आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने ट्वीट किया है कि बेंगलुरु में विपक्षी दलों की बैठक में हर नेता ने लोगों के मुद्दे और एजेंडे पर बात करने के साथ इंडिया के सामने मौजूद चुनौतियों पर बात की. उनके ट्वीट में आगे लिखा है कि मोदी जी पर जीरो डिस्कशन हुआ.


मैं समझता हूं कि जयंत चौधरी के इस ट्वीट में कोई ख़ास बात नहीं है. बेंगलुरु में जो बैठक थी, ये कांग्रेस और सहयोगियों के बीच में बातचीत थी. मल्लिकार्जुन खरगे बैठक में जाने से पहले ही कह चुके थे कि हमें बहुत सी चीजें पर चर्चा करनी है. हमें मालूम है कि हर राज्य में समस्याएं हैं और सीटों पर बंटवारे को लेकर भी बातें करनी है. मल्लिकार्जुन खरगे का एप्रोच बहुत सही रहा है. वे ऐसे किसी मुद्दे पर बातचीत नहीं करना चाहते होंगे, जिससे मुख्य बिन्दुओं से फोकस हट जाए.


नरेंद्र मोदी पर उन्होंने बात नहीं की तो मैं समझता हूं कि उनका जो उद्देश्य है, उसके हिसाब से यह सही है. मोदी पर तो वे पहले ही बात कर चुके हैं, नई बात तो नहीं है. जब कैंपेन की रणनीति बनेगी तो उस पर बात होगी. अभी जो कवायद थी वो इस पर थी कि विपक्षी दल एक साथ बैठे, एक साथ बातें करें और विपक्षी गठबंधन पर सहमति जताएं. जो उन्होंने INDIA कहा है, उस तरह से विपक्षी गठबंधन बना है.


जयंत चौधरी के ट्वीट में ऐसा कुछ भी नहीं है जो विपक्षी गठबंधन के खिलाफ हो. ये भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार और लालू यादव न तो बेंगलुरु में प्रेस कॉन्फ्रेंस में रहे और न ही पटना में जाकर कुछ बोले. इस तरह की बैठक में बहुत सी अनौपचारिक बातें हो जाती है. इसके बाद जो प्रवक्ता होता है, वो सारी बातें मीडिया के सामने रखता है. हर पार्टी ने नेता तो उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोलते नहीं हैं, सिर्फ शक्ल दिखाने के लिए ही रहते हैं.



मुझे नहीं लगता है कि जयंत चौधरी के ट्वीट का कोई संबंध विपक्षी एकता को नुकसान से है. इस तरह के गठबंधन में की तरह की बातें होती रहती हैं. विचारों में अंतर होते रहता है, इसका ये मतलब नहीं हैं कि वे अलग हो जाते हैं. ऐसे राजनीति में किसी की गतिविधि के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.


जयंत चौधरी ने ऐसा नहीं कहा है कि वे अलग होना चाहते हैं या इससे अलग होकर वो कुछ करना चाहते हैं. उन्होंने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है. उनका सिर्फ़ यही कहना है कि विपक्ष की बैठक में हमने सिर्फ इन्हीं मुद्दों पर बात की और बाकी को कोई तवज्जो नहीं दिया है. उनके ट्वीट को इस एंगल से लेना चाहिए, न कि विपक्षी गठबंधन में दरार के एंगल से.



अब तक जो खबरें सामने आ रही थी कि जयंत चौधरी अलग से कांग्रेस से बातचीत भी कर रहे हैं. ये भी सही है कि जयंत चौधरी और समाजवादी पार्टी के साथ रिश्ते बहुत अच्छे भी नहीं है.


इस तरह के गठबंधन में कई पार्टियां एक-दूसरे के साथ बैठना नहीं चाहती हैं. केरल में हम ऐसा देखते हैं कि दोनों तरह के गठबंधन में बहुत सारी पार्टियां एक-दूसरे के साथ बैठना नहीं चाहती हैं, फिर भी दोनों साथ रहते हैं. ये गठबंधन की समस्या रहती है. ये हम केंद्र में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार के वक्त भी देख चुके हैं. जब वाजपेयी जी की सरकार थी, तब भी ऐसा देखने को मिला है. ऐसे गठबंधन को बनाकर रखना आसान काम नहीं होता है.


