किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था या प्रणाली में नागरिक, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सबसे महत्वपूर्ण होते हैं. इनमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को लोकतंत्र का तीन स्तंभ कहा जाता है, जो नागरिकों के जीवन को सुगम बनाने का लक्ष्य लेकर काम करते हैं. उसमें भी न्यायपालिका की भूमिका लोकतांत्रिक व्यवस्था में  ज़्यादा महत्वपू्ण हो जाती है. ऐसा इसलिए भी कह सकते हैं कि जब नागरिकों की उम्मीदें विधायिका और कार्यपालिका से पूरी नहीं हो पाती है, तो उनके लिए एकमात्र भरोसा न्यायपालिका ही बचता है.


संविधान के तहत भारतीय संसदीय व्यवस्था में भी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का बँटवारा कुछ इस तरह से किया गया है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके. न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता से ही देश के नागरिकों के लिए न्याय की गारंटी तय हो पाती है.


अदालतों में लंबित हैं करोड़ों मामले


हालाँकि आज़ादी के 76 साल बाद भी भारत में न्यायपालिका का बुनियादी ढाँचा उस तरह से मज़बूत नहीं हो पाया है, जिससे देश के आम लोग के लिए न्याय प्रक्रिया सुगम हो सके और वे त्वरित न्याय हासिल कर सकें. देश की अदालतों में लंबित करोड़ों मामले और न्याय की आस में विवशता से जीवनयापन कर रहे करोड़ों नागरिक इसके ज्वलंत प्रमाण हैं.


न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर सुप्रीम कोर्ट


संविधान के माध्यम से भारत में संघीय शासन की व्यवस्था की गई है. इसके अधीन संघ और राज्यों के लिए न्यायपालिका तंत्र का गठन अलग-अलग नहीं करके पूरे देश में न्याय प्रणाली एक ही रखी गई है. इस पूरी प्रणाली में देश का सर्वोच्च और अंतिम अपीलीय न्यायालय है उच्चतम न्यायालय यानी सुप्रीम कोर्ट है. इसके अधीन राज्यों के उच्च न्यायालय या'नी हाई कोर्ट और उच्च न्यायालयों के अधीन अन्य अधीनस्थ न्यायालय या'नी निचली अदालतें हैं. इस तरह से देखें, तो भारत के सारे कोर्ट एक कड़ी में बंधे हुए है जिनमें सुप्रीम कोर्ट सबसे ऊपर है. इस तरह से देश के न्यायिक ढांचे के तहत न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर देश का सुप्रीम कोर्ट है. इसके बाद राज्यों या कुछ राज्यों के समूह पर हाईकोर्ट हैं. फिर हाईकोर्ट के तहत निचली अदालतों का एक पूरा तंत्र काम करता है.



संविधान के भाग 5 के अध्याय 4 में संघ की न्यायपालिका के तहत सुप्रीम कोर्ट को स्थापित किया गया है. अनुच्छेद 124 से लेकर 147 तक सुप्रीम कोर्ट से जुड़े प्रावधानों का विवरण है. वहीं  संविधान के भाग  6 के अध्याय 5 में अनुच्छेद 214 से लेकर अनुच्छेद 231 तक राज्यों के उच्च न्यायालय के तहत हाईकोर्ट की व्यवस्था है. इसी भाग के अध्याय 6 में अधीनस्थ न्यायालय या'नी निचली अदालत से जुड़े प्रावधान अनुच्छेद 233 से लेकर अनुच्छेद 237 तक शामिल हैं.



सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या बढ़ती रही है


संविधान के अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट के गठन के संबंध में प्रावधान है. मूल संविधान में प्रावधान था कि सुप्रीम कोर्ट में एक मुख्य न्यायाधीश और सात अन्य न्यायाधीश होंगे. संविधान के तहत ही संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह समय-समय पर न्यायाधीशों की संख्या का निर्धारण कर सकती है या'नी उसे बढ़ा सकती है.संसद ने जजों की संख्या को बढ़ाने के लिए 1956 में उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम, 1956 पारित किया. इसके ज़रिये चीफ जस्टिस समेत जजों की कुल संख्या 11 कर दी गयी. इस संख्या को बढ़ाकर 1960 में 14 और 1978 में 18 कर दी गयी. काम का बोझ बढ़ने पर इस संख्या को बढ़ाकर 1986 में 26 और 2009 में 31 कर दी गयी. आख़िरी बार 2019 में सुप्रीम कोर्ट में जजों की कुल संख्या बढ़ाकर 34 कर दी गयी. इस तरह से वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के साथ ही 33 और जजों की व्यवस्था है.


