Jammu Kashmir: सुबह के अखबार में हेडिंग पढ़ते ही मन अजीब हो गया, लिखा था हिंदू कत्लेआम की घाटी. अखबार का ये शीर्षक अतिरंजित हो सकता है मगर क्या ऐसी घाटी बनाने की कल्पना हमारे राजनेताओं ने की थी क्या?. पत्रकार रशीद किदवई की हाल की किताब लीडर्स, पॉलिटिशियंस सिटीजंस में जिन पचास नेताओं को याद किया गया है इसमें पहले नंबर पर ही शेख अब्दुल्ला का नाम है. शेख अब्दुल्ला यानी कि शेरे कश्मीर, नेहरू जी के प्रिय मित्र जिन्होंने कश्मीर के हिंदू राजा के खिलाफ हरि सिंह के खिलाफ आवाज उठाने के लिये जवाहर लाल नेहरू का साथ लिया और जवाहर लाल नेहरू ने हरि सिंह के अड़ियल और अजीब रवैये के खिलाफ अब्दुल्ला का साथ पाया. दोनों के रिश्तों में आये उतार चढ़ाव ने कश्मीर के इतिहास को गहरे तक प्रभावित किया. जिसका असर आज तक देखने को मिल रहा है.


पांच दिसंबर 1905 को जन्मे अब्दुल्ला की स्कूली पढ़ाई श्रीनगर में हुई और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एमएससी करने के बाद कश्मीर लौटते ही वो डोगरा राजशाही के खिलाफ होने वाले आंदोलनों की पहचान बन गये. रशीद के मुताबिक तकरीबन साढ़े छह फीट लंबे अब्दुल्ला जल्दी ही शेरे कश्मीर बन गये और ऑल जम्मू कश्मीर कॉन्फ्रेंस मुस्लिम कांफ्रेंस बना ली जिसे महात्मा गांधी और मित्र नेहरू के कहने पर मुस्लिम शब्द हटाकर नेशनल कांफ्रेंस कर लिया और कश्मीर की राजशाही ओर जमींदारों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. आजादी पाने के बाद मिली 560 रियासतों को भारत में मिलाने की जिम्मेदारी सरदार पटेल ने संभाली तो नेहरू अपने पुरखों के कश्मीर से रिश्ते के कारण इस मुद्दे को स्वयं अब्दुल्ला की मदद से हल करना चाहते थे. नेहरू यानी कि नहर किनारे के रहने वाले पंडित. कश्मीर के राजा हरिसिंह जहां दो ताकतवर देशों के बीच में अपनी स्वतंत्र रियासत चाहते थे तो अब्दुल्ला चाहते थे कि कश्मीर धर्मनिरपेक्ष भारत और प्रगतिशील सोच वाले नेहरू के साथ रहे.


पाकिस्तान ने जब 22 अक्टूबर 1947 में कबायली हमला किया तो नेहरू ने अब्दुल्ला के साथ मिलकर तब तक सेना नहीं भेजी जब तक हरि सिंह ने भारत में विलय पत्र पर दस्तखत नहीं कर दिये. इस बीच में पाकिस्तानी कबायली कश्मीर के बड़े भूभाग पर कब्जा कर चुके थे. जो आज भी उनके कब्जे में है. नेहरू इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र में भी ले गये और जनमत संग्रह कर इसे सुलझाने का वायदा भी कर बैठे. सरदार पटेल 1948 में जनमत संग्रह कराकर जूनागढ़ का विवाद ऐसे ही सुलझा चुके थे. उधर पाकिस्तान ने अब्दुल्ला पर डोरे डाले तो शेरे कश्मीर ने साफ कह दिया कि कश्मीरियों की लाशें पर कर ही पाकिस्तान के अफसर श्रीनगर आ पायेंगे. नेहरू ने हरिसिंह के हटते ही शेख अब्दुल्ला को वजीर ए आजम बना दिया और धारा 370 के तहत कश्मीरियत की पहचान बनी रहे इसके लिये मन मुताबिक प्रावधान कर दिये. 


