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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

महमूद और जॉनी वाकर के सुनहरे दौर की आखिरी कड़ी थे जगदीप

जानी माने हास्य अभिनेता जगदीप पिछले करीब 70 बरसों से फिल्म दुनिया में थे. यह अलग बात है कि पिछले कुछ बरसों से वह फिल्म नहीं कर रहे थे. लेकिन अपने फिल्म करियर की करीब 400 फिल्मों में जगदीप ने इतने किरदार किए कि वह फिल्मों से दूर रहने के बावजूद अभी भी दर्शकों के दिलों में बसे थे. इसलिए जब गत 8 जुलाई रात को यह समाचार आया कि जगदीप अब इस दुनिया में नहीं रहे तो फिल्म इंडस्ट्री शोक मग्न हो गयी. यूं कोरोना के चलते इस दुख की घड़ी में न कोई किसी के घर जाकर, अफसोस कर सकता है. न कोई किसी के जनाजे में शरीक हो सकता है. लेकिन देखते देखते सोशल मीडिया पर जगदीप को श्रद्धांजलि देने वालों का सैलाब सा उमड़ पड़ा. सभी अपने अपने ढंग से जगदीप को याद कर रहे हैं.

अलग अंदाज़ के हास्य अभिनेता रहे जगदीप ने अपना फिल्म करियर बाल कलाकार के रूप में सन 1951 में प्रदर्शित फिल्म ‘अफसाना’ से शुरू किया था. जबकि उनकी अंतिम फिल्म ‘गली गली चोर है’ थी, जो सन 2012 में प्रदर्शित हुई थी. लेकिन उसके बाद अपनी खराब सेहत के चलते वह कुछ काम नहीं कर सके. फिर भी इतना जरूर था कि वह तबीयत खराब रहने पर भी एक ज़िंदादिल इंसान की तरह रहते थे. खुश रहते थे, हंसी मज़ाक करते रहते थे. यहां तक कि अपने घर आए पुराने दोस्तों से भी अच्छे से मिलते थे. जगदीप की ज़िंदगी को ध्यान से देखें तो उन्होंने अपने बचपन में आई कई मुश्किलों के बावजूद मेहनत और हिम्मत से काम किया. उसी का नतीजा था कि जल्द ही उनके बुरे दिन दूर हो गए और सफलता और लोकप्रियता उनके संग हो चली.

यूं जगदीप ने अपने फिल्म करियर में कुल लगभग 400 फिल्में कीं. उनकी ज़िंदगी के उन अंतिम 8 बरसों को अलग कर दें, जिनमें उन्होंने कोई फिल्म नहीं की तो वह करीब करीब 60 बरस फिल्मों में अच्छे खासे सक्रिय रहे. इस दौरान करीब 10 बरस की उम्र से शुरू हुई उनकी फिल्म यात्रा में वह आगे चलकर फिल्मों में हीरो भी रहे, कुछ चरित्र भूमिकाएं भी उन्होंने कीं. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली फिल्म 'शोले' से. सन 1975 में आई इस कालजयी फिल्म में यूं तो हर वो कलाकार भी लोकप्रिय हो गया जिसके फिल्म में सिर्फ दो तीन संवाद भी थे. जैसे सांभा, कालिया. लेकिन ‘शोले’ से सूरमा भोपाली के रूप में जगदीप तो इतने लोकप्रिय हो गए कि उनका पूरा लंबा करियर इस एक भूमिका के सामने बौना पड़ गया.

‘शोले’ के बाद के अपनी ज़िंदगी के 45 बरस में जगदीप सिर्फ सूरमा भोपाली बन कर रह गए. अब जब जगदीप ने दुनिया से रुखसत ली है तब भी हर कोई जगदीप को सूरमा भोपाली के रूप में ही याद कर रहा है. यह सब यही बताता है कि उनकी एक सूरमा भोपाली की भूमिका के साये में, उनकी तमाम अन्य भूमिकाएं छिप कर रह गईं. हालांकि जगदीप एक लंबे अरसे तक खुद भी अपनी सूरमा भोपाली की भूमिका से इतने अभिभूत और गद गद रहे कि उन्होंने स्वयं निर्माता निर्देशक बनकर‘सूरमा भोपाली’ के नाम से एक फिल्म ही बना डाली. जगदीप को लगा कि उनकी सूरमा भोपाली की एक छोटी सी भूमिका इतनी लोकप्रिय हो गयी है तो इस नाम से वह पूरी फिल्म ही बना देंगे तो वह तो सुपर हिट हो जाएगी. लेकिन ऐसा हो नहीं सका. सन 1988 में जब ‘सूरमा भोपाली’ प्रदर्शित हुई तो यह फिल्म सफल नहीं हो सकी.

