झारखंड विधानसभा के चुनाव परिणाम बीजेपी के लिए राज्य ही नहीं बल्कि एक देशव्यापी झटका हैं. दिसंबर, 2017 में पार्टी जहां देश के 71% नक्शे पर छाई दिखती थी, दिसंबर 2019 खत्म होते-होते वह सिकुड़ कर लगभग आधी (35%) हो गई है!. पार्टी को भरोसा था कि वह झारखंड के अपने सबसे पुराने सहयोगी दल ‘आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन’ (आजसू) को दरकिनार करके भी अपनी ताकत के बल पर दोबारा सरकार बना लेगी और देश में अपना रकबा सुधारेगी, लेकिन मतदाताओं ने मोदी-शाह की तूफानी रैलियों और आसमानी वादों के बावजूद बीजेपी को वहां सत्ता से बेदखल कर दिया है.
दरअसल वर्तमान नतीजे में सत्ताधारी गठबंधन के बिखराव और विपक्षी दलों के गठबंधन की एकजुटता का काला-सफेद अंतर साफ देखा जा सकता है. कांग्रेस-जेएमएम-राजद का गठबंधन एकजुट हो कर लड़ा, दूसरी ओर सत्तारूढ़ बीजेपी-आजसू गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर शुरू से ही गहरी दरार पैदा हो गई थी. आजसू ने कई सीटों पर बीजेपी उम्मीदवारों का खेल बिगाड़ा, जो उनके मुख्यमंत्री पद के चेहरे रघुबर दास और बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष लक्षण गिलुवा तक को ले डूबा! पिछली बार की 37 सीटों के मुकाबले इस बार मात्र 25 सीटें जीत पाने से बीजेपी का विधानसभा में सबसे बड़ा दल बनने का सपना भी चकनाचूर हो गया है. मात्र छह माह पहले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में 55.3% वोट खींच कर राज्य की 14 में से 13 सीटें बीजेपी ने आजसू के साथ मिलकर ही झटकी थीं और विधानसभा चुनाव में वह आजसू को 10-12 से ज्यादा सीटें देने को राजी नहीं हुई!
इस बिंदु पर हम बीजेपी और कांग्रेस की रणनीति में 360 डिग्री परिवर्तन देखते हैं. अटल जी के जमाने में बीजेपी गठबंधन चलाने वाले कुशल इंजन के तौर पर स्थापित हुई थी जबकि सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति करने और समझने में ही दशकों लग गए. हाल के दिनों तक बीजेपी अपने सहयोगी दलों के सामने झुकने और उन्हें सम्मान देने की रणनीति पर अमल करती आई है. बिहार में नितीश कुमार की पार्टी जेडीयू के लिए अपनी पिछली जीती हुई लोकसभा सीटें भी छोड़ देना इसका बड़ा उदाहरण है. लेकिन जब अन्य राज्यों में भी सहयोगी दल आंख दिखाने लगे तो मोदी-शाह ने सख्त और दबंग रुख अपनाने की राह पकड़ ली. सीट बंटवारे को लेकर पंजाब में बीजेपी की अकाली दल से अनबन सामने आई थी और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ हुआ फिल्मी घटनाक्रम ताजा ही है.
अपने इसी आक्रामक रवैए के चलते बीजेपी ने झारखंड में आजसू को भाव न देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली. 2014 के विधानसभा चुनाव में राज्य की ऊंची जातियों के 50% मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया था और ओबीसी के 40% मतदाता उसके पक्ष में खड़े थे, जिसमें इस बार भी बहुत ज्यादा उलटफेर नहीं हुआ है. लेकिन जिस आजसू की बदौलत आदिवासी यानी एसटी मतदाता बीजेपी (30%) और जेएमएम (29%) में बंट गए थे उसी आजसू से बीजेपी के मुंह मोड़ लेने पर कांग्रेस-जेएमएम गठबंधन आदिवासी बहुल 25 सीटों पर सूपड़ा साफ कर गया. इनके अलावा दूसरी ऐसी 12 विधानसभा सीटें हैं जहां बीजेपी और आजसू मत जोड़ देने से उनके उम्मीदवार निश्चित तौर पर जीत सकते थे.