ऐसे गठबंधन में हर पार्टी को अपने-अपने हितों को बचाने की भी चिंता होती है. उनको ये भी देखना होता है कि किधर रहने से ज्यादा फायदा है. आज की तारीख में जयंत चौधरी के लिए बीजेपी के साथ जाना कोई आसान काम नहीं है. उत्तर प्रदेश में जो राजनीतिक माहौल है, उसमें अगर जयंत चौधरी बीजेपी के साथ जाएंगे तो वे समाप्त हो जाएंगे. इसलिए वे बीजेपी के साथ जा नहीं सकते हैं. ऐसे में सवाल है कि अगर वे बीजेपी के साथ नहीं जा सकते तो कहां जाएंगे? इसलिए वे विपक्ष के गठबंधन में रहेंगे और अपनी बातें कहते रहेंगे.


विपक्षी गठबंधन में प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरे पर बात करना फिलहाल किसी भी दल के लिए सही नहीं है. अभी तो चुनाव हुआ नहीं है. किसी के पास नंबर नहीं है. इस बारे में गठबंधन फिलहाल कोई बात नहीं करे, तो ही उसके लिए सही रहेगा. अगर कांग्रेस ने ये बात कह दी है कि उसकी रुचि पीएम पद को लेकर नहीं है तो ये गठबंधन के सहयोगी दलों के लिए बहुत बड़ा संकेत है कि मंच खुला हुआ है और बाद में जैसे नंबर आएंगे, उस स्थिति के हिसाब से बातें होंगी.


बीजेपी के पास एक एडवांटेज है कि वो अभी सरकार में है. सरकार में रहकर बहुत सारी चीजें मैनेज हो जाती है. बीजेपी के साथ एडवांटेज है कि उनके साथ संघ का बहुत बड़ा कैडर है, जो बहुत गहराई तक जाकर काम करता है. विपक्ष के पास ऐसा कोई एडवांटेज नहीं है. विपक्ष के पास है तो अलग-अलग लोगों के, अलग-अलग तरह के कैडर हैं. कहीं ममता के होंगे, कहीं समाजवादी पार्टी के होंगे, कहीं लेफ्ट के होंगे. विपक्ष का सारा दारोमदार अभी फिलहाल इसी तक सीमित है कि फिलहाल वे सभी साथ आकर बैठे. पटना में जितनी पार्टियां आई थीं, उससे ज्यादा बेंगलुरु में आईं. मुंबई में चुनावी रणनीति से जुड़े मुद्दों पर बात की शुरुआत हो सकती है. और उसके बाद ही कह सकते हैं कि विपक्ष का ये गठबंधन कितना मजबूत है.


अभी पांच पार्टियां हैं जो किसी भी गठबंधन में नहीं हैं. इसमें आंध्र प्रदेश से जगनमोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू की पार्टियां भी है, तेलंगाना से केसीआर भी है. मायावती और नवीन पटनायक किसी गठबंधन में नहीं हैं. इन पांचों पार्टियों का क्या रोल होगा. आज की तारीख में यही कह सकते हैं कि जो भी जीतने वाला गठबंधन होगा, उसमें ये चले जाएंगे. बराबरी की स्थिति में इन पार्टियों की भूमिका बढ़ जाएगी.


अभी 2024 के लोकसभा चुनाव में समय है. अभी परिस्थितियां बन रही हैं. इस बीच कुछ राज्यों में चुनाव होने हैं. अभी तो सभी चीजें बन रही हैं और वो बनने के बाद ही तय हो पाएगा कि आगे क्या होगा. राज्यों में होने वाले चुनाव में क्या रुझान होगा, उसके बाद, चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस, वो अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप देंगी.


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