नेहरू और अब्दुल्ला की दोस्ती 1953 तक चली. मगर जल्दी ही अब्दुल्ला स्विटरजलैंड जैसी स्वायत्तता चाहने लगे और नेहरू और भारत सरकार का खुलकर विरोध करने लगे. तब नेहरू ने अब्दुल्ला की सरकार गिराकर अपने पुराने दोस्त को जेल में डाल दिया. उसके बाद तो अब्दुल्ला कई बार भारत की जेलों में अंदर बाहर होते रहे. बाद में नेहरू ने अब्दुल्ला को पाकिस्तान भेज कर वहां के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ उनकी 16 जून 1964 को होने वाली कश्मीर पर बैठक का इंतजाम करने को कहा था मगर 27 मई को ही नेहरू नहीं रहे. और ये खबर सुन अब्दुल्ला बच्चों जैसे फूट फूट कर रोये. अगर ये बैठक हो जाती तो दोनों देशों के बीच कश्मीर का मसला अब्दुल्ला के होते सुलझ जाता. 
आज हमारी सरकार कश्मीर को आन बान शान का प्रतीक मान रही हो मगर विलय के उन दिनों में राजेंद्र सरीन की किताब पाकिस्तान द इंडिया फैक्टर के हवाले से रशीद लिखते हैं कि सरदार पटेल ने पाकिस्तान के मंत्री सरदार अब्दुल राब निस्तर से कहा था कि भाई आप हैदराबाद और जूनागढ़ की बात छोडो कश्मीर की बात करो. कश्मीर आप ले लो और ये दोनों हमें दे दो. 


बात यहीं खत्म नहीं होती. लॉर्ड माउंटबेटन भी चाहते थे कि मुसलमान आबादी वाला कश्मीर पाकिस्तान के पास चला जाये. माउंटबेटन ने एक बैठक में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली से कहा था कि पाकिस्तान अगर हैदराबाद से बाहर आ जाये तो भारत कश्मीर छोड़कर बाहर आ जायेगा. इस पर लियाकत अली का जवाब था सरदार साहब आपका दिमाग घूम गया है क्या? आप हैदराबाद जैसा बड़ा राज्य छोड़कर उस पहाड़ी वाले राज्य को लेने को कह रहे हो. सरदार पटेल के कई सहयोगियों ने भी लिखा है कि पटेल ने हरिसिंह से कहा था कि यदि आप पाकिस्तान जाना चाहेंगे तो भारत आपका रास्ता नहीं रोकेगा. मगर प्रधानमंत्री नेहरू कश्मीर को किसी कीमत पर छोडना नहीं चाहते थे. उनको लगता था कि कश्मीर पाकिस्तान के साथ चला गया तो जिन्ना के दो धर्म दो राष्ट्र की थ्योरी सफल हो जायेगी जो वो चाहते नहीं थे. 


नेहरू दुनिया को बताना चाहते थे कि भारत में भी मुसलमान खुशी खुशी रह सकते हैं. शेख अब्दुल्ला ने अपनी जीवनी आतिशे चिनार मे भी लिखा है कि कश्मीर के पास तीन रास्ते थे पाकिस्तान के साथ जाओ स्वतंत्र रहो मगर वक्त की जरूरत है कि डोगरा राजशाही से मुक्ति और तरक्की के लिये भारत के साथ रहना ज्यादा मुफीद होगा. कहते हैं कोई नायक लंबे समय तक नायक नहीं रहता अपने जीवन के अंतिम समय में अब्दुल्ला भी इसके शिकार हुए. कश्मीरियों ने उनको कमजोर प्रस्तावों के साथ भारत में विलय पर बुरा भला कहा. उनकी कब्र को कई बार खोदकर अपमान करने की कोशिश की गयी. अब्दुल्ला भी अपने मित्र नेहरू जैसे धर्मनिरपेक्ष और खुले दिमाग के आदमी थे वो कभी नहीं चाहते थे कि कश्मीर घाटी वैसी बने जैसे अब अखबार लिखने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं. हिन्दू कत्लेआम की घाटी. मगर ये अधूरा सच है. आतंकियों की गोली का शिकार मुस्लिम भी हो रहे हैं.



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