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कश्मीर घाटी से सेना को हटाने का फैसला क्या पीएम मोदी के लिये मास्टरस्ट्रोक होगा साबित?

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों की तारीख का ऐलान होने से पहले केंद्र की मोदी सरकार एक बड़ा फैसला लेने की तैयारी में है. अगर ऐसा हो गया तो वहां के तमाम क्षेत्रीय दलों के हाथ से न सिर्फ सबसे बड़ा मुद्दा निकल जायेगा बल्कि उनकी मुश्किल ये भी हो जाएगी कि बीजेपी को शिकस्त देने के लिए अब कौन-सा सियासी औज़ार इस्तेमाल किया जाए. दरअसल, साढ़े तीन साल पहले जब जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्ज़े को खत्म किया गया था तब केंद्र सरकार ने वहां सेना के साथ ही सुरक्षा बलों की अतिरिक्त टुकड़ियां इसलिए भेजी थीं कि वहां अमन-चैन कायम रहे.

लेकिन अब जो खबर सामने आ रही है वो उस सूबे के हर अमनपसंद शख्स के लिए किसी सौगात से शायद कम नहीं होगी. इसलिए कि कश्मीर घाटी के आंतरिक इलाकों में तैनात सेना की टुकड़ियों को वापस बुलाने पर मोदी सरकार बेहद गंभीरता से विचार कर रही है. हालांकि गृह और रक्षा मंत्रालय के सूत्रों की बातों पर यकीन करें तो पिछले लगभग दो साल से ये प्रस्ताव लटका हुआ था. लेकिन लगता है कि अब पीएम मोदी खुद ही इसको हरी झंडी देने के पक्ष में हैं. वैसे ताजा आंकड़ों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में फिलहाल करीब 1 लाख 30 हजार भारतीय सैनिकों की तैनाती है जिनमें से तकरीबन 80 हजार तो बॉर्डर पर ही तैनात हैं. लेकिन ये भी सच है कि घाटी के तमाम अंदरुनी इलाकों में राष्ट्रीय रायफल्स यानी RR के 40 से 45 हजार जवानों की तैनाती भी है जो हर वक़्त किसी भी आतंकी हमले से निपटने के लिए मुस्तैद रहते हैं.

हालांकि सुरक्षा संस्थानों के सूत्रों से छनकर आनी वाली सूचना पर भरोसा किया जाए तो सरकार एक बड़ा फैसला ये ले सकती है कि कश्मीर घाटी के अंदरुनी इलाकों में तैनात सेना को वहां से हटाकर सारा जिम्मा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी CRPF को दे दिया जाए. वही घाटी में कानून-व्यवस्था का जिम्मा संभालने के साथ ही सीमा पार से आने वाले आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने में भी सक्षम होगी. बता दें कि बीते दिनों इसी मसले पर अंतर मंत्रालयी बैठक हुई थी जिसमें मोटे तौर पर ये सहमति बनी थी कि ऐसा करना ही सबसे बेहतर रास्ता होगा. लेकिन ये ऐसा नाज़ुक मसला है जिस पर पीएम मोदी की हरी झंडी मिले बगैर कोई भी मंत्रालय अपने हिसाब से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकता है. 

हालांकि इसे भी याद रखना होगा कि पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 60 हजार जवानों की तादाद रखने वाले  CRPF के 45 हजार से ज्यादा जवान फिलहाल कश्मीर घाटी में तैनात हैं. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर पुलिस के 83 हजार जवान तो वहां मौजूद हैं ही. लेकिन घाटी में जब थोड़े-से भी हालात बिगड़ते हैं तो वहां केंद्रीय सशस्त्र बलों की जो टुकड़ियां पहुंचती हैं उसका आंकड़ा सरकार के सिवा किसी को भी शायद ही पता हो. इसलिये सुरक्षा बलों की इतनी मौजूदगी देखकर हर कोई ये सवाल पूछ सकता है कि कश्मीर हमारे देश का हिस्सा है या फिर दुश्मन है? इसका माकूल जवाब हम नहीं जानते लेकिन वहां से आने वाली खबरें इस हकीकत को बयान करती हैं कि घाटी में रहने वाला हर शख्स बरसों से राज करने वाले वहां के सियासत दानों से आज़िज़ आ चुका है. वो अब लोकतंत्र की एक ऐसी बयार में जीना चाहता है जहां हर कदम पर कोई बंदूक की नली उसे डराने के लिए नहीं बल्कि हिफ़ाज़त के लिए मुस्तैद हो.

दरअसल, कश्मीर घाटी से फौज को हटाकर मोदी सरकार सिर्फ देश को नहीं बल्कि दुनिया को ये संदेश देना चाहती है कि अब वहां के हालात इतने सामान्य हो चुके हैं कि निष्पक्षता से इसका आकलन कोई भी कर सकता है. हालांकि घाटी से सेना को हटाने का ये फैसला चरणबद्ध तरीके से ही लिया जाना है ताकि सीमा पार बैठा दुश्मन कोई बड़ी करतूत करने का मौका न तलाश पाए. सरकार मानती है कि 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से धारा 370 निरस्त हो जाने के बाद घाटी में हर तरह की आतंकी हिंसा में तकरीबन 50 फीसदी की कमी आई है. पत्थरबाजी तो पूरी तरह से खत्म ही हो गई है और आलम ये है कि घाटी के अंदरुनी इलाकों में तैनात हमारे सेना के जवान भी ये देखकर हैरान हैं कि यहां इतनी जल्द हालात इतने सामान्य कैसे हो गए.

हालांकि कश्मीर के क्षेत्रीय राजनीतिक दल पिछले लंबे अरसे से केंद्र से ये मांग करते आ रहे हैं कि घाटी से सेना की पूरी तरह से वापसी हो. लेकिन बीते कुछ महीनों में बीजेपी के स्थानीय नेतृत्व ने भी सरकार को आगाह किया है कि अगर हम कश्मीर घाटी के सामान्य हालात को प्रदर्शित करना चाहते हैं तो उसके लिए जरूरी है कि घाटी से सेना की वापसी हो. बेशक वह चरणबद्ध तरीके से ही हो लेकिन उससे एक बड़ा सियासी संदेश भी जाएगा जो बीजेपी की जमीन को मजबूत करेगा. शायद यही वजह है कि केंद्र सरकार फिलहाल कुछ जिलों मसलन अनंतनाग और कुलगाम जैसे जिलों से सेना की टुकड़ियां हटाने पर विचार कर रही है.

सरकार देखना चाहती है कि स्थानीय लोगों के बीच इसका क्या असर होता है और सीमा पार के आतंकी इसे किस रुप में लेते हैं. यानी कि सरकार साल  2000 के दशक का टेस्ट और ट्रायल देखना चाहती है,जब कश्मीर घाटी के अंदरुनी तमाम इलाको में तैनात बीएसएफ को वहां से हटाया गया था.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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