अलग-अलग राज्यों के लिए हाईकोर्ट


अलग-अलग राज्यों के लिए हाईकोर्ट की व्यवस्था है. देश में फ़िलहाल 25 हाईकोर्ट हैं. इनमें गुवाहाटी हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में असम, नागालैंड, मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश आते हैं. उसी तरह से बॉम्बे हाईकोर्ट के जुरिस्डिक्शन में महाराष्ट्र और गोवा के साथ ही केंद्र शासित प्रदेश दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव भी है. कलकत्ता हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में पश्चिम बंगाल के साथ ही केंद्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह आते हैं. उसी तरह से मद्रास हाईकोर्ट के दायरे में तमिलनाडु के साथ ही केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी शामिल है. केरल हाईकोर्ट में केरल के साथ केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप आता है. पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जुरिस्डिक्शन में पंजाब, हरियाणा और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ शामिल हैं.


हर राज्य न्यायिक जिलों में विभाजित है


इनके अलावा जिला स्तर पर निचली अदालतों की व्यवस्था है. राज्यों के हाईकोर्ट के अलावा हर राज्य न्यायिक जिलों में विभाजित हैं. इनका प्रमुख जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता है. जिला एवं सत्र न्यायालय उस क्षेत्र की सबसे बड़ी अदालत होती है जो सभी मामलों की सुनवाई करने में सक्षम होती है. जिला एवं सत्र न्यायालय ऐसे मामलों की भी सुनवाई कर सकती है जिनमें मौत की सज़ा तक का प्रावधान हो. जिला एवं सत्र न्यायाधीश जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है. उसके तहत दीवानी क्षेत्र की अदालतें होती हैं जिन्हें अलग-अलग राज्यों में मुंसिफ, उप न्यायाधीश, दीवानी न्यायाधीश आदि नाम दिए जाते हैं. इसी तरह आपराधिक प्रकृति के मामलों के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और प्रथम और द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट वगैरह होते हैं.


लंबित मामलों की संख्या 5.08 करोड़


इस तरह की न्यायिक व्यवस्था और ढाँचा के बावजूद भारतीय न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती अदालतों में लंबित करोड़ों केस हैं. यह समस्या कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा सिर्फ़ आँकड़ों से नहीं लगाया जा सकता है. हालांकि आँकड़े समस्या को समझने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं. इस साल संसद के मानसून सत्र के दौरान जुलाई में केंद्र सरकार की ओर से लंबित मामलों की जानकारी दी गई थी. सरकारी जानकारी के मुताबिक़ उस वक़्त तक सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और निचली अदालतों में मिलाकर लंबित मामलों की संख्या 5.02 करोड़ थी. वर्तमान में यह संख्या बढ़कर 5.08 करोड़ हो गयी है.


सुप्रीम कोर्ट में 78, 975 लंबित मामले


इंटेग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम से प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक़ एक जुलाई, 2023 तक सुप्रीम कोर्ट में 69,766 केस लंबित थे. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक़ लंबित मामलों की संख्या बढ़कर वर्तमान में 78, 975 हो गई है. इनमें 30 फ़ीसदी मामले (23,862 केस) एक वर्ष से कम पुराना है. ज़ाहिर है सुप्रीम कोर्ट में क़रीब 70 फ़ीसदी मामले एक साल से ज़्यादा पुराना है. सुप्रीम कोर्ट में लंबित केस में  सिविल मामलों की संख्या 61, 934 और क्रिमिनल मामलों की संख्या 17041 है. क्रिमिनल मामलों में 40 फ़ीसदी केस एक वर्ष से कम पुराना है और सिविल मामलों में 27.50% मामले एक वर्ष से कम पुराना है.


हाईकोर्ट में  61,65,779  केस लंबित


संसद में दी गयी जानकारी के मुताबिक़ 14 जुलाई तक देश के सभी हाईकोर्ट में मिलाकर 60 लाख 62 हजार 953 केस लंबित थे. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक़ वर्तमान में यह संख्या बढ़कर 61 लाख 65 हज़ार 779 हो गयी है. इनमें सिविल मामलों की संख्या 44 लाख 27 हज़ार 96 है और क्रमिनिनल मामलों की संख्या 17 लाख 38 हज़ार 683 है.


