BLOG: बुधवार, 15 नवंबर, 2000 को अस्तित्व में आए झारखंड का यह चौथा विधानसभा चुनाव है. घनघोर राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहे इस नवगठित राज्य ने एक निर्दलीय विधायक (मधु कोड़ा) के नेतृत्व में भी सरकार बनती देखी है! पहली बार जब 2005 में चुनाव हुए तो बीजेपी सबसे बड़ा दल बन कर उभरी थी और 2009 में जेएमएम. दोनों बार स्पष्ट बहुमत राज्य की जनता ने किसी को नहीं दिया था. हालांकि बीजेपी ने आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के साथ 2014 में चुनाव लड़कर पहली बार स्पष्ट बहुमत (कुल 81 में दोनों के 42 विधायक) हासिल किया था. लेकिन 2019 में सत्तारूढ़ बीजेपी जनविरोधी लहर का सामना करने के साथ-साथ गठबंधन के संकट से भी बुरी तरह जूझ रही है.



इस बार फैसलाकुन फैक्टर यही नजर आ रहा है कि विपक्षी कांग्रेस-जेएमएम-राजद का गठबंधन एकजुट हो कर लड़ रहा है जबकि सत्तारूढ़ बीजेपी-आजसू गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर गहरी दरार है. पूर्व सीएम बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) के 2015 में बीजेपी का दामन थामने वाले 8 में से 6 विधायक भी इस बार बीजेपी उम्मीदवारों की नाक में दम किए हुए हैं. जेवीएम सभी 81 सीटों पर अकेले दम पर चुनाव लड़ ही रहा है. हमें इस तथ्य पर भी ध्यान रखना चाहिए कि 2014 में बीजेपी के बाद दूसरे और तीसरे नंबर पर रही जेएमएम और कांग्रेस एक-दूसरे के खिलाफ लड़ी थीं और लगभग 14 सीटों पर दोनों का कुल वोट शेयर बीजेपी गठबंधन से अधिक था. ये दोनों पार्टियां इस बार मिलकर लड़ रही हैं, जिससे बीजेपी की मुश्किल और बढ़ गई है.


बीजेपी की बड़ी मुसीबत यह भी है कि केंद्र में उसकी पार्टनर और एनडीए का घटक जेडी (यू) तथा एलजेपी भी राज्य में उसके खिलाफ तलवारें तान कर खड़ी हो गई हैं. यह बात सही है कि इन दोनों पार्टियों का झारखंड में खास जनाधार नहीं है, लेकिन इस बार के करीबी मुकाबले में एक-एक वोट बीजेपी के लिए बेहद अहम हो गया है. जेडी (यू) की राज्य के कुर्मी वोट बैंक पर नजर है. नितीश कुमार बिहार और झारखंड के निर्विवाद सबसे बड़े कुर्मी नेता हैं. रांची से लंबे समय सांसद रहे राम टहल चौधरी के रूप में बीजेपी के पास झारखंड में बड़े जनाधार वाला एकमात्र कुर्मी नेता मौजूद था, लेकिन 2019 में उनका टिकट काट कर पार्टी ने उन्हें खफा कर रखा है. आकलन यह है कि बीजेपी के कुर्मी वोट कटने का फायदा कमजोर जेडी (यू) उम्मीदवारों को कम और कांग्रेस को अधिक मिलेगा.



कांग्रेस-जेएमएम-राजद के गठबंधन ने शुरू से ही सीट बंटवारे और मुख्यमंत्री पद को लेकर कोई भ्रम नहीं रखा है. पहले दिन से इन तीनों ने तय कर लिया था कि कांग्रेस के राष्ट्रीय दल होने के बावजूद क्षेत्रीय दल जेएमएम राज्य में बड़े भाई की भूमिका निभाएगा और हेमंत सोरेन गठबंधन का सीएम चेहरा होंगे. इससे विपक्षी गठबंधन को चुनाव प्रचार व्यवस्थित करने में भी मदद मिली है. खास बात यह भी है कि विपक्षी गठबंधन स्थानीय मुद्दों पर अधिक जोर दे रहा है. कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में साफ लिखा है कि अगर गठबंधन सत्ता में आया तो अन्य कांग्रेस-शासित राज्यों की भांति झारखंड में भी किसानों का 2 लाख रुपए तक का ऋण एक झटके में माफ कर दिया जाएगा और मॉब लिंचिंग के मामलों से निबटने के लिए सख्त कानून बनाए जाएंगे. इसके अलावा किसानों को साहूकारों के चंगुल से छुड़ाने के लिए आसान संस्थागत ऋण सुलभ कराए जाएंगे तथा प्रभावशाली ‘किसान फसल बीमा’ योजना लागू करने के साथ-साथ कीटों एवं प्राकृतिक आपदा के कारण बरबाद हुई कृषि-उपज का उचित मुआवजा सुनिश्चित किया जाएगा.


