रिटायर्ड जस्टिस अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाना नहीं असंवैधानिक फैसला, विपक्ष का ये पुराना पैंतरा
देश में राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर हर सरकार में विवाद होते रहे हैं. विपक्ष हमेशा इस तरह के फैसले की आलोचना करता है. कांग्रेस जब सत्ता में थी तब भी इसी तरह की नियुक्तियां होती थीं. जब कोई और पार्टी सत्ता में रही तब भी वैसी ही नियुक्ति हुई और आज भारतीय जनता पार्टी भी केन्द्र में रहकर कुछ अलग नहीं कर रही है.
कुछ ऑफिसेज ऐसे है जो आलोचनाओं के दायरे में आते हैं. पर कुछ ऐसा कहीं नहीं लिखा हुआ है कि पार्टी मैन नहीं रखा जाएगा. गवर्नर को तो केन्द्र की तरफ से नियुक्ति की जाती है और इसमें अगर वे किसी को राज्यपाल बनाते हैं तो उसमें ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के एक जज या दूसरे जज को नहीं बनाया जाएगा. लेकिन, ये सब सिर्फ राजनीति के लिए आलोचनाएं होती है.
अगर जो दल सत्ता में रहता है, वो राजनीति से ऊपर उठकर अगर फैसला करे तो गवर्नर और स्पीकर की नियुक्ति निष्पक्ष रहनी चाहिए ये बात सही है, लेकिन अभी तक जितने फैसले हुए उनमें ये नहीं कहा जा सकता है कि फलां आदमी क्यों बना और फलां आदमी क्यों नहीं बना.
नियुक्ति निष्पक्ष जरूर होनी चाहिए
अगर इस तरह से आंध्र प्रदेश के राज्यपाल की नियुक्त को जोड़कर देखा जाए कि चूंकि जस्टिस सैयद अब्दुल नजीर की भूमिका अयोध्या फैसले में रही, इसलिए उन्हें गवर्नर बना दिया गया, तो ये एक तरह से उनके फैसले पर आलोचना हुई.
ये उनकी नियुक्ति पर आलोचना कम और उनकी जजमेंट पर आलोचना ज्यादा है. मतलब उन्होंने सरकार का फेवर किया, इसलिए सरकार ने उन्हें गवर्नर बनाया. जबकि जजमेंट में ऐसा कुछ नहीं है, और न कोई कुछ कह सकता है. लेकिन बात वही है कि ये ऑफिस ही ऐसा है, जिसकी हमेशा नियुक्ति को लेकर आलोचना होती रहती है. और ये फैक्ट भी है कि जो भी पार्टी केन्द्र में रहती है, वो अपनी मनमर्जी के व्यक्तियों को गवर्नर का पोस्ट देती है.
कांग्रेस भी यही करती रही
बीजेपी सरकार पर राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े करने वाली कांग्रेस पार्टी ने भी अपने राज में कुछ अलग नहीं किया. ये अपने आप में किसी भी पार्टी के लिए अच्छा नहीं है लेकिन संविधान में इस बात की कोई रोक नहीं है कि कौन सा आदमी बनेगा और कौन सा नहीं बनेगा.
निष्पक्ष आदमी बने ये तो बहुत अच्छा कदम होगा लेकिन न ये कभी कांग्रेस राज में हुआ और न ये इनके राज में बने. इसलिए अगर ये सिर्फ आलोचनाओं के लिए ये आलोचना हो रही है तो अपने आप में ठीक है लेकिन ये असंवैधानिक नहीं है.
निश्चित तौर पर केन्द्र सरकार भी राजनीति कर रही है और विपक्ष भी इस पर पॉलिटिक्स कर रहा है. हालांकि, इससे ज्यूडिशियरी की क्रेडिबिलिटी प्रभावित नहीं होनी चाहिए. अभी तक बहुत ऐसे फैसले हैं, जिनकी आप आलोचना कर सकते हैं. विपक्ष आलोचना करे, ये उनका हक है. लेकिन इसमें कोई गैर-कानूनी या फिर असंवैधानिक जैसा कुछ भी नहीं है.
आदर्श स्थिति कभी नहीं रही
राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर आदर्श स्थिति कभी नहीं रही. जब से संविधान लागू हुआ है राज्यपाल की नियुक्ति की आलोचनाएं होती रही हैं. उनके फैसले की आलोचना हो रही है. कई बार सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसलों की आलोचना की है. लेकिन, ये पॉलिटिक्स है. सारी पार्टियां मिलकर अगर ऐसा करें, ताकि इन नियुक्ति निष्पक्ष हो, लेकिन ऐसा फैसला तो कोई लेता नहीं है.
इसलिए जो पार्टी पावर में आती है वो अपने हिसाब से करती है. लेकिन, इसमें ये नहीं कहा जा सकता है कि वो फैसले किसी प्रभाव में दिए गए, इसलिए इन्हें खुश किया जा रहा है. उस फैसले की किसी ने आलोचना नहीं की, राजनीति से इतर. इसलिए, ब्यूरोक्रेट्स से लेकर अन्य प्रभावशाली लोगों की नियुक्ति सरकार करती ही है, क्योंकि सरकार ये समझती है कि वे उस लायक हैं.
हमेशा जब भी किसी की सरकार रही है, पॉलिटिकल एफिलिएशन के हिसाब से गवर्नर बने हैं, इसलिए उनके फैसले भी राजनीति से प्रेरित होते हैं, उनके फैसलों की आलोचना होती है. आज ये आलोचना कर रहे हैं, कल वो कर रहे हैं, संविधान कभी नहीं ये कहता है कि किस तरह की नियुक्ति होनी चाहिए.
मैं ये चाहता हूं कि इसके ऊपर कोई कमीशन बैठे, ताकि हमेशा के ऊपर एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालने से बचा जा सकता है. इसमें ये तय किया जाना चाहिए कि किन-किन लोगों पर रोक लगनी चाहिए और कौन इसके योग्य हो सकते हैं. अभी संविधान में ऐसा कुछ है नहीं, सब अपने हिसाब से बनाते हैं और एक दूसरे की आलोचना करते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)