018 के विधानसभा चुनाव में सीपीएम और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़े थे. 25 साल से लगातार शासन के बावजूद उस वक्त सीपीएम 16 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. वोट शेयर की बात करें तो सीपीएम को उस वक्त बीजेपी से महज सवा फीसदी कम वोट ही मिले थे. जहां बीजेपी को 43.59% वोट मिले थे, वहीं सीपीएम के खाते में 42.22% वोट गए थे. लेकिन इस बार कांग्रेस का हाथ पकड़ने से सीपीएम को सीटों के साथ ही वोट शेयर का भी भारी नुकसान हुआ. उसे सिर्फ 11 सीटों पर जीत मिली और वोट शेयर भी गिरकर 24.6% पर पहुंच गया. इसका साफ मतलब है कि कांग्रेस के साथ से त्रिपुरा के जनता के बीच सीपीएम की छवि और पकड़ दोनों ही कमजोर हो गई.
इसी तरह का तजुर्बा समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव को भी हो चुका है. अखिलेश यादव ने 2017 में उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के साथ जोड़ी बनाई और कांग्रेस से गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ा. नतीजा हम सब जानते हैं. गठबंधन के तहत समाजवादी पार्टी 331 सीटों पर चुनाव लड़ी और सिर्फ 47 सीटें ही जीतने में कामयाब रही. उसका वोट शेयर भी करीब 8 फीसदी कम हो गया था. इससे सबक लेते हुए अखिलेश यादव ने 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से दूरी बना ली. अखिलेश यादव को इसका फायदा भी मिला और उनकी पार्टी ने 2017 के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन करते हुए 111 सीटों पर जीत दर्ज की. समाजवादी पार्टी के वोट शेयर में भी 10 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ.
ये सब वो तथ्य है, जो साबित करते हैं कि विपक्षी दलों ख़ासकर किसी एक राज्य में मजबूत स्थिति में रहने वाली पार्टी को लगने लगा है कि कांग्रेस के साथ आने से प्रदेश की जनता के बीच उनकी पकड़ भी कमजोर हो जाएगी. यही वजह है कि अब कई राज्यों में मजबूत विपक्षी दल भी कांग्रेस से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं. राहुल गांधी को इस नजरिए से भी बहुत काम करने की जरूरत है.
पिछले 10 साल से कांग्रेस की राजनीति राहुल गांधी के इर्द-गिर्द घूम रही है, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है. हालांकि उसके पहले भी कांग्रेस के नीतिगत फैसलों में राहुल गांधी का दखल रहता था, लेकिन जनवरी 2013 में कांग्रेस का चिंतन शिविर जयपुर में आयोजित किया गया और इसमें ही राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाया गया. उसके बाद हम कह सकते हैं कि व्यावहारिक तौर पर पार्टी के हर छोटे-बड़े फैसले राहुल गांधी ही लेते रहे. ये भी कड़वा सच है कि इन 10 सालों में ही कांग्रेस की स्थिति लगातार बद से बदतर होते गई
इन 10 सालों में दो बार 2014 और 2019 में लोकसभा चुनाव हुए. दोनों बार ही कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने अब तक का अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया. उसे सिर्फ़ 44 सीटें हासिल हो पाई. कांग्रेस का वोट शेयर भी पहली बार गिरकर 20 फीसदी नीचे जा पहुंचा. कांग्रेस उतनी भी सीट नहीं ला पाई कि लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा तक हासिल कर पाए. वहीं 2019 में भी कांग्रेस के प्रदर्शन में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ और वो 52 सीट ही ला पाई. उसे अपना वोट शेयर बढ़ाने में भी कामयाबी नहीं मिली. इन 10 सालों में एक-एक कर कई राज्यों से भी कांग्रेस की सरकार खत्म हो गई. अब सिर्फ हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही कांग्रेस की अपने दम पर सरकार है. उसमें भी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस साल ही चुनाव होने हैं, जहां पार्टी की स्थिति उतनी अच्छी नहीं मानी जा रही है.