दूसरी तरफ अगर हम पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रैलियों पर नजर डालें तो उनमें आसमान से भी ऊंचा राम मंदिर बनाने तथा अनुच्छेद 370 हटाने का श्रेय लेने का बोलबाला है. मोदी जी भगवान श्रीराम और उनके वनवास को राज्य के आदिवासियों से जोड़ कर दिखाने की कोशिश करते दिखे. उन्होंने नक्सलवाद को बढ़ावा देने का दोष कांग्रेस पर मढ़ने में ऊर्जा खर्च की लेकिन अंधेरे में डूबे खनिज-समृद्ध झारखंड को पर्याप्त विद्युत ऊर्जा दिलाने का कोई जिक्र उनकी सभाओं में नहीं हुआ. अलबत्ता राम मंदिर और अंजनी धाम का जिक्र करके उन्होंने हिंदू कार्ड खेलने में रुचि दिखाई. हालांकि इसकी वजह भी बहुत अहम है.


झारखंड आदिवासी बहुल (कुल आबादी का 27%) राज्य अवश्य है लेकिन बीजेपी के लिए सवर्ण और ओबीसी जातियों की आबादी चुनावी नतीजों के ताले की मास्टर कुंजी है. 2014 के विधानसभा चुनाव नतीजों पर नजर डालें तो राज्य की ऊंची जातियों के 50% मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया था और ओबीसी के 40% मतदाता उसके पक्ष में खड़े हो गए थे. आदिवासी यानी एसटी मतदाता बीजेपी (30%) और जेएमएम (29%) में बंट गए थे. झारखंड के चुनावों में आदिवासी बहुल 25 सीटों पर सभी पार्टियों की विशेष निगाह रहती है. पिछली बार बीजेपी ने इनमें से 11 और जेएमएम ने 12 सीटों पर कब्जा किया था. आजसू के बीजेपी से मुंह मोड़ लेने पर कांग्रेस-जेएमएम गठबंधन इन आदिवासी बहुल 25 सीटों पर इस बार क्या गुल खिला सकता है, यह बीजेपी बखूबी जानती है! शायद इसीलिए मोदी और शाह झारखंड के सवर्ण+ओबीसी मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखने के लिए स्थानीय मुद्दों की बजाए हिंदुत्व एवं राष्ट्रवाद से जुड़े कारकों पर अधिक जोर दे रहे हैं.

झारखंड की राजनीति का आलम यह है कि एक पत्थर फेंकिए तो चार मुख्यमंत्रियों को लगता है! गुरु जी के नाम से सम्मानित शिबू सोरेन के जमाने से लेकर अब तक का चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात पालाबदल घटनाक्रम दर्ज किया जाए तो कई किताबें तैयार हो जाएंगी! वहां भोले-भाले आदिवासियों से विकास के सिर्फ वादे किए जाते हैं, उनके शोषण का चक्र नहीं थमता. झारखंड में 50 लाख से ज्यादा मुसलमान रहते हैं. पाकुड़ और साहिबगंज जिले में मुसलमान कुल आबादी का करीब 30 फीसदी हैं. देवघर, जामताड़ा, लोहरदगा और गिरिडीह जिलों में यह औसत 20 फीसदी है. गोड्डा, चतरा, लोहरदगा और राजमहल लोकसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं. लेकिन झारखंड की कुल आबादी का 14.53 फीसदी होने के बावजूद यहां के मुसलमान सियासी हाशिए पर हैं. तमाम पार्टियों के वर्तमान विधानसभा उम्मीदवारों पर नजर डालते हुए यही कहा जा सकता है कि मुस्लिम मतदाताओं को ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ मान लिया गया है!



मौजूदा चुनाव में भी मुस्लिम मतदाता बीजेपी को कोई बड़ा झटका देने की स्थिति में नहीं नजर आते. लेकिन आजसू का उससे छिटक जाना पार्टी को भारी पड़ सकता है. हालांकि इसके लिए बीजेपी खुद ही जिम्मेदार है. हाल ही के लोकसभा चुनाव में 55.3% वोट खींच कर राज्य की 14 में से 13 सीटें बीजेपी ने आजसू के साथ मिलकर ही झटकी थीं और विधानसभा चुनाव में वह आजसू को 10-12 से ज्यादा सीटें देने को राजी नहीं हुई. फिलहाल झारखंड में चुनावी पारा शिखर पर है और सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा अपने सबसे पुराने गठबंधन पार्टनर को नाराज किए जाने की तीव्रता नतीजे के दिन यानी 23 दिसंबर को ही पता चलेगी.


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)