2024 चुनाव से पहले एक बार फिर सभी पार्टियों की तरफ से रणनीति बनाई जा रही है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए विपक्ष की तरफ से किस तरह की मोर्चेबंदी की जा रही है और तीसरे मोर्चे की किस तरह की संभावना है. हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्षी दलों पर तंज कसते हुए कहा कि उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को धन्यवाद बोलना चाहिए कि वो उन्हें साथ लेकर आई, जो जनता नहीं कर पाई. पीएम मोदी ने 8 फरवरी को संसद में कहा था कि लगातार चुनाव में हार के बावजूद विपक्ष एक नहीं हो पाया, लेकिन भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के बाद वे एकजुट हो गए.


लेकिन, एक बात ये भी है कि वे प्रधानमंत्री हैं वो चाहे कह सकते हैं. अभी प्रधानमंत्री देश में काफी सधे हुए शब्दों में बात करते हैं...तो ईडी के छापों पर अगर प्रधानमंत्री ने विपक्ष को ललकारा है तो मुझे लगता है कि कहीं न कही वो इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि वो विपक्षी पार्टियों में वो परिपक्वता नहीं है जो होना चाहिए. वे इस तरह से तो उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे 2024 के लोकसभा के चुनाव में...तो मेरे ख्याल में उनका ये कहना कहीं न कहीं ठीक ही है. ये भी हो सकता है कि उनका ये एक रणनीतिक चाल हो कि सारे-सारे विपक्षी पार्टियां एक हो जाए...हो सकता है कि उन्होंने कहा हो कि भाई आप एक साथ हो लीजिए फिर देख लीजिए. अगर ये उनकी मनसा है तो ये तो विपक्ष को सोचना है कि वो क्या चाहते हैं.


विपक्ष को पीएम मोदी की ललकार


जहां तक तीसरे मोर्चे की बात है तो मैं तो यही देख पा रहा हूं कि अभी तो ठीक से दूसरा फ्रंट भी नहीं बन पाया है. क्योंकि अगर हम त्रिपुरा का उदाहरण लें तो दूसरे मोर्चे में कांग्रेस, वामदल और वहां जिस तरह से हुआ है और वही रिपीट किया जाता है और जगहों पर तो वो कैसे संभव होगा ये भी देखना पड़ेगा. बंगाल के एक सीट पर तो ये भी देखने को मिला कि बीजेपी, वामदल और कांग्रेस अनौपचारिक तौर पर एक साथ रहे हैं क्योंकि भाजपा का प्रत्याशी था वहां पर तो ये भी एक संभावना बनती है वहां कि ये तीनों एक साथ मिलकर वहां सरकार बनाए.


संभावनाएं बहुत सी हो सकती हैं. लेकिन हम ये मान के चल रहे हैं कि उसमें भाजपा नहीं होगी और भाजपा को रोकने के लिए एक मोर्चा बनेगा तो उसे अगर हम वोट प्रतिशत के लिहाज से देखते हैं तो सबसे बड़ी चीज ये है कि कांग्रेस का जो वोट है वो एक लेवल तक ही रहा है 2014 के चुनाव में भी और 2019 के चुनाव में भी...तो कांग्रेस के वोट प्रतिशत में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है. लेकिन भाजपा को जो वोट बैंक 22 प्रतिशत बढ़ा है और सबसे बड़ा सवाल ये कि इस 22 प्रतिशत के खिलाफ 58 प्रतिशत एकजुट हो पाएगा कि नहीं यही देखना है. अगर ये सारे लोग एक साथ आ जाते हैं पहले फ्रंट के लिए तो मान के चलिए कि उनकी स्थिति बहुत अच्छी हो सकती है, लेकिन मैं पहले फ्रंट को भी मानने को तैयार नहीं हूं क्योंकि अभी जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य दिख रहा है उसमें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग पार्टियों का अपना-अपना वर्चस्व है. सभी के अपने अलग-अलग जमीन है और वो उसके तहत वो अपना काम करते हैं और उसके हिसाब से उनके वोट आते हैं.


वोटर को वापस लाना कांग्रेस के लिए चुनौती 


लेकिन ये सोचना कि कांग्रेस के साथ एक फ्रंट बन जाएगा और उनके साथ सब कुछ अच्छा हो जायेगा. ये अच्छी बात है कि भारत जोड़ो आंदोलन के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास थोड़ा बढ़ा है और वो उस हिसाब से सोच रहे हैं कि उनको इसका फायदा मिलेगा. लेकिन जो एक चीज मुझे ये लगती है कि कांग्रेस कि जो ये यात्रा थी और उसमें जितने लोग जुड़े उससे संभावना तो दिखती है. लेकिन कांग्रेस उसको भूना ले, वोटर्स आएं और उसको वोट करें और जब तक ये मतदाता आकर उसको वोट नहीं करता है तब तक कांग्रेस की जो रणनीति है वो कहीं न कहीं नाकामयाब होती दिख रही है. चूंकि कांग्रेस के वोट आज भी सब तरफ बिखरे हुए हैं और उस वोट को कांग्रेस जब तक अपने स्तर से नहीं बढ़ाएगी अपनी पूरी कोशिश नहीं झोंकेगी तबतक कोई ठोस लाभ नहीं होगा. हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि जब आप भाजपा के साथ लड़ते हैं तो उसके साथ आरएसएस एक बहुत ही संगठित कैडर है, वो लड़ता है.