मुझे एक जुलाई 1988 की वह शाम अभी तक याद है जब दिल्ली के डिलाइट सिनेमा में ‘सूरमा भोपाली’ का प्रीमियर शो हुआ था. तब जगदीप और उनके बेटे जावेद जाफरी ठीक मेरे साथ की सीट पर बैठे थे. बीच बीच में जगदीप किसी खास सीन के आने पर मुझे उससे जुड़ी कोई खास बात भी बताते रहे थे. असल में जगदीप से मेरी यह घनिष्ठता सिर्फ एक ही दिन पुरानी थी. क्योंकि ‘सूरमा भोपाली’ की रिलीज की पूर्व संध्या पर, 30 जून 1988 को मैंने जगदीप से दिल्ली के प्रेसिडेंट होटल में एक खास मुलाक़ात की थी. डिनर तक देर तक चली इस मुलाक़ात में मैंने जगदीप का काफी बड़ा इंटरव्यू किया था. जिसमें जगदीप ने इस फिल्म के साथ कुछ और मुद्दों पर मुझसे काफी खुलकर बात की थी. यह वह दौर था जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो था ही नहीं. दिल्ली का प्रिंट मीडिया भी सीमित था. ऐसे में कई बार ऐसा होता था कि फिल्म इंडस्ट्री से आए कुछ कलाकार तो कभी मीडिया के सिर्फ एक-दो या कभी दो-चार खास लोगों से ही अलग-अलग मिलकर इत्मीनान से बात करते थे. जिससे वे मुलाकातें अक्सर यादगार बन जाती थीं.

जब जगदीप से लिया मेरा वह इंटरव्यू 2 जुलाई को देश के प्रतिष्ठित और उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित हुआ तो जगदीप उसे देख बहुत खुश हुए. मुझे भी जगदीप से मिलकर तब बहुत खुशी हुई. उनकी साफ़गोई और हंसी मज़ाक का स्वभाव मुझे काफी पसंद आया. तब तक उनके बेटे जावेद जाफरी तो लोकप्रिय नहीं हुए थे. लेकिन वह भी तब अपने पिता की इस फिल्म के प्रमोशन में पूरे दिल से लगे हुए थे. यह भी दिलचस्प है कि जगदीप का एक नाम नहीं तीन-तीन नाम हो गए हैं.

पहला नाम जो उनके वालिद-वालिदा ने दिया, वह था- इश्तियाक अहमद जाफरी. दूसरा नाम वह जिसके रूप में उन्होंने फिल्मों में पदार्पण किया और जो उनकी पहली पहचान बना यानि जगदीप. जबकि उनका तीसरा नाम उन्हें ‘शोले’ के बाद मिला, सूरमा भोपाली. सूरमा भोपाली को लेकर जगदीप अक्सर दो तीन दिलचस्प बातें बताते थे. एक यह कि वह फिल्मों मे सूरमा भोपाली बनकर चाहे 1975 में आए. जब सलीम-जावेद की जोड़ी ने फिल्म ‘शोले’ के इस किरदार की रचना की. लेकिन सूरमा भोपाली का बोलने वाला अंदाज ‘शोले’ की रिलीज के करीब 10 बरस पहले ही, जगदीप के दिल में घर कर गया था. यह बात तब की है सन 1965 में फ़िल्मकार एस एम सागर की फिल्म ‘सरहदी लुटेरा’ का निर्माण हो रहा था. इस फिल्म में सलीम खान हीरो थे, जबकि जगदीप एक अहम भूमिका में थे. साथ ही जावेद अख्तर भी इस फिल्म से जुड़े थे. जगदीप बताते थे- “शूटिंग के बाद हम सभी लोग शाम को साथ बैठते थे, खाते पीते थे और हंसी मज़ाक करते थे. जावेद अख्तर मिमिक्री बहुत अच्छी करती थे. एक दिन जावेद ने सूरमा भोपाली वाली बोली के अंदाज़ की मिमिक्री सुनाई तो हम सभी खूब हंसे. तब मैंने उनसे पूछा ऐसे कौन बोलता है. तो उन्होंने बताया भोपाल के एक खास क्षेत्र में कुछ महिलाओं का कुछ ऐसा ही अंदाज़ है. तभी से यह अंदाज़ मेरे मन में ऐसे बैठ गया कि जब भी मौका मिलता मैं इसी अंदाज़ में बोल कार हंसी मज़ाक करता.

