बिहार और अपराध कोई नयी बात नहीं हैं. पहले भी बिहार की बदनामी इसको लेकर होती आई है, हालांकि नीतीश कुमार के दावों के विपरीत अब उनके चौथे टर्म के लगभग आधा बीत जाने के बाद यह जानकारी चौंकाने वाली है कि बिहार में अपराध के पीछे जमीन की कहानी है. लगभग 65 फीसदी अपराध केवल भूमि विवाद की वजह से हो रहे हैं और सरकार की तमाम सदिच्छा के बावजूद जमीन के मामले सुलझने के बजाय उलझते ही जा रहे हैं. 


जमीन के विवाद पर नहीं किसी का ज़ोर 


यह एक सत्य कथा है. भूमिका समझ लीजिए. स्थान- बिहार का पूर्वी चंपारण, साल 2022. दिल्ली के एक बड़े सेलिब्रिटीअचानक दिल्ली से जिला मुख्यालय मोतिहारी आना-जाना शुरू करते हैं. पता चलता है, उनके एक रिश्तेदार का जमीन विवाद चल रहा है. वह अपनी हैसियत का इस्तेमाल करते हुए जमीन विवाद हल करवाने की कोशिश करते हैं, लेकिन अंत तक वे इस काम में नाकाम रहते हैं, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उनके आते ही जिला प्रशासन में हड़कंप मच जाता था. ये अलग बात है कि जिस जमीन पर उनके रिश्तेदार का दावा था, वह जमीन किसी और की निकली.


अब दस साल पहले चलते है, मुजफ्फरपुर जिला की कहानी है. साल 2012 में नवरूणा नाम की एक बच्ची का अपहरण हो जाता है और कुछ ही दिनों बाद कथित तौर पर उसकी लाश उसके घर के पास ही मिल जाती है. परिवार वालों का आरोप था कि भू-माफिया उनकी शहर के बीच में स्थित घर (जमीन) हड़पना चाहते थे और इसीलिए उन लोगों ने नवरूणा का अपहरण किया था. यह मामला बाद में चल कर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होता है और केस सीबीआई को सौंपा जाता है. स्थानीय स्तर पर और मीडिया में भी इस मामले में भू-माफिया, सफेदपोशों, नेताओं और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत की चर्चा होती रही. लेकिन, 10 साल बाद भी सीबीआई एक कमजोर साक्ष्य तक न्यायालय में पेश कर पाने में अक्षम रही. नतीजतन, सीबीआई ने इस केस में क्लोजर रिपोर्ट लगा दी और परिवार वालों को यही पता चला कि “नो वन किल्ड नवरूणा”.


आंकड़ों  की ज़ुबानी


बहरहाल, नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2021 की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में हर पांचवी हत्या का संबंध जमीन विवाद से था. आंकड़े के मुताबिक़, इस साल 815 लोगों की हत्या जमीन विवाद की वजह से हुई जबकि कुल 3336 केसेज जमीन संबंधित विवादों के कारण दर्ज किए गए थे.


इससे भी खतरनाक बात यह कि इस तरह का ट्रेंड लगातार पिछले कई सालों से देखा जा रहा है (एनसीआरबी के अनुसार). यह माना जाना चाहिए कि आमतौर पर हत्या के केस दर्ज किए जाते होंगे लेकिन जमीन संबंधी अन्य विवाद (मारपीट, धमकी आदि) भी सौ फीसदी पुलिस रिकार्ड में दर्ज किए जाते होंगे, इस पर पूरी गारंटी से कुछ कहा नहीं जा सकता. इस हिसाब से आप जमीन संबंधी विवादों की असल संख्या का अंदाजा लगा सकते हैं.


इस वक्त आप बिहार के किसी भी जिला में नजर दौड़ाइए, आपको तकरीबन हर जिले में कुछेक हाई-प्रोफाइल मर्डर केसेज मिल जाएंगे जिनका संबंध जमीन से रहा है. मसलन, मुजफ्फरपुर की बात करें तो वहाँ के पूर्व मेयर समीर कुमार और हाल ही में एक चर्चित व्यवसायी आशुतोष शाही की ह्त्या की वजह भी शहर के बीचों-बीच स्थित जमीन का टुकड़ा ही हैं.


बिहार में इस वक्त जमीन का विवाद महज सिविल विवाद नहीं रह गया है. इस बात की तस्दीक खुद बिहार भूमि न्यायाधिकरण की वेबसाईट (https://land.bihar.gov.in//LandTribunal/JudicialMembers.aspx) पर दर्ज इन पंक्तियों से होता है जिसमें लिखा है कि “यह निर्विवाद सत्य है कि प्रत्येक भूमि विवाद तीन चार फौजदारी मामलो की जननी होती है और यही कारण है कि पूरे भारतवर्ष में लंबित वादों की संख्या निष्पादन की तुलना में बहुत अधिक है.”