राहुल गांधी जनवरी 2013 से दिसंबर 2017 तक कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे हैं और दिसंबर 2017 से अगस्त 2019 तक पार्टी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. पार्टी अध्यक्ष पद से हटने बावजूद भी व्यावहारिक तौर से कांग्रेस की राजनीति राहुल गांधी के चारों तरफ ही घूमते रही है. भले ही अक्टूबर 2022 में मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस अध्यक्ष बन गए हों, लेकिन उसके बाद से पार्टी की ओर से ऐसा कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया है, जिसके आधार पर राजनीतिक विश्लेषक या फिर देश की जनता को ये एहसास हो सके कि अब कांग्रेस की राजनीति और रवैया में कोई बड़ा बदलाव आ गया है.
भारत में राजनीति करना है तो, उसके लिए जनता की नब्ज को समझना बहुत जरूरी है. बीजेपी लगातार 10 साल से चुनाव पर चुनाव जीतते जा रही है, उसके बावजूद भी पार्टी के शीर्ष नेता छुट्टी मनाने के मूड में कभी नज़र नहीं आते. चुनाव नतीजे आते हैं, बीजेपी राज्यों में जीत भी जाती है, उसके अगले ही दिन फिर से पार्टी के बड़े-बड़े नेता, कार्यकर्ताओं और जनता से संवाद करने में जुट जाते हैं. लेकिन कांग्रेस तो लगातार 10 साल से चुनाव दर चुनाव हार रही है, फिर भी उसके बड़े-बड़े नेता जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं से लगातार संवाद बनाने के लिए अथक प्रयास करते हुए नहीं दिखते हैं. यहां तक कि राहुल गांधी भी इस कोशिश को लंबा नहीं खींच पाते हैं.
चुनावी राजनीति में कांग्रेस की जो देश में हालात हो गई है, उसके लिए पार्टी के सबसे प्रमुख चेहरे राहुल गांधी को अनवरत संघर्ष करने की जरूरत है. ऐसा संघर्ष जो जनता को दिखे. जिससे जनता खुद को जोड़ पाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रभाव और पार्टी के सांगठनिक विस्तार से बीजेपी इस वक्त देश में काफी ही मजबूत स्थिति में है. बीजेपी के चुनावी रणनीति का लोहा तो अंदर ही अंदर विपक्ष के भी सारे नेता मानते होंगे. राहुल गांधी को विदेशी ज़मीन से मोदी सरकार की आलोचना करने की बजाय बीजेपी की चुनावी रणनीति की काट खोजने पर ज्यादा मेहनत करनी चाहिए.
आम चुनाव में अब महज़ एक साल ही रह गया है और अगर कांग्रेस चाहती है कि 2024 में उसका अस्तित्व बचा रहे, तो इसके लिए राहुल गांधी को आलोचना या नकारात्मक बयानबाजी की तुलना में ऐसे बयान पर ध्यान देना चाहिए, जिससे बीजेपी उसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए नहीं कर पाए. साथ ही जमीनी स्तर पर राहुल गांधी को कुछ ऐसा करना होगा जिससे कांग्रेस को लेकर जनता के बीच खराब होती छवि में तेजी से सुधार आए.
राजनीति में चुनाव जीतना ही सबकुछ नहीं होता, ये सच है, लेकिन संसदीय प्रणाली में अगर आप चुनाव जीतने की क्षमता खो देते हैं, तो फिर आपकी पार्टी का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होने लगता है. कांग्रेस को लेकर जनता के बीच कुछ ऐसे ही ख़यालात बन गए हैं. इस दिशा में अगर राहुल गांधी ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो 2024 में बीजेपी को हराने के बारे में सोचना भी दूर की बात है. भारत में राजनीति संजीदगी से ही हो सकती है और बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने इसे साबित भी किया है, अब राहुल गांधी इस पर कितना अमल कर पाते हैं, ये तो भविष्य में पार्टी के प्रदर्शन से ही पता चलेगा.
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