जगदीप बताते थे- जब सलीम जावेद ने ‘शोले’ लिखी तो सूरमा भोपाली का चरित्र मुझे मिला तो मैंने उसी अंदाज़ को अपनाया तो वह इतना लोकप्रिय हो गया कि लोग मुझे जगदीप के नाम से कम और सूरमा भोपाली के नाम से ज्यादा पुकारने लगे. बाद में मुझे पता लगा कि भोपाल में सूरमा भोपाली के नाम का एक व्यक्ति सच में था. जावेद उसे जानते थे तो उन्होंने उससे मिलता जुलता किरदार रच डाला. असल में उस व्यक्ति का नाम नाहर सिंह था और वह भोपाल में वन विभाग में एक अधिकारी था. लेकिन वह अपनी बहादुरी के ऐसे ऐसे किस्से बखान करता था कि लोग उसे सूरमा भोपाली कहते थे.

यहां यह भी बता दें कि 29 मार्च 1939 को जन्मे जगदीप स्वयं भी मूलतः मध्यप्रदेश से थे. इनका अच्छा खासा परिवार था. ये मध्य प्रदेश के दतिया में रहते थे. लेकिन इनके अब्बा के इंतकाल के बाद इनकी अम्मी मुंबई आ गईं. जहां वह एक अनाथालय में खाना बनाकर अपने परिवार का गुजारा करती थीं. मां इश्तियाक को पढ़ाना चाहती थीं. लेकिन मां की तकलीफ देख इश्तियाक ने आगे पढ़ने की जगह कुछ काम करके पैसे कमाने का सोचा. इश्तियाक (जगदीप) ने तब फुटपाथ पर छोटा मोटा सामान बेचकर कुछ कमाना भी शुरू कर दिया. वह तब 10 साल के थे कि एक व्यक्ति इन्हें एक फिल्म में ताली बजाने के एक दृश्य के लिए स्टूडियो ले गया. वह फिल्म थी बी आर चोपड़ा की ‘अफसाना’. तभी फिल्म के सहायक निर्देशक यश चोपड़ा ने इस बालक को देखा तो उसे एक संवाद बोलने को कहा. इश्तियाक ने वह संवाद बोला तो वह यश चोपड़ा को इतना पसंद आया कि उसे तुरंत फिल्म में एक छोटी सी भूमिका दे दी. बस फिर क्या था इश्तियाक को इस एक सीन के लिए तीन रुपए तो मिले ही साथ ही इश्तियाक अब जगदीप बनकर हिन्दी सिनेमा का बाल कलाकार बन चुका था.

यह जगदीप की प्रतिभा और किस्मत का फल था कि जगदीप देखते देखते एक मशहूर कलाकार बन गया. ‘अफसाना’ के बाद उन्हें एक फिल्म ‘लैला मजनूं’ मिली. जिसमें जगदीप ने मजनूं के बचपन का किरदार किया. तभी जगदीप को एक अहम फिल्म मिली. बिमल रॉय जैसे यशस्वी फ़िल्मकार की ‘दो बीघा ज़मीन’. इस फिल्म में जगदीप का बूट पॉलिश करने वाले एक बच्चे का किरदार था. जहां जगदीप ने अपनी कॉमेडी के रंग भी पहली बार दिखाये. इसके बाद जगदीप के पास बाल कलाकार के रूप में कई फिल्में हो गईं. जिनमें गुरुदत्त की ‘आर पार’ भी थी. जगदीप बाल कलाकार के रूप में तब कितने व्यस्त और मशहूर थे इस बात का प्रमाण इससे भी मिलता है कि सन 1953 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में बाल फिल्मों की श्रेणी में जो तीन फिल्में अंतिम दौर में पहुंची थीं, वे थीं मुन्ना, अब दिल्ली दूर नहीं और हम पंछी एक डाल के. लेकिन इन तीनों फिल्मों में जो एक बात समान थी, वह यह कि इन तीनों फिल्मों में बाल कलाकार जगदीप थे. ‘हम पंछी एक डाल के’ में तो जगदीप का काम तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी पसंद आया था और उन्होंने जगदीप की तारीफ की थी.