बीजेपी नहीं लड़ती है...विपक्ष को अगर लड़ना है तो उसे स्तर पर जाकर उसका मुकाबला करना होगा. विपक्ष अगर ये सोच रही है कि हम भाजपा के खिलाफ लड़ाई कर रहे हैं तो वो सबसे पहली गलती तो यही कर रही है. विपक्ष को अगर सही मायने में लड़ना है तो उसे सोच कर चलना होगा कि वो एक ऐसे संगठन के साथ लड़ रहे हैं जो कि बहुत ही सशक्त है और उन्होंने अपनी एक अच्छी पैठ कई सालों में बना दी है. क्योंकि उनके पास संगठन है, लोग हैं, जनता तक पहुंचने की शक्ति है.


कांग्रेस के पास एडमिनिस्ट्रेटिव काम करने की ताकत है और वो ये काम अच्छा-बुरा दोनों तरीके से कर चुके हैं. और कांग्रेस जो है वो दोनों छोर पर जो एक्सट्रीम लोग हैं, चाहे वो राइट के हो या लेफ्ट को हों तो कांग्रेस उनके बीच में अपनी जगह बनाती है. कांग्रेस एक स्वीकार्य पार्टी है. ये कांग्रेस का मजबूत पक्ष है. जहां तक फ्रंट की बात है तो अलग-अलग राज्यों में ये अलग-अलग तरीके से होगा. तमिलनाडु में, केरल में अलग स्थिति होगी. नवीन पटनायक के साथ अलग समस्याएं हैं. उनकी पार्टी किस तरह से आगे जाएगी, क्या वो भाजपा के साथ जाएगी या फिर वह बिखर जाएगी ये अभी नहीं पता है.


तीसरे मोर्चे को लेकर स्पष्टता नहीं


मैं समझता हूं कि जो पहला फ्रंट है उसको लेकर भी काफी कुछ स्पष्टता नजर नहीं आ रही है. दूसरी तरफ ये भी है कि लालू यादव की पार्टी राजद, नीतीश कुमार और जदयू तो कांग्रेस के साथ जाने की तैयारी में हैं लेकिन अखिलेश यादव, चंद्रशेखर राव व उनकी पार्टी, टीएमसी ये किस तरफ जाएंगे. आंध्रप्रदेश के जो जगनमोहन रेड्डी हैं वो किधर जाएंगे. आम आदमी पार्टी किधर जाएगी और मान लीजिए कि ये तीनों-चारों पार्टियां मिलकर एक गठबंधन बनाती हैं जिसे की हम तीसरा फ्रंट कहने की कोशिश कर रहे हैं तो इनका क्या भविष्य है...तो ये जो थर्ड फंट है ये सीटें कितनी लाएंगी ये तो कहना मुश्किल है. आप गुजरात का उदाहरण ले लीजिए वहां देखिये कि कैसे आम आदमी पार्टी ने वहां एक वोट कटवा पार्टी की तरह काम किया.


मान लीजिए कि तेलंगाना में केसीआर सीटें निकाल लेंगे लेकिन वो भी अभी हाईपोथेटिकल है क्योंकि वहां भी केसीआर बनाम ऑल अदर की संभावना है. तो वहां अगर ये हो जाए और मान लीजिए की भाजपा भी वहां होती है तो केसीआर की क्या स्थिति होगी. तो थर्ड फ्रंट की जो बात हो रही है या इसमें जो भी पार्टियां शामिल होंगी उनके अपने-अपने रीजनल महत्वाकांक्षा है. इससे पहले मायावती और अखिलेश यादव एक साथ आकर लड़ कर देख चुके हैं क्या हुआ वो आए और धूल चाट कर चले गए तो इसलिए उनको ये सोचना पड़ेगा की क्या वे देश के लिए सोच रहे हैं या फिर वे अपने लिए सोच रहे हैं.


अगर वो देश के लिए सोच रहे हैं और वो वाकई ये समझते हैं कि बीजेपी से लड़ना है तो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के गठबंधन आ जाएंगे भाजपा के सामने तो मैं समझता हूं कि किसी भी व्यक्ति को यह समझ आ जाती है कि वोट के तीन टुकड़े होते हैं तो फायदा किसको होना है...तो अगर विपक्ष को लड़ना है तो मेरी समक्ष में ये जितने भी ये चाहे आप फर्स्ट फ्रंट कह लीजिए या सेकेंड कह लीजिए या थर्ड सभी को आपस में बैठ कर ये सोचना पड़ेगा कि अगर वो देश को नेतृत्व देना चाहते हैं तो किस तरह से दें...सिर्फ ये कह देने से बात नहीं बनेगी कि हम भी मैदान में हैं और वोट को अपनी तरफ खींचना एक अलग चीज होती है और जब तक ये आकर्षण नहीं दिखेगा तो मुझे नहीं लगता है कि विपक्ष बंट कर के बहुत अच्छा चैलेंज दे पाएगी. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल शिवाजी सरकार से बातचीत पर आधारित है.]