अंचलों का खराब प्रदर्शन 


बिहार में जमीन के धंधे का इकबाल देखने-समझने के लिए इस एक खबर को देखना काफी होगा कि कैसे राजधानी पटना के संपतचक के सीओ शाम 7 बजे के बाद एक अवैध कार्यालय चला रहे थे. दरअसल, जिलाधिकारी डा. चंद्रशेखर सिंह को यह सूचना मिली थी कि मुन्नाचक में संपतचक के अंचल पदाधिकारी शाम 7.00 बजे के बाद कर्मचारी और कंप्यूटर ऑपरेटर के साथ जमीन के दाखिल-खारिज कराने वालों से मिलते थे. मामले का निपटारा रातोंरात होता था. इस अवैध कार्यालय का वीडियो फुटेज के आधार पर डीएम ने सदर अनुमंडल पदाधिकारी को छापेमारी का निर्देश दिया और फिर जो पता चला वह चौंकाने वाला था.


बहरहाल, विभाग ने इसी साल जुलाई में 534 अंचलों की एक रिपोर्ट कार्ड जारी कर बेहतर और खराब प्रदर्शन करने वाले अंचलों की रिपोर्ट जारी की है. चूंकि राज्य में 65 फीसदी अपराध के पीछे जमीन विवाद एक बड़ी वजह है और जमीन से जुड़े विवादों के निपटान के लिए राज्य ने अंचलाधिकारी, अनुमंडल, डीसीएलआर और जिला स्तर पर अपर समाहर्ता (राजस्व) को महत्वपूर्ण जिम्मेवारी सौंपी है. इनके कार्यों के आधार पर ही यह रैंकिंग जारी की गयी है जिसमें रैंकिंग के 11 मानकों में सभी मानकों पर खुद राजधानी पटना ही फिसड्डी साबित हुआ है.


मुजफ्फरपुर, सहरसा, खगड़िया, मधुबनी, पश्चिमी चंपारण की रैंकिंग भी बहुत खराब रही है. हालांकि कुछ अंचलों ने अच्छा प्रदर्शन भी किया है, लेकिन दाखिल-खारिज जैसी प्रक्रिया को लेकर आम आदमी को क्या परेशानी झेलनी पड़ती है, इसे देखते हुए समग्र रूप से कहा जा सकता है कि सरकार के प्रयासों के बाद भी आधिकारिक स्तर पर जमीन सेटलमेंट, दाखिल-खारिज जैसे मसलों को पारदर्शी और ईमानदार तरीके से पूर्ण करने में ढिलाई बरती जा रही हैं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इन केसेज में कमाई का बहुत बड़ा स्कोप होता है.



 


सिंडिकेट स्टाइल!


अगर आप अदालतों में लंबित जमीनी विवादों को खंगालेंगे तो बड़ी संख्या में प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत के आरोप वाले केसेज आपको देखने को मिल जाएंगे. कई मामलों में तो पटना हाई कोर्ट ने पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की है. जानकारों का यह भी कहना है कि किसी भी जिले के बड़े जमीनी सौदे बिना सफेदपोशों और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत के संभव ही नहीं है.


अपराधियों तक ने भी अपने अपराध पैटर्न को बदल लिया है. अब अपहरण या हत्या के जरिये पैसा कमाने की जगह वे जमीन में निवेश कर रहे हैं. बाकायदा इसके लिए वे सिंडिकेट स्टाइल में काम कर रहे हैं. जानकार दबी जुबान में ही सही, बताते है कि बिहार के कई ऐसे नेता है (विभिन्न पार्टियों के) जिन पर जमीन सौदों को प्रभावित करने के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आरोप लगते रहे हैं. मसलन, पटना का राजीव नगर पिछले साल सुर्ख़ियों में था. एक मीडिया हाउस की जांच में पाया गया कि राजीव नगर के नेपाली नगर में जमीन विवाद का कारण सत्ता से जुड़े लोग, भू माफिया और बिहार राज्य आवास बोर्ड की मिलीभगत है. एक-दूसरे की मदद से सिंडिकेट बनाकर सरकारी जमीनों को बेचा गया, जहां भू-माफियाओं को राजनेताओं का संरक्षण मिला हुआ था और ये गैंग सरकारी जमीन पर कब्जा कर उसे बेचते रहे. इस जांच में एक पूर्व विधायक पर भी स्थानीय लोगों द्वारा आरोप लगाए जाने की बात सामने आई.


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