इस कसौटी पर जब हम कांग्रेस को तोलते हैं तो पाते हैं कि बीजेपी से ठीक उलट कांग्रेस ने यूपी से सबक सीख कर राष्ट्रीय पार्टी होने का घमंड त्यागते हुए विभिन्न राज्यों में छोटा भाई बनने की सहृदयता एवं व्यावहारिकता दिखाई है. यूपी, एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र में कांग्रेस ने सपा, बसपा, बहुजन वंचित विकास आघाड़ी का दामन झटक दिया था और इसका खामियाजा पिछले चुनावों में भुगता. छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो लगभग हर उल्लिखित राज्य में वह या तो सत्ता से बाहर हो गई या दूसरों की बैसाखियों पर घिसट रही है या नटों की तरह रस्सी पर सत्ता चला रही है. लेकिन जब कांग्रेस ने बिहार में लालू को बड़ा भाई बनाया, कर्नाटक में अपने से बहुत कम विधायक वाली जेडीएस के सामने झुक कर उसका मुख्यमंत्री बनवाया, झारखंड में जेएमएम का नेतृत्व स्वीकार कर लिया, तो परिणाम उसके पक्ष में सकारात्मक रहे. यह ट्रेंड देख कर यकीनन बीजेपी को भी सहयोगी दलों के प्रति अपन रुख लचीला करना ही होगा.
ये चुनाव परिणाम मोदी-शाह के चुनाव प्रचार मॉडल की विफलता का भी द्योतक हैं. आदिवासी बहुल (कुल आबादी का 27%) झारखंड में जल, जंगल, जमीन, किसान-आदिवासियों के अधिकार, ऊर्जा संकट, खनिज-मानव-गोवंश तस्करी, आवारा पशुओं का प्रबंधन और मॉब लिंचिंग में मुसलमानों की न थमने वाली हत्याओं जैसे मुद्दों को बीजेपी ने लगभग दरकिनार कर दिया और अनुच्छेद 370 हटाने, ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून बनाने, देश भर में एनआरसी लागू करने, नक्सलवाद का खात्मा, आसमान से ऊंचा राम मंदिर बनाने, भगवान राम के बनवास को आदिवासियों से जोड़ने, हिन्दू-मुसलिम विवाद जैसे भावनात्मक और राष्ट्रीय मुद्दों को जोर-शोर से उछाला. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार का आलम यह था कि उन्होंने खुले आम मंच से कहा, ‘ये जो आग लगा रहे हैं, ये जो तस्वीरें टीवी पर दिखाई जा रही हैं, उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है.’ उन्होंने यह बताने की कोशिश नहीं कि राजधानी रांची के पास कौन-सा कारखाना खुलने जा रहा है या नोआमुंडी की किस खदान में कितने लोगों को नौकरी मिल सकेगी. झारखंड को महाराष्ट्र समझकर बीजेपी वहां वीर सावरकर का बखान करने में जुटी थी!
इसके बरक्स जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन ने अपने घोषणा-पत्र में साफ लिखा कि अगर गठबंधन सत्ता में आया तो झारखंड में किसानों का 2 लाख रुपए तक का ऋण एक झटके में माफ कर दिया जाएगा और मॉब लिंचिंग के मामलों से निबटने के लिए सख्त कानून बनाए जाएंगे. इसके अलावा किसानों को साहूकारों के चंगुल से छुड़ाने के लिए आसान संस्थागत ऋण सुलभ कराए जाएंगे तथा प्रभावशाली ‘किसान फसल बीमा’ योजना लागू करने के साथ-साथ कीटों एवं प्राकृतिक आपदा के कारण बरबाद हुई कृषि-उपज का उचित मुआवजा सुनिश्चित किया जाएगा. वैसे तो धारणा यही बन गई है कि राजनीतिक दलों के लिए घोषणा-पत्र तो कागज का महज एक टुकड़ा होता है, लेकिन विपक्षी गठबंधन के जमीन से जुड़े स्थानीय मुद्दों को हवा देते वादे मतदाताओं को लुभाने में कामयाब रहे.
झारखंड की चुनावी विफलता का असर बीजेपी को दिल्ली में भी दिखाई देगा, जहां फरवरी 2020 के पहले हफ्ते तक चुनाव संपन्न होने तय हैं. गोवा और हरियाणा में जोड़तोड़, असम और कर्नाटक में तोड़फोड़ तथा महाराष्ट्र और अब झारखंड में सरकार बनाने में पार्टी की नाकामी का संदेश पूरे देश में चला गया है. इसमें शक नहीं कि झारखंड में विपक्षी बन कर लड़े रामविलास पासवान और नितीश कुमार बिहार में सहयोगी होने के बावजूद बीजेपी को अपनी उंगलियों पर नचाने की कोशिश करेंगे. दूसरी ओर पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने तथा अब महाराष्ट्र और झारखंड की सरकार में शामिल हो जाने के बाद कांग्रेस को आशाओं का आकाश खुलता दिखाई दे रहा होगा, क्योंकि बिहार तो डूबते सूरज को भी सलाम करता है और दिल्ली में भी बिहारी मतदाताओं की संख्या दाल में नमक से ज्यादा ही है!
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