जिन दिनों जगदीप ये फिल्में कर रहे थे उन दिनों उनकी उम्र 14-15 बरस हो चली थी. कुछ दिन बाद ही जगदीप को फिल्मों में वयस्क भूमिकाएं भी मिलने लगीं. जिनमें भाभी, बिंदिया, बरखा, राजा जैसी कुछ फिल्मों में तो जगदीप लीड रोल में भी आए. जबकि तीन बहूरानियां, खिलौना, गोरा और काला, सास भी कभी बहू थी और बिदाई जैसी अन्य कई फिल्मों में इनकी विभिन्न भूमिकाएं थीं. ‘ब्रह्मचारी’ से मिला कॉमेडी अवतार तभी सन 1968 में फ़िल्मकार जी पी सिप्पी की एक फिल्म आई –‘ब्रह्मचारी’. शम्मी कपूर, मुमताज़, प्राण की इस सुपर हिट में जगदीप को पहली बार मुरली मनोहर के कॉमेडी अवतार में उतारा तो यह बहुत पसंद किया गया. इसके बाद तो जगदीप कॉमेडी के होकर रह गए. जगदीप की इस कॉमेडी यात्रा में बाद में ‘शोले’ का सूरमा भोपाली सोने पर सुहागा बनकर साबित हुआ. इसके बाद जगदीप ने आखिर तक जो फिल्में कीं उनमें बहुत से नाम हैं. जैसे- रोटी, कुर्बानी, गुलाम बेगम बादशाह, स्वर्ग नरक, एजेंट विनोद, आईना, एक बार कहो, शहंशाह, चाइना गेट, सनम बेबफा, अंदाज़ अपना अपना, फूल और कांटे और बॉम्बे टू गोवा. इनकी फिल्मों में एक फिल्म ‘सुरक्षा’ भी काफी अहमियत रखती है. सन 1979 में प्रदर्शित निर्माता बी सुभाष की ‘सुरक्षा’ जिसमें मिथुन चक्रवर्ती, रंजीता और जगदीप मुख्य भूमिकाओं में थे. लेकिन शूटिंग के दौरान जगदीप का गला इतना खराब हो गया कि उनकी आवाज़ ही बदल गयी. पर शूटिंग की मजबूरीयों को देखते हुए जगदीप को कहा गया कि आप अपनी बैठी हुयी आवाज़ में ही संवाद बोल दो. इसे संयोग कहें या कुछ और कि दर्शकों को जगदीप की बैठी हुई आवाज़ में बोला ‘खंबा उखाड़ के’ का अंदाज़ इतना पसंद आया कि बाद में जगदीप को अपने उसी रंग में संवाद बोलने को कहा जाने लगा.

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जगदीप ने कुछ प्रादेशिक फिल्मों में भी काम किया. जिनमें उनकी राजस्थानी फिल्में- ‘बाई चली सासरिए और ‘धनी लुगाई’ तो चर्चित रहीं. हॉरर फिल्मों में भी खूब हंसाया सन 1984 में फ़िल्मकार रामसे ब्रदर्स की एक फिल्म आई थी-‘पुराना मंदिर’. रामसे बंधु अपनी हॉरर फिल्मों के लिए देश में अच्छे खासे विख्यात रहे हैं. लेकिन अपनी इस फिल्म में हास्य का पुट देने के लिए बीच बीच में जगदीप के प्रसंग भी रख दिये. जिसमें जगदीप डाकू गब्बर सिंह के अंदाज़ में डाकू मच्छर सिंह बनते हैं. दर्शकों को जगदीप का यह रूप भी काफी पसंद आया. उसके बाद तो जगदीप को ऐसी ही फिल्में मिलने लग गईं. मसलन खूनी महल, कब्रिस्तान, खूनी पंजा, काली घटा. लेकिन इन फिल्मों से जगदीप और उनकी कॉमेडी का स्तर काफी गिर गया. हालांकि जगदीप कहते थे कि मैंने कभी डबल मीनिंग अश्लील कॉमेडी नहीं की. कुछ फिल्मों में कॉमेडी का स्तर कुछ हल्का जरूर हो जाता है. क्योंकि हम निर्माता, निर्देशकों की भावनाओं से बंधे होते होते हैं. लेकिन मैं तो हमेशा कहता हूं कि फ़िल्मकारों को हमेशा अच्छी फिल्में बनानी चाहिए. जगदीप की बात ठीक थी कि कलाकारों को फ़िल्मकारों की बातों और निर्देशों पर चलना होता है. यही कारण है कि अब कहीं कुछ फिल्मों में कॉमेडी का स्तर काफी गिर गया है. तो कहीं अब फिल्मों में कॉमेडियन की भूमिका ही हाशिये पर पहुंच गयी है. पिछले कुछ बरसों से हीरो ही जिस तरह कॉमेडियन की ज़िम्मेदारी बखूबी संभाले हुए हैं. उससे हास्य कलाकारों के लिए अब करने को कुछ बचा ही नहीं. इसलिए नए कॉमेडियन अब खास आ ही नहीं पा रहे. यदि कभी कुछ आते भी हैं तो उनका करियर जल्द ही खत्म हो जाता है. इसलिए अब जब जगदीप इस दुनिया से गए हैं तो दुख इसलिए भी ज्यादा है कि इससे उस दौर की कॉमेडी का अंतिम स्तंभ भी ढह गया, जो जॉनी वाकर और महमूद के सुनहरे दौर से जुड़ा हुआ था.

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(उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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