निचली अदालतों में 4,45,76,636 मामले लंबित


संसद में दी गयी जानकारी के मुताबिक़ 14 जुलाई तक जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 4 करोड़ 41 लाख 35 हज़ार 357 मामले लंबित थे. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के अनुसार वर्तमान में यह संख्या बढ़कर 4 करोड़ 45 लाख 76 हज़ार 636 हो गयी है.


सुप्रीम कोर्ट में 70% केस एक साल से पुराना


नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक़ वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में क़रीब 70 फ़ीसदी मामले एक साल से ज़्यादा पुराना है. सुप्रीम कोर्ट में दो मामले 1982 से लंबित हैं. 206 मामले 2003 से लंबित हैं. 548 मामले 2009 से लंबित है. उसके बाद से या'नी 2011 से साल दर साल के हिसाब से लंबित मामलों की संख्या चार अंकों में है. 


हाईकोर्ट में 70, 780 केस 30 साल से अधिक पुराना


वहीं नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक़ वर्तमान में हाईकोर्ट में 72.75 फ़ीसदी मामले एक साल से अधिक पुराने हैं. हाईकोर्ट में 70 हज़ार 780 मामले 30 साल से अधिक पुराने हैं. वहीं दो लाख 13 हज़ार 520 मामले 20 से 30 साल पुराने हैं. इसके अलावा हाईकोर्ट में 10 लाख 47 हज़ार 323 मामले 10 से 20 साल पुराने हैं और 13 लाख 5 हज़ार 524 मामले 5 से 10 साल पुराने हैं. हाईकोर्ट में 3 से 5 साल पुाने मामलों की संख्या फ़िलहाल 10 लाख 19 हज़ार 666 है. वहीं एक से तीन साल पुराने मामलों की संख्या 8 लाख 28 हज़ार 277 है, जबकि 16 लाख 80 हज़ार 189 मामले एक साल से कम पुराने हैं.


निचली अदालतों में 95,256 केस 30 साल से अधिक पुराना


लंबित केस के मामले में जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों की स्थिति तो बेहद ही दयनीय है. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक़ वर्तमान में जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 60.68% केस एक साल से अधिक पुराने हैं. जानकर हैरानी होगी कि जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 95 हज़ार 256 मामले 30 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं. वहीं 20 से 30 साल पुराने मामलों की संख्या 5 लाख 2 हज़ार 611 है. जबकि 10 से 20 साल पुराने मामलों की संख्या 32 लाख 69 हज़ार 874 है.  इसके साथ ही इन अदालतों में 5 से 10 साल पुराने केस की संख्या 71 लाख 4 हज़ार है. वहीं 3 से 5 साल पुराने मामलों की संख्या 71 लाख 77 हज़ार 897 है. जबकि एक से 3 साल पुराने मामलों की संख्या 89 लाख से अधिक है.


नागरिक अधिकारों से जुड़ा है मामला


देश की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या और उनके विश्लेषण से कोई भी समझ सकता है कि यह समस्या कितनी गंभीर और विकराल है. यह समस्या सीधे-सीधे नागरिक अधिकारों से भी जुड़ा है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्याय पाना और उससे भी ज़्यादा समय पर न्याय पाना...नागरिक अधिकारों में से एक है. ऐसा नहीं है कि इस समस्या पर चर्चा नहीं होती है. सुप्रीम कोर्ट के जितने भी चीफ जस्टिस हुए हैं, तक़रीबन सभी ने अपने-अपने कार्यकाल के दौरान इस समस्या पर चिंता ज़ाहिर की है. इसके साथ ही देश के तमाम प्रधानमंत्री की ओर से इस मसले की गंभीरता को लेकर बयान आते रहे हैं.


न्यायिक बुनियादी ढाँचे का विस्तार


लंबित मामलों की संख्या में तेज़ी से कमी हो और न्याय जल्द मिले, इसके लिए सबसे ज़रूरी पहलू देश के न्यायिक बुनियादी ढाँचे का विस्तार है. यह एक प्रकार से न्यायपालिका के लिए बुनियादी ज़रूरत भी है. आज़ादी के बाद से देश की जनसंख्या जिस रफ़्तार से बढ़ी है, उस गति से न्यायपालिका से जुड़ा ढाँचा विस्तृत नहीं हुआ है. वर्तमान में भारत दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश है. 140 करोड़ से अधिक लोग हो चुके हैं. इतनी बड़ी जनसंख्या को न्याय मिले, उस लिहाज़ से न्यायपालिका से जुड़ी व्यवस्था के विस्तार की दरकार है. हाईकोर्ट से लेकर निचली अदालतों में जजों की कमी और बाक़ी कर्मचारियों की कमी लंबित मामलों की बड़ी संख्या के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. इसके साथ ही क़ानूनी मामलों की जटिलता या'नी क़ानूनी दांव-पेच और प्रक्रियाओं का दुरूह या कठिन होना भी एक बड़ा कारण है. समय-समय पर केंद्र सरकार की ओर से भी लंबित मामलों के लिए इन्हीं कारणों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा है.


बुनियादी ढाँचों के लिए न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं


अधिकारों या शक्तियों को लेकर देश में न्यायपालिका स्वतंत्र है, लेकिन बुनियादी ढाँचों के लिए न्यायपालिका पूरी तरह से विधायिका और कार्यपालिका पर निर्भर है. इनमें जजों की संख्या, अदालतों के लिए इमारतों का निर्माण, बाक़ी कर्मचारियों की संख्या में इज़ाफ़ा, क़ानूनों का सरलीकरण और बदलते दौर के लिहाज़ से न्यायिक सिस्टम का तकनीकीकरण जैसे पहलू शामिल हैं. जनसंख्या के हिसाब से हाईकोर्ट और निचली अदालतों में जजों की भारी कमी है. इसके साथ ही नियुक्ति या भर्ती प्रक्रिया में सुस्ती की वज्ह से वर्तमान क्षमता के हिसाब से भी जजों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना हमेशा ही एक समस्या रही है. इस दिशा में वास्तविक धरातल पर जिस तरह के ठोस क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है, आज़ादी के बाद से ही विधायिका और कार्यपालिका की ओर से उस तरह की पहल अब तक नहीं हुई है.


न्यायिक बुनियादी ढाँचे में बदलाव की ज़रूरत


लोगों तक जल्द न्याय पहुँचे, इसके लिए देश के मौजूदा चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ का भी मानना रहा है कि न्यायिक बुनियादी ढाँचे में बड़े पैमाने पर बदलाव की ज़रूरत है. इस साल स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर भी उन्होंने कहा था कि हर व्यक्ति तक न्याय पहुँचना चाहिए. लंबित मामलों पर देश की नजर रहे, इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट को भी नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड से इसी साल सितंबर में जोड़ दिया गया था.


आम लोगों का न्यायिक प्रणाली से मोहभंग न हो


देश में तक़रीबन 6 फ़ीसदी आबादी किसी न किसी रूप में मुकदमेबाजी से जुड़ी है. लंबित मामलों की संख्या और न्याय मिलने में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर से बार-बार चिंता ज़ाहिर की जाती रही है. दरअसल पूरा मसला न्यायपालिका पर भरोसा से जुड़ा है.


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस. रवींद्र भट्ट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने देश की अलग-अलग अदालतों से न्याय मिलने में होने वाली देरी पर नाराज़गी ज़ाहिर की थी. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड से पता चला था कि पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में सिविल जज सीनियर डिवीजन की अदालत में एक मामला 1952 से लंबित है. यह देश का सबसे पुराना लंबित सिविल मामला है. इसका ज़िक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने कहा था कि जनता का जस्टिस सिस्टम से मोहभंग न हो, इसके लिए ज़रूरी है कि न्याय मिलने के समय को ध्यान रखा जाए.


सुप्रीम कोर्ट की ओर से लंबित मामलों की जल्द सुनवाई के लिए विस्तृत दिशा निर्देश जारी करने की बात भी कही गयी है. शीर्ष अदालत का मानना है कि सभी स्तरों पर सक्रिय क़दम उठाकर ही लंबित मामलों के विशाल ढेर की समस्या से छुटकारा संभव है.


निचली अदालतों में हो व्यापक सुधार पर हो ज़ोर


हालांकि घूम फिर कर सारा मामला न्यायपालिका के बुनियादी ढाँचे पर ही आ जाता है. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बुनियादी ढाँचे में विस्तार की ज़रूरत तो है हीं, उसके साथ ही निचली अदालतों की व्यवस्था और बुनियादी ढाँचों में आमूल-चूल परिवर्तन की सख़्त ज़रूरत है. निचली अदालतों में जिस तरह की व्यवस्था है, लंबित मामलों की जितनी बड़ी तादाद है, उसको देखते हुए देशव्यापी स्तर पर एक नीति बनाने की ज़रूरत है. इससे ही निचली अदालतों की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है. आम नागरिकों को जल्द और आसानी से कम लागत पर न्याय उपलब्ध होने के नज़रिये से देश की न्यायपालिका से जुड़ी व्यवस्था में निचली अदालतों का महत्व सबसे ज़्यादा है. निचली अदालतों की व्यवस्था बेहतर होगी, तो ख़ुद-ब-ख़ुद ऊपरी या अपीलीय अदालत पर बोझ कम हो जायेगा. इससे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिलने में लगने वाला वक़्त अपने आप कम होने लगेगा.


अमीर और रुसूख़-दार न उठा पाएं फ़ाइदा


न्यायिक व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए न्यायिक सुधार और न्यायपालिका पर भरोसा बढ़ाने के नज़रिये से एक और पहलू महत्वपूर्ण है. यह पहलू देश के आम लोगों की अदालतों में पहुँच और अपने पक्ष को मज़बूती से रखने की व्यवस्था बनाए जाने से जुड़ा है.


न्यायिक प्रक्रिया जटिल और लंबी होने की वज्ह से ग़रीब और आर्थिक तौर से कमज़ोर लोगों के लिए अभी भी न्याय हासिल करना बेहद ख़र्चीला है. इसके साथ ही न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता से ऐसे लोगों का हौसला भी टूटने लगता है.आर्थिक तौर से अधिक ख़र्च कर और कानूनी दांव-पेच का लाभ उठाकर रुसूख़-दार लोग कोर्ट में मामलों को लंबा खींचने में सफल हो जाते हैं, इसके तमाम उदाहरण हम सब देखते आए हैं.


इनके अलावा अगर कोई राजनीतिक या आर्थिक तौर से बेहद प्रभावशाली व्यक्ति है, तो ग़रीब या आम लोगों की तुलना में वैसे लोग अपने मामले हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जल्द पहुँचाने में कामयाब हो जाते हैं. जबकि न्यायिक प्रक्रिया में देश का हर नागरिक समान है. यह ऐसा पहलू है, जिस पर न्यायपालिका के साथ ही विधायिका और कार्यपालिका को भी बेहद गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है. इसके लिए भी देशव्यापी कार्ययोजना बनाए जाने की आवश्यकता है.  ग़ौर करेंगे, तो पायेंगे कि यह पहलू सीधे-सीधे मामलों के त्वरित निपटारे और न्यायिक तंत्र में आम लोगों के भरोसे से सीधे तौर से संबंधित है.


न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता कैसे होगी दूर?


आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया कितनी ज़्यादा जटिल है, उसे इससे समझा जा सकता है कि कि देश में कई लोग तो लंबी अदालती कार्यवाही की वज्ह से उस अपराध के लिए नियत सज़ा से भी बहुत अधिक समय तक जेल में रहने को मजबूर होते हैं. हालांकि बाद में आरोप मुक्त होने के बाद उन्हें रिहा किया जाता है. बहुत सारे मामले ऐसे भी हैं, जिनमें छोटी-मोटी सज़ा होने पर भी जमानती प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाने के कारण बड़ी संख्या में लोग कई सालों तक जेल में रहने को मजबूर हो जाते हैं. ये दोनों पहलू भी हमारे मौजूदा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के साथ ही न्यायिक सिस्टम के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती हैं. इस पर भी ठोस नीति अपनाने की ज़रूरत है.


भविष्य के नज़रिये से बने ठोस रणनीति


लंबित मामलों की संख्या कम करने, न्याय तक आम लोगों की जल्द और कम ख़र्च में पहुँच सुनिश्चित करने के साथ ही जस्टिस सिस्टम पर भरोसे को और मज़बूत करने के लिए न्यायपालिका के साथ ही विधायिका और कार्यपालिका को भविष्य के नज़रिये से ठोस रणनीति बनाने की ज़रूरत है. उस रणनीति में वास्तविक तौर से, न कि सैद्धांतिक या काग़ज़ी तौर से, देश के आम लोगों को केंद्र बिंदु में रखने की आवश्यकता है. यह न्यायिक इच्छा शक्ति के साथ ही मज़बूत राजनीतिक इच्छा शक्ति से ही संभव हो सकता है. तभी देश के करोड़ों लोगों को न्याय की आस में वर्षों तक इंतिज़ार से बचाया जा